Friday, January 21, 2011

नींव से शिखर तक मजबूत हो कार्य-संस्कृति


स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों तक जिस प्रश्न का उत्तर पाने का प्रयास नहीं किया जाता है वह है पारदर्शिता की कमी तथा कार्य संस्कृति की शिथिलता। जब तक इन्हें सुधारने का प्रयास नहीं होगा, कोई बड़ा गुणात्मक परिवर्तन लगभग असंभव है। कमजोर कार्य संस्कृति तथा मूलभूत आवश्यकताओं की अनापूर्ति शिक्षा क्षेत्र की बड़ी चुनौतियां हैं। मूल्य-आधारित व्यवस्था की स्थापना के लिए इनका समाधान सघन प्रयासों द्वारा ही हो सकता है
गुणवत्तापरक शिक्षा का प्रारंभ परिवार के बाद स्कूल में प्रथम दिवस से प्रारंभ होना चहिए। दूसरी ओर विश्वविद्यालयों में उन्हीं प्राध्यापकों की नियुक्ति होनी चाहिए जिनकी अध्यापन तथा शोध में अभिरुचि सवरेपरि हो। उच्चतम स्तर की शिक्षा प्राप्त कर आगे अपने चयनित क्षेत्र में श्रेष्ठता तथा उत्कृष्टता प्राप्त करने की ललक हो। आज पूरा विश्व भारत के युवाओं की उत्कृष्टता तथा प्रवीणता को सराहता है। अमेरिका में नासा तथा सिलिकान वैली में उन्होंने भारत के ज्ञान-विज्ञान में किसी से पीछे होने का झंडा गाड़ा है। यह एक पक्ष है। दूसरा पक्ष उन युवाओं का है जो अपने आपको विश्वविद्यालयों में स्थापित करना चाहते हैं मगर जोर-जोर से सारे विश्व को बता रहे हैं कि वह योग्य नहीं हैं। वे नेट परीक्षा पास नहीं कर सकते हैं। योग्यता के मापदंड घटाए जाएं और उन्हें नियुक्त किया जाए। वे इसके लिए भी तैयार नहीं हैं कि दोतीन वर्ष के भीतर नेट पास कर लेंगे। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पिछले लगभग दो दशकों से पीएचडी तथा नेट को लेकर एक अनिश्चय सा बना रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कई बार इस संबंध में परिवर्तन किए हैं। नेट की अर्हता के बाद राज्य स्तरीय परीक्षाओं को उसे स्वीकार करना पड़ा। विश्व शक्ति बनने की राह पर चल रहा देश यह कैसे स्वीकार कर सका कि कुछ राज्यों के योग्यता प्राप्त परास्नातक नेट परीक्षा को कठिन पाते हैं अत: उन्हें राज्य स्तर पर परीक्षा पास करने दी जाए। इसके बाद यूजीसी पर नेट के स्थान पर पीएचडी को स्वीकार करने के दबाव बनते रहे। अब फिर एक बार इसे स्वीकार कर लिया गया है। क्या हमने मान लिया है कि नेट परीक्षा पास करना उनके लिए कठिन या असंभव है जो पीएचडी कर लेते हैं। विश्वविद्यालय या उसके महाविद्यालयों में प्रवक्ता बनकर प्राध्यापक बनने वाले व्यक्ति की गरिमा कैसे बनेगी या बढ़ेगी जो नेट की परीक्षा पास करने से प्रारंभ में बचना चाहता है? डॉक्टरेट की उपाधि का महत्व है परंतु उसकी जो स्थिति आज है उससे कोई नावाकिफ नहीं है। होना तो यह चाहिए कि केवल उन्हें ही शोध करने की अनुमति मिले जो पहले नेट परीक्षा उत्तीर्ण कर अपनी प्रवीणता, योग्यता तथा रुचि का प्रदर्शन कर लें। गुणवत्ता के हृास की कहानी किसी एक स्तर पर विद्यमान नहीं है। जिस देश में केवल 12-15 प्रतिशत बच्चों को साधन संपन्न स्कूलों में शिक्षा मिलती हो तथा बाकी खस्ताहाल सरकारी स्कूलों के भरोसे हों, वहां वह विश्वविद्यालय स्तर इसके प्रभाव से अछूता कैसे रह सकता है। प्रतिवर्ष विशेषकर बड़े शहरों में नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश के लिए पब्लिक स्कूलों के दरवाजों पर जो भीड़ जुड़ती है, वह लगातार बढ़ती जा रही है। ये स्कूल तथा राज्य सरकार मिलकर कई खेल खेलते हैं। दिल्ली के नर्सरी स्कूलों में प्रवेश की र्चचा सारे देश में फैलती है। सरकार नीतियों में बातें तो आम आदमी तथा आर्थिक रूप से वंचित तथा पिछड़े वर्ग की करती है मगर इस बात का भी ध्यान रखती है कि विशिष्ट वर्ग की प्राथमिकता बनी रहे। 1950-60 के वर्षो में क्या यह कल्पना भी की जा सकती थी कि किसी स्कूल में प्रवेश के लिए उन्हीं बच्चों को लिया जाएगा जिनके माता-पिता ऊंची से शिक्षा प्राप्त कर चुके हों, आर्थिक रूप से संपन्न हों तथा स्कूल द्वारा लिए गए इंटरव्यू, जो अब सामान्य परिचय भेंट इत्यादि के नाम से जाना जाता है, में उत्तीर्ण हों? वही बच्चे प्रवेश पाएंगे जिनके माताप्िाता स्कूल प्रबंधन को यह आश्वासन दे सकें कि हम आपकी हर फीस देने को तैयार हैं तथा जो बढ़ोत्तरी होगी, उसे भी पूरा करेंगे। 2010 में शिक्षा के मौलिक अधिकार विधेयक को लागू किया गया। इसके अंतर्गत 25 प्रतिशत स्थानों पर पब्लिक सहित हर स्कूल में आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के बच्चों को प्रवेश देना अनिवार्य किया गया। पब्लिक स्कूलों में इनकी फीस सरकार स्वयं देने को तैयार है मगर स्कूल प्रबंधन इसे मानने को तैयार नहीं है। फीस की भरपाई से इन स्कूलों की अघोषित फीस का क्या होगा। सरकार तथा प्रबंधन के बीच इस प्रकार के प्रश्नों के समाधान सदा ही इस ढंग से निकाले जाते हैं कि प्रबंधन अपने ढंग सेस्कूल के उद्देश्य के अनुसार प्रवेश देता रहे और सरकार सामान्य व्यक्ति को अपने द्वारा निर्धारित नीतियों के परिपत्र दिखाती रहे। पब्लिक स्कूलों में प्रवेश के लिए जो दौड़-धूप प्रतिवर्ष होती हैउसमें उनका अनुग्रह पाने की कतार में राजनेता, अधिकारी, उद्योगपति, व्यापारी, मंत्री, सांसद कौन नहीं होता है? जो भी आर्थिक रूप से इन स्कूलों की मांगें पूरी कर सकता है, इन्हीं में अपने बच्चों को भेजता है और उसके लिए हर प्रकार का प्रयत्न करता है। यह स्कूल बच्चों को भी इंटरव्यू जैसे चक्र से नहीं बख्शते हैं। यद्यपि हाई कोर्ट ने उस पर रोक लगायी है। पब्लिक स्कूलों में नर्सरी प्रवेश प्रक्रिया प्रतिवर्ष लगभग सारे स्कूल शिक्षा क्षेत्र को आच्छादित कर देती है कि व्यवस्था तंत्र तथा मीडिया उन 85-90 प्रतिशत बच्चों की समस्याओं को लगभग नगण्य मान लेता है जो सरकारी या सामान्य स्कूलों में पढ़ते हैं। उनके स्कूलों में बिजली, पानी, शौचालय, अध्यापक, पुस्तकें, मध्याह्न भोजन जैसे पक्ष औसत से कमजोर ही पाए जाते हैं। दिल्ली में जब कॉमनवेल्थ खेलों में हजारों करोड़ के खेल अलग से खेले जा रहे थे, हर तरफनिर्माणहो रहा था तब उसी दिल्ली में साठ सरकारी स्कूल तंबुओं में चल रहे थे। वे आज भी उसी हालात में हैं। नर्सरी प्रवेश की प्रक्रिया पर केंद्रित व्यवस्था जिस प्रकार सामान्य स्कूलों की नजर अंदाज करती है वही आगे चलकर महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में स्तरिभन्नता को बढ़ाती है। पिछले 20 महीनों में शिक्षा के क्षेत्रा में बड़ी-बड़ी घोषणाएं हुई। कक्षा दस की बोर्ड परीक्षा वैकल्पिक घोषित हुई। केवल सीबीएसई ही क्रियान्वयन करना प्रारंभ कर रहा है। 44 डीम्ड विश्वविद्यालयों की मान्यता समाप्त घोषित की गई तथा उतने ही अन्य को नोटिस दिया गया कि मान्यता समाप्त क्यों कर दी जाए। सभी आराम से अपना कार्य कर रहे हैं। विद्यार्थी अवश्य असमंजस में हैं, अनिश्चितता में हैं। उच्च स्तर पर नियामक संस्थाएं अपनी असफलता झेल रही हैं मगर उनकी कार्य पण्राली में परिवर्तन केवल कागजों पर आया है। बड़ी तेजी से कहा गया था कि यूजीसी, एआईसीटीई, एनसीटीई इत्यादि को मिलाकर एक समग्र अधिकार संपन्न नियामक तथा शोध संस्थान बनेगा। पर अभी प्रतीक्षा कीजिए अगली सूचना की। स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा संस्थानों तक जिस प्रश्न का उत्तर पाने का प्रयास नहीं किया जाता है वह है पारदर्शिता की कमी तथा कार्य संस्कृति की शिथिलता। जब तक इन्हें सुधारने का प्रयास नहीं होगा, कोई बड़ा गुणात्मक परिवर्तन लगभग असंभव है। दिल्ली विश्वविद्यालय में दो-ढाई महीने हड़ताल रहती है दूर-दराज के स्कूलों में अध्यापक महीनों नहीं जाते हैं। कमजोर कार्य संस्कृति तथा मूलभूत आवश्यकताओं की अनापूर्ति शिक्षा क्षेत्र की बड़ी चुनौतियां हैं। मूल्य-आधारित व्यवस्था की स्थापना के लिए इनका समाधान सघन प्रयासों द्वारा ही हो सकता है। शिक्षा का वर्णपट केवल साक्षरता नहीं बढ़ाता है वह भविष्य बनाता है देश का और उसकी प्रगति तथा विकास का स्तर निर्धारित करता है। वही देश की साख बनाता है।


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