Saturday, July 30, 2011

Engineering colleges lack teachers: Experts


KOCHI
DC CORRESPONDENT 

July 29: In a shocking revelation the expert committee constituted by the Kerala High Court submitted before the court that even science degree holders are teaching the engineering students in the state. The committee headed by Dr G Rajendran and Dr N Vijayakumar submitted before a bench comprising Justices C.N. Ramachandran Nair and P.S.
Gopinathan that the colleges under the Calicut University were worse as they shared faculties members between different institutions.
According to the committee at the colleges affiliated to the University of Kerala there was shortage of in middle level that is assistant professors. There would be senior faculties but others were only having an experience of 2-3 years. The faculties of assistant professors was scarce. Colleges under CUSAT teachers only possess a B.Tech, the committee which examined the facilities of 25 colleges as the first phase of the study The faculty members in colleges under the MG Uni
versity were teaching B.Tech classes without engineering degrees. It was found that faculties from the government-aided colleges serve in self-financing colleges without any contract or consent or deputation from the government. Besides, colleges had failed to post details about their institutions as prescribed by the AICTE.
It was found that the faculty members who possessed science degree were engaged at engineering colleges. There were only three colleges under the Kannur University.
The inspection of these colleges had been postponed.

Keeping teachers temporary for decades unreasonable: HCUtkarsh Anand



New Delhi Speaking for the teachers made to serve in temporary posts for decades, the Delhi High Court on Friday called it “arbitrary” and “unreasonable” and said this practice violated their fundamental right.
"Keeping a person who was fully qualified in a temporary post for over 15 years is, apart from being arbitrary, also unreasonable as it obviously denies such person the benefits of a regular pay scale, the security of tenure, and all other attendant benefits,” said Justice S Muralidhar.
Ordering Delhi University's School of Correspondence Courses and Continuing Education to consider the case of petitioner Nalini Prabhakar for regularisation of her service in its English department, the court also pulled up the institution for citing non-availability of vacancies as a reason.
“In the affidavit filed by them in Sambhavana vs Delhi University (another case), it was admitted that of the total sanctioned strength of 95 teachers, there were only 41 teachers in place, and there were 54 vacant posts. Even accounting for the quota meant for the disabled, it is inconceivable that none of these vacant posts could be filled up by the school. The non-availability of vacancies was clearly, therefore, an incorrect premise,” the court held.
Justice Muralidhar also took to task the college for contending that the selection process for lecturers was stalled by its managing committee, which had to take up Prabhakar’s case in April 2003, on account of restructuring of the set up of the School of Correspondence Courses.
“The counsel was unable to inform this court when exactly this process of restructuring, which began sometime in October 1996, would come to an end. It seems unreasonable that on the pretext of restructuring the college, all appointments to permanent posts that have been falling vacant over the years in its various departments would not be filled up indefinitely. This, by itself, renders arbitrary the omission of the college to keep its teachers on a temporary basis for a long number of years,” said the court.
The court also discarded the argument that the Human Resource Development Ministry had, in 2009, imposed a ban on the university against filling up vacant posts of teaching and non-teaching staff without prior approval of the UGC, and also that the DU had advised colleges to recruit and appoint only candidates who had qualified the NET/SLET.
Prabhakar, in her petition, had submitted that she had been working continuously on the temporary post with the college since July 1996. By keeping her temporary for over 14 years, the respondents had violated her fundamental rights by denying her the benefit of regularisation, to which she was entitled by law, she claimed.
She also brought on record documents showing that vacant posts were available with the college at subsequent times, but they did not regularise her services on one pretext or another.
Now, the court has directed the managing committee to consider her case in four weeks, and also regularise her services without any benefit of arrears of pay, but from the date on which the first vacancy for a permanent post in the Department of English occurred after her appointment. It also told them to calculate her seniority for pension and other purposes from this date.

Thursday, July 28, 2011

यूपीएससी में मातृभाषा में साक्षात्कार


संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी की यह पहल उल्लेखनीय है कि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में चयन की उम्मीद रखने वाले प्रतिभागी अब अपनी मातृभाषा में मौखिक साक्षात्कार दे सकते हैं। अब तक यूपीएससी की नियमावली की बाध्यता के चलते जरूरी था कि यदि परीक्षार्थी ने मुख्य परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी रखा है तो साक्षात्कार भी अंग्रेजी में देना होगा। जाहिर है, इस फैसले से ऐसे प्रतिभागियों को राहत मिलेगी, जो अंग्रेजी तो अच्छी जानते हैं, लेकिन अंग्रेजी उच्चारण या बोलचाल में उतने परिपक्वनहीं होते। मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा एक जनहित याचिका के संदर्भ में दिए गए फैसले के पालन में यूपीएससी ने यह पहल की है। इस निर्णय से उन चौबीस अन्य भाषाओं को सम्मान मिलेगा जो संविधान का हिस्सा होने बावजूद महत्व और उपयोगिता की दृष्टि से गौण थीं। यह निर्णय उन प्रतिभागियों को भी हीनता व अपमान बोध से मुक्त करेगा जो अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व के चलते अपनी विलक्षण प्रतिभा को व्यक्त नहीं कर पाते थे, हालांकि यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की सर्वोच्च सेवाओं में नौकरी पाने के भाषाई माध्यमों को 63 साल बाद आधिकारिक मान्यता मिली। देशी भाषाओं के वर्चस्व के लिए अंग्रेजी को पूरी तरह बेदखल करने की जरूरत है। हालांकि संघ लोक सेवा आयोग की यह हमेशा कोशिश रही है कि आयोग की परीक्षाओं का माध्यम भारतीय भाषाएं न बन पाएं और अंग्रेजी का वजूद बना रहे। इसके लिए आयोग गोपनीय चालाकियां भी बरतता रहा है। ऐसा वह इसलिए करता रहा है जिससे अंग्रेजी वर्ग को उच्च पद हासिल होते रहें। इसी साल आयोग ने 2011 की प्रारंभिक प्रवेश परीक्षा योजना में ऐच्छिक प्रश्नपत्र के स्थान पर दो सौ अंकों का एक नया प्रश्नपत्र लागू कर दिया। इसमें तीस अंक अंग्रेजी दक्षता के लिए रखे गए थे। हिंदी व संविधान में अधिसूचित अन्य भारतीय भाषाओं को इसमें कोई स्थान ही नहीं दिया गया था। बहुत चतुराई से इस प्रश्नपत्र को केवल उत्तीर्ण होने की पात्रता तक सीमित न रखते हुए इसके प्राप्तांकों को प्रवीणता (मेरिट) सूची से जोड़े जाने की होशियारी भी बरती गई थी। इससे उन अभ्यर्थियों का चयन प्रभावित होना स्वाभाविक था जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से आयोग की परीक्षाओं में बैठते हैं। यह हरकत प्रशासनिक कलाबाजी का ऐसा नमूना था जो भीतरी दरवाजे से अंग्रेजी को थोपने की कोशिश में लगे रहते हैं। इस मामले को बीते सत्र में राज्यसभा सदस्य अली अंसारी ने जोरदार तरीके से उठाया था। जिसे राज्यसभा में बाकी सदस्यों से भी भरपूर समर्थन मिला। यह मामला इतना बढ़ा कि राज्यसभा द्वारा अंग्रेजी की इस अनिवार्यता को वापस लेने के लिए एक संकल्प भी पारित किया गया। अंग्रेजी का संवैधानिक महत्व 63 साल बाद भी इसलिए बना हुआ है, क्योंकि संविधान में इसकी अनिवार्यता को आज तक बेदखल नहीं किया गया है। इसे अभी भी राष्ट्र की संपर्क भाषा के तौर पर संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। यदि इस बाध्यता को संसद में विधेयक लाकर तथा अधिनियम बनाकर हटा दिया जाए तो भारतीय भाषाओं को वैधानिक स्वरूप लेने में देर नहीं लगेगी। इस स्थिति के निर्माण से ग्रामीण प्रतिभाओं को खिलने और खुलने का मौका तो मिलेगा ही देश में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शैक्षिक समरूपता लाने का अवसर भी हासिल करने में मदद मिलेगी। शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषाओें का आधिपत्य कायम होता है तो सरकारी पाठशालाओं में पठन-पाठन की स्थिति मजबूत होगी और आम अवाम को मंहगी कान्वेंट शिक्षा से निजात मिलेगी। वैसे भी आयोग की परीक्षा में 45 प्रतिशत छात्र हिंदी माध्यम के शामिल होते हैं और 40 प्रतिशत संविधान में अधिसूचित अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से बैठते हैं, लेकिन इनमें से मुख्य परीक्षा में कामयाबी बमुश्किल 40 फीसदी प्रतिभागियों को ही मिल पाता है। इन प्रतिभागियों में भी 22 फीसदी हिंदी माध्यम के परीक्षार्थी होते हैं। अंग्रेजी माध्यम से इस परीक्षा में बैठने की मजबूरी इसलिए भी है, क्योंकि संपूर्ण और उच्च गुणवत्ता की पाठ्यसामग्री अंग्रेजी में आसानी से उपलब्ध है। अंग्रेजी परस्त लोगों द्वारा भारतीय भाषाओं को नकारने के पीछे यह तर्क अमूमन देते हैं कि इन भाषाओं मे उच्च शिक्षा अर्जन की दृष्टि से साहित्य और तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का अभाव है। इस परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक खबर यह है कि अब विज्ञान और तकनीकी ज्ञान का शब्दकोश भी तैयार हो चुका है और यह प्रकाशित भी हो चुकी है। इसके लिए यदि आवश्यकता है तो सिर्फ प्रशासनिक स्तर पर उसे कार्यरूप में लेने की इच्छाशक्ति जताने की। यही नहीं, अब कंप्यूटर तकनीक ने इसे और भी अधिक आसान बना दिया है। गूगल ने ऐसे अनुवादक और भाषा परिवर्तक सॉफ्टवेयर तैयार करके इंटरनेट पर मुफ्त उपलब्ध करा दिया है, जिनके जरिए किसी भी भारतीय भाषा का भाषाई परिर्तन और अनुवाद की सुविधा अब अधिक आसान व सर्वसुलभ है। अब तो यूनिकोड का हिंदी मंगल फोंट भी प्रचलन में आ गया है जो सीधे स्क्रीन पर अंग्रेजी फोंट की तरह ही खुलता है। यह जानकारी उन सभी तकनीकी विशेषज्ञों और नौकरशाहों को है, जिनकी दिनचर्या में कंप्यूटर और इंटरनेट शामिल हैं, लेकिन वे कुटिल चालाकियां इसलिए बरत रहे हैं, क्योंकि भाषाई अनुवाद व लिप्यांतर के इन औजारों का व्यापक इस्तेमाल यदि शुरू हो जाता है तो उनकी अंग्रेजी के बहाने जो वंशानुगत सत्ता बनी चली आ रही है, उसके वर्चस्व पर खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। राष्ट्रभाषाएं सामाजिक संपत्ति और वैचारिक संपदा होने के साथ-साथ संस्कृति, परंपरा, रीति- रिवाज, तीज-त्यौहार और लोकोक्ति व मुहावरों को व्यक्त करने का भी माध्यम होती हैं, इसलिए यदि भाषाओं की प्रयोगशीलता, महत्ता और अनिवार्यता को नजरअंदाज किया जाएगा तो यह सांस्कृतिक धरोहरें भी धीरे-धीरे लुप्त होती चली जाएंगी और संस्कारों के बीज पनपने पर अंकुश लग जाएगा। सांस्कृतिक हमलों के बढ़ते इस दौर में यदि हमने भाषाओं की उपेक्षा की तो देश सांस्कृतिक पराधीनता की ओर बढ़ता रहेगा। नीति-नियंताओं को यहां यह भी रेखांकित करने की जरूरत है कि जिस तरह से हमने आधुनिक खेती और रासायनिक खादों के बहाने खेतों की उर्वरा क्षमता का नाश किया और किसान को कर्ज के बोझा में डुबोकर उसे आत्महत्या के लिए विवश किया है, उसी तरह यदि हम उच्च पदों की परीक्षाओं में अंग्रेजी को अनिवार्य करेंगे तो मातृभाषाओं में शिक्षित युवाओं को आत्महीनता के मरुस्थल में धकेलने का काम करेंगे। इस आत्महीनता ने यदि आक्रामकता का रुख अपना लिया है तो हमें विध्वंस के दौर का भी सामना करना पड़ सकता है। इस तरह के आने वाले किसी भी बुरे हालात से बचने के लिए यह जरूरी है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता हर स्तर पर समाप्त की जाए और आगे बढ़ने अथवा शीर्ष तक पहुंचने का अवसर सभी को मुहैया कराया जाए। इसके लिए सरकार को दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा और सभी को साथ लेकर चलने की भावना दिखानी होगी.

Monday, July 25, 2011

साक्षर भारत मिशन को लेकर उदासीन हैं राज्य


नई दिल्ली कागजों में भले ही बहुत कुछ हो, लेकिन प्रौढ़ अनपढ़ों को साक्षर बनाने का मन शायद राज्य सरकारों का भी नहीं करता। केंद्र ने करीब दो साल पहले साक्षर भारत मिशन शुरू किया था, लेकिन राज्यों ने उसे जरूरी तवज्जो नहीं दी। नतीजा यह है कि कोई भी राज्य ऐसा नहीं, जहां इस मिशन का काम लटका न पड़ा हो। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे बड़े राज्य भी इस मामले में कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं। सरकार खुद मानती है कि राज्यों के उदासीन रवैए के चलते निरक्षरता मिटाने के अभियान में अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही है। सूत्रों के मुताबिक पूर्व की समीक्षा बैठक में सहमति जताने के बावजूद बिहार का कामकाज काफी पीछे है। सभी जिला व ब्लाकों पर समन्वयक नहीं नियुक्त हो पाए हैं। बेगूसराय, भोजपुर एवं खगडि़या जिलों में हजारों प्रौढ़ शिक्षा केंद्र अब भी नहीं शुरू हो पाए हैं। सरकार ने 2009-10 में मिशन में शामिल तीन जिलों में धन खर्च की रिपोर्ट भी केंद्र को देने में कोताही की। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का कुछ ऐसा ही हाल है। साक्षर भारत मिशन के पहले चरण (2009-10) में प्रदेश के 26 जिलों को शामिल किया गया था जबकि 66 जिले मिशन में शामिल करने की श्रेणी में आते थे। शेष बचे जिलों को इस साल शामिल किया जाना है। सूत्रों के मुताबिक उत्तर प्रदेश ने भी पहले चरण में न सिर्फ धन खर्च में उदासीनता दिखाई, बल्कि स्वयंसेवक शिक्षकों (वालंटियर टीचर) के इंतजाम में कोताही की जबकि उसे लगभग चार लाख ऐसे वालंटियर्स की व्यवस्था करनी थी। प्रौढ़ निरक्षरों को साक्षर बनाने में कुछ इसी से मिलती-जुलती अनदेखी पश्चिम बंगाल, पंजाब और हरियाणा जैसे दूसरे राज्यों में भी सामने आई है। केंद्र की नजर में उत्तर प्रदेश, हरियाणा और महाराष्ट्र समेत चार प्रदेश की सरकारों ने अपने राज्य साक्षरता मिशन प्राधिकरण को जरूरी तवज्जो नहीं दी। मालूम हो कि 2001 में देश में लगभग 30 करोड़ लोग निरक्षर थे। सरकार मानकर चल रही थी कि मिशन कामयाब हुआ तो 2012 तक इसमें 10 से 11 करोड़ की कमी हो जाएगी, लेकिन राज्यों के रुख को देख नहीं लगता कि यह हो पाएगा। सरकार ने 15 से 35 आयु वर्ग के प्रौढ़ निरक्षरों को साक्षर बनाने के लिए सितंबर, 2009 में साक्षरता भारत मिशन की शुरुआत की थी।

वित्त मंत्री की घोषणा पर एचआरडी ने जताया एतराज


नई दिल्ली वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी भले ही संप्रग सरकार के खजाने के मालिक हों लेकिन ऐसा नहीं है कि वे जिसे जो चाहें दे दें। वित्त मंत्री ने एक निजी उच्च शिक्षण संस्थान को एकमुश्त 10 करोड़ रुपये का विशेष अनुदान का एलान तो अपने बजट में कर दिया, लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियम-कायदों के दायरे में वह उसका पात्र ही नहीं है। यही वजह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एचआरडी) ने पात्रता की शर्ते पूरी किए बगैर उसे अनुदान देने में हाथ खड़े कर दिए हैं। वित्त मंत्री ने इस साल फरवरी में अपने बजट भाषण में मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स (एमएसइ) चेन्नई को दस करोड़ रुपये का विशेष अनुदान दिए जाने की घोषणा की थी। इस संस्थान के संचालक मंडल के चेयरमैन डॉ. सी रंगराजन हैं। वित्त मंत्री के इस एलान पर अमल की कोशिशें तो चालू वित्त वर्ष के शुरू में ही हो गई थीं, लेकिन अब तक उस पर अमल नहीं हो पाया है। वजह यह है कि यूजीसी सिर्फ उन्हीं सरकारी, डीम्ड या निजी विश्वविद्यालयों व कॉलेजों को अनुदान दे सकता है, जो यूजीसी अधिनियम की धारा 2-एफ व 12-बी के तहत उसके यहां से मान्यता प्राप्त हों। मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स इन उपबंधों के तहत यूजीसी से मान्यता प्राप्त ही नहीं है। सूत्रों के मुताबिक मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अनुदान व विशेष अनुदान के लिए यूजीसी के इन नियमों-कायदों की बाबत वित्त मंत्रालय के साथ ही मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स को भी अवगत करा दिया है। हालांकि मंत्रालय ने विशेष अनुदान के लिए मना नहीं किया है, लेकिन यह भी साफ कर दिया है कि अनुदान के जरूरी मापदंडों को पूरा करने के बाद ही वह मदद कर पाएगा। मंत्रालय ने मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स को 2-एफ व 12-बी की मान्यता के लिए यूजीसी में आवेदन की सलाह दी है।

Saturday, July 16, 2011

दाखिलों में नहीं बढ़ेगा सांसदों का कोटा


 स्कूलों में दाखिलों की दिक्कत से जूझ रहे माता-पिता को उनके सांसद भी ज्यादा राहत नहीं दिला पाएंगे। कानून मंत्रालय ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उस प्रस्ताव को हरी झंडी देने से इंकार कर दिया है जिसमें केंद्रीय विद्यालयों के दाखिलों में सांसदों का कोटा दो से बढ़ाकर पांच करने की बात कही गई थी। सूत्रों के मुताबिक मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की पहल पर उनके मंत्रालय ने केंद्रीय विद्यालयों के दाखिले में सांसदों के कोटे को बढ़ाने का प्रस्ताव दिया था। मंत्रालय ने कानूनी बाध्यताओं के तहत प्रस्ताव पर कानून मंत्रालय की मंजूरी मांगी थी। बताते हैं कि कानून मंत्रालय ने सुप्रीमकोर्ट के एक फैसले का हवाला देते हुए विवेकाधीन कोटे के मामले को जन नीति के दायरे में आने की बात कही है। साथ ही विवेकाधीन कोटे के मनमाने उपयोग की गुंजाइश से बचने की भी पैरवी की। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कोटे को बढ़ाने के पीछे केंद्रीय विद्यालयों की संख्या 871 से बढ़कर 1085 हो जाने का तर्क दिया था। कानून मंत्रालय ने उसे यह कहकर खारिज कर दिया है कि जिस लिहाज से सांसदों के कोटे की सीटें बढ़ाने की मांग की गई है, उस हिसाब से केंद्रीय विद्यालयों की संख्या नहीं बढ़ी है। वैसे भी यह मामला कानूनी नहीं, बल्कि प्रशासनिक प्रकृति का है। लिहाजा मंत्रालय को इस बारे में अपने स्तर पर ही फैसला लेना चाहिए। मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कहना था कि मानव संसाधन विकास मंत्री के कोटे की हर साल 1200 सीटों पर दाखिले का प्रावधान 2010 से ही खत्म किया जा चुका है। सांसदों के कोटे को दो से पांच करने पर हर शैक्षिक सत्र में सिर्फ 2400 अतिरिक्त दाखिले ही करने होंगे। सांसद अपने कोटे के हर साल पांच दाखिलों में से तीन को अपने संसदीय क्षेत्र में और दो को अपने क्षेत्र के ही लोगों के बच्चों के लिए दिल्ली में उपयोग कर सकेंगे। राज्यसभा सांसद अपने प्रदेश व दिल्ली में अपने कोटे का इस्तेमाल कर सकते थे। दूसरी बात यह कि इससे शिक्षा का अधिकार कानून के तहत वर्ग विशेष के लिए 25 प्रतिशत आरक्षित सीटों पर भी कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा। जिन सांसदों के क्षेत्र में केंद्रीय विद्यालय नहीं हैं, वे अपने बगल के संसदीय क्षेत्र में कोटे का इस्तेमाल कर सकते थे।

Tuesday, July 12, 2011

सवा लाख शिक्षा मित्रों को शिक्षक का दर्जा देंगी माया


 शिक्षामित्रों को बेसिक स्कूलों में स्थायी शिक्षक का दर्जा देने पर मुख्यमंत्री मायावती ने कैबिनेट की बैठक में मुहर लगा दी। फैसले के अनुसार सूबे के एक लाख 24 हजार स्नातक शिक्षा मित्रों को दूरस्थ शिक्षा के माध्यम से दो वर्षीय बीटीसी प्रशिक्षण दिया जाएगा। प्रशिक्षण के बाद शिक्षामित्र सूबे के प्राथमिक स्कूलों में बतौर शिक्षक नियुक्त होने की शैक्षिक योग्यता हासिल कर लेंगे और उनकी स्थायी नियुक्ति का रास्ता साफ हो जाएगा। शिक्षामित्रों को यह प्रशिक्षण दो चरणों में दिया जाएगा। पहला चरण 2011-13 और दूसरा 2013-15 में होगा। प्रत्येक चरण में 62,000 शिक्षामित्र प्रशिक्षित किये जाएंगे। इस संबंध में सोमवार को शासनादेश भी जारी कर दिया गया है। अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण करने पर एससीईआरटी की ओर से उन्हें प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा। प्रशिक्षण के दौरान शिक्षा मित्रों को स्कूलों में पढ़ाना होगा। इस बीच शिक्षा मित्रों को 3500 रुपये प्रति माह मानदेय मिलता रहेगा। शासन ने जून 2015 तक 1.24 लाख स्नातक शिक्षामित्रों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य तय किया है


पृष्ठ संख्या 01, दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 12 जुलाई, 2011

Thursday, July 7, 2011

जर्जर बुनियाद पर टिकी शिक्षा

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संसदीय समिति ने देश की प्राथमिक शिक्षा से जुड़े दो प्रमुख ज्वलंत मुद्दों पर राज्य सरकारों से जवाब-तलब किया है। इसमें पहला मुद्दा मिड-डे मील में बढ़ते भ्रष्टाचार का है तो दूसरा प्राथमिक विद्यालयों में छात्रों की नामांकन संख्या में आ रही लगातार गिरावट का है। उल्लेखनीय है कि मिड-डे मील योजना स्कूलों में गरीब तबकों के बच्चों को पोषाहार उपलब्ध कराने के लिए लागू की गई थी और उम्मीद की गई थी कि इससे स्कूलों में ड्रापआउट रेट अर्थात बीच में ही पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या की दर को घटाने में मदद मिलेगी। साथ ही साथ उनका पोषण स्तर भी ठीक रहेगा। उत्तर प्रदेश, बिहार व झारखंड समेत आधा दर्जन राज्यों ने इस योजना की धनराशि दूसरे मदों में खर्च करने की बात स्वीकार की है। इसे लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कड़ी नाराजगी जाहिर करने के साथ ही योजना प्रबंधन के तौर-तरीकों पर भी नए सिरे से विचार करने की बात कही है। देश में सर्वप्रथम मिड-डे मील योजना 1960 में तमिलनाडु में शुरू हुई थी। योजना की सफलता देखते हुए बाद में इसका अनुकरण गुजरात, केरल, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश व राजस्थान सरकारों ने भी किया। इस योजना का प्रमुख उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा के विस्तार में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल करना था। 28 नवंबर 2001 को उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश के बाद यह योजना देश के सभी सरकारी एवं सहायता प्राप्त स्कूलों में शुरू हुई, लेकिन मिड-डे मील योजना आज भ्रष्टाचार का एक लाभकारी साधन बनकर रह गई है। पिछले साल अप्रैल में केंद्र सरकार ने बच्चों की शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाते हुए शिक्षा अधिकार कानून लागू किया। इसके लिए प्राथमिक शिक्षा के मद में अतिरिक्त बजट दिया गया, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा। आंकड़े बताते हैं मिड-डे मील योजना ने देश की प्राथमिक शिक्षा का बहुत भला नहीं किया है। 2007 के बाद से पूरे देश में प्राथमिक स्कूलों में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या में अच्छी-खासी गिरावट आई है। 2008 से 2010 के बीच कक्षा एक से लेकर कक्षा चार तक के बच्चों का नामांकन 26 लाख घटा है। केवल उत्तर प्रदेश की ही बात करें तो पिछले दो वर्षो में दस लाख नामांकन घटे हैं। इसके अलावा बिहार, राजस्थान, तमिलनाडु में भी बच्चों का नामांकन लगातार घट रहा है। इस मामले में असम सर्वाधिक प्रभावित राज्य है। आजादी के बाद 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा देने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनी। इसके तहत ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, अनौपचारिक शिक्षा तथा महिला समाख्या के अलावा आंध्र प्रदेश में बेसिक शिक्षा परियोजना, राजस्थान में लोक जुंबिश तथा उत्तर प्रदेश में सर्वशिक्षा अभियान तथा जिला प्राथमिक शिक्षा जैसे प्रमुख कार्यक्रम रहे हैं। इन सभी परियोजनाओं का मूल उद्देश्य बुनियादी शिक्षा के माध्यम से देश में सामाजिक न्याय और समानता स्थापित करना था। पिछले छह दशकों में देश की प्राथमिक शिक्षा में तीस गुना तथा उच्च प्राथमिक शिक्षा में चालीस गुना से भी अधिक की वृद्धि हुई है। बावजूद इसके प्राथमिक शिक्षा की तस्वीर धुंधली नजर आती है। छह से 14 वर्ष तक के दो करोड़ बच्चों में से आधे बच्चे भी स्कूलों तक नहीं पहुंच रहे हैं और मिड-डे मील योजना के बावजूद भी ड्रापआउट दर बहुत अधिक है। शिक्षा का बुनियादी ढांचा कमजोर है तथा शिक्षण दिनचर्या भी उबाऊ है। उच्चतम न्यायालय के मुताबिक पूरे देश में लगभग 1800 स्कूल टेंट और पेड़ों के नीचे चल रहे हैं। 24 हजार स्कूलों में पक्के भवन नही हैं। एक लाख से भी अधिक स्कूलों में पीने के पानी का प्रबंध नहीं है तथा 45 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालयों जैसी सुविधाओं का अभाव है। लाखों शिक्षकों के पद आज भी रिक्त हैं। राज्य सरकारें बजट की कमी का तर्क देकर अल्प वेतन पर शिक्षामित्र, शिक्षाकर्मी तथा पैरा टीचर्स की नियुक्ति करके कामचलाऊ व्यवस्था चला रही हैं। शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद 14 वर्ष तक के बच्चों को नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा देना आज संवैधानिक मजबूरी बन गई है, लेकिन इस हेतु बजट के लिए हमें विदेशी संस्थाओं का मुंह ताकना पड़ता है। विकास के जिस अंग्रेजी मॉडल का अनुकरण किया गया उससे हमारी मातृभाषा से जुड़ी प्राथमिक शिक्षा पृष्ठभूमि में चली गई। देश की संसद को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून बनाने में छह दशक लग गए। नि:संदेह आज राष्ट्र की प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी मिड-डे मील योजना के संचालन में भ्रष्टाचार एक गंभीर चिंता का विषय है। देश के प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी ढांचे के निरंतर कमजोर होने का यह परिणाम रहा कि राष्ट्र के अहसास से जुड़ी बुनियादी सस्थाएं भी कमजोर होती चली गई। इस संबंध में भ्रष्टाचार का समाजशास्त्र बताता है कि जब लोग अपने राष्ट्र के नैतिक चरित्र से कट जाते हैं तो उनमें चारित्रिक विचारधारा का लोप होने लगता है। देश की बुनियादी शिक्षा तक उनके लिए स्वार्थसिद्धि और खुदगर्जी का साधन बन जाती है। राष्ट्र में जवाबदेही के वातावरण का निर्माण हो, इसके लिए प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी महत्वपूर्ण संस्थाओं पर राष्ट्रीय प्रतिबद्धता से जुड़े लोगों का आसीन होना जरूरी है। प्राथमिक शिक्षा किसी भी देश की रीढ़ होती है और जब किसी देश की रीढ़ टूटती है तो आकर्षक से आकर्षक इमारतें भी भरभराकर गिरने लगती हैं। देश की प्राथमिक शिक्षण संस्थाओं के साथ आज भी यह क्रम जारी है। यदि देश में मिड-डे मील जैसी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करना है तो प्राथमिक शिक्षा के बुनियादी ढांचे को न केवल मजबूत बनाना होगा, बल्कि शिक्षक व शिक्षण की गुणवत्ता को भी बढ़ाना होगा। इस काम को किए बिना प्राथमिक शिक्षण को मजबूत नहीं बनाया जा सकता। (लेखक समाज शास्त्र के प्राध्यापक हैं).