Friday, July 1, 2011

उच्च शिक्षा का यह निम्न कारोबार



क्या यह उन उम्मीदवारों के साथ भद्दा मजाक नहीं है, जिन्होंने सालों मेहनत करके नेट या स्लेट क्वालीफाई किया? उनकी बराबरी वे करेंगे, जो ठेके पर अपनी थीसिस लिखा लाए या किसी दूसरी थीसिस से चुराकर नई थीसिस तैयार कर ली और पीएचडी हो गए? जिस डिग्री की कहीं भी कोई सुव्यवस्थित परीक्षा प्रणाली आजतक नहीं थी और अभी भी नहीं बनी है, वह डिग्री एक राष्ट्रीय, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की परीक्षा के बराबर कैसे हो सकती है?च्च शिक्षा का निम्न कारोबार केवल ग्रेजुएट होने का दाखिला लेने में ही नहीं है। देश में उच्च शिक्षा के शीर्ष समझे जानेवाले पीएचडी शोध के लिए जिस तरह से शिक्षक लॉबी और धनपति कारोबार कर रहे हैं, उसकी दशा तो और भी दयनीय है। देश में भ्रष्टाचार और लालफीताशाही कितनी ताकतवर है, यह एक बार हम फिर देख सकते हैं, जहां यूजीसी ने हाल में ही दिल्ली हाईकोर्ट के निर्णय को भी रद्दी की टोकरी में फेंककर अपनी दबंगई का अहसास पूरे देश को करा दिया है। उसने अपने ही बनाए 25 साल पुराने मानदंडों को चंद रईसजादों के स्वार्थ के लिए छिन्न-भिन्न कर दिया है। पूरा मामला ठंडे दिमाग से समझना होगा। भरतीय गड़बड़तंत्र में उच्च शिक्षा की नियामक संस्थाओं में एक यूजीसी ने उच्च शिक्षा में उच्चतम गुणवत्ता युक्त शिक्षण सुनिश्चित करने के लिए 1985 में एक राष्ट्रीय स्तर की पात्रता परीक्षा आयोजित करने और इस परीक्षा में अर्हता प्राप्त उम्मीदवारों को ही उच्च शिक्षा की शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन हेतु पात्र मानने का निर्णय लिया था, जिसका देशभर में स्वागत किया गया था। इस परीक्षा में तीन-तीन प्रश्नपत्रों के जरिए उम्मीदवार के समग्र विषय ज्ञान के साथ-साथ शोध अभियोग्यता व समग्र अध्यापक व्यक्तित्व की भी परीक्षा ली जाती रही। इस परीक्षा को राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा नाम दिया गया और इसे वर्ष में दो बार आयोजित किया जाने लगा। पिछले 25 वर्षो से यह परीक्षा देशभर में हर साल दो बार आयोजित की जाती रही है।

यूजीसी के इस नियम से भ्रष्ट प्राध्यापकों का धंधा चौपट हो गया, क्योंकि छात्रों ने अब पीएचडी करने के बजाय नेट क्वालीफाई करने हेतु पढ़ना शुरू कर दिया था। अब न तो प्राध्यापकों के मनोरंजन के लिए शोध छात्राएं थीं और न आटा पिसाने वाले शोध छात्र। सो प्राध्यापकों की निहित स्वार्थी लॉबी नेट के विरुद्ध संगठित हो गई। इसमें उन अफसरों, नेताओं और धनपतियों का भी सहयोग उन्हें मिला, जो अपनी बीवियों, बच्चों और चमचों को कॉलेजों में चिपकाना चाहते थे, लेकिन नेट क्वालीफाई करने की बाधा उनके सामने थी। इस बाधा को दूर करने के लिए भ्रष्ट तंत्र का सहारा लिया गया और यूजीसी में मनमाफिक लोग भेजे गए। परिणाम यह हुआ कि यूजीसी ने 1993 तक पीएचडी उपाधि प्राप्त करने वाले अभ्यर्थियों को नेट के समकक्ष मान लिया। तब शायद यह सोचा गया होगा कि व्यवस्था को लूटने वाले लुटेरों की महत्वाकांक्षाएं इसके आगे नहीं जाएंगी, लेकिन यह सिलसिला नहीं रुका और यूजीसी पर दबाव बनाते हुए पहले यह सीमा वर्ष 2000 तक और फिर 2002 तक बढ़ा दी गई। लेकिन सवाल तो प्राध्यापकों के धंधे की मंदी का भी था, सो अब हमेशा के लिए पीएचडी को नेट/स्लेट के बराबर मान लिया गया।

इस मनमानी को दिल्ली हाईकोर्ट ने एक प्रकरण में संज्ञान में लिया और यूजीसी को निर्देशित किया कि नेट का विकल्प पीएचडी नहीं हो सकती, लेकिन व्यवस्था पर जोंक की तरह चिपके ताकतवरों ने इस निर्णय को कोई तवज्जो नहीं दी। आज भी देश में यूजीसी का नया नियम ही ससम्मान लागू है। सवाल यह है कि पीएचडी जब नेट के बराबर ही है तो फिर अब यूजीसी देश के विश्वविालयों पर पीएचडी हेतु प्रवेश परीक्षा/चयन परीक्षा लेने का दबाव क्यों बना रही है? आज तक जो पीएचडी हुई हैं, उनमें खुद यूजीसी को कलमकारी पीएचडी की गंध आती है। एक ऐसी परीक्षा, जिसमें विषय की समग्र परीक्षा ली जाती है, उस उपाधि के बराबर कैसे हो सकती है जिसका कोई भी सर्वमान्य मानक देशभर में नहीं है। अगर पीएचडी डिग्री नेट के बराबर है तो फिर कोई अभ्यर्थी नेट की परीक्षा क्यों देगा? वह पीएचडी करने का आसान रास्ता क्यों नहीं चुनेगा? और, फिर यूजीसी खुद यह परीक्षा हर साल दो-दो बार आयोजित कराके देश का समय और धन क्यों बर्बाद करती है?

एक और मजेदार बात यह भी है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग शिक्षक पात्रता परीक्षा आयोजित करने जा रही हैं, जो प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षकों की नियुक्ति के लिए अपरिहार्य योग्यता होगी, भले ही उनके पास बीएड या डीएड जैसी डिग्री हो, जबकि उच्च कक्षाओं में पढ़ाने के लिए यूजीसी ने अपनी ही बनाई नेट अर्हता वाली शर्त को किसी भी तरह कबाड़ी गई पीएचडी के समकक्ष मान लिया है। नेट की तर्ज पर देश के अधिकतर राज्यों में राज्य स्तरीय पात्रता परीक्षा स्लेट या सेट भी आयोजित की जा रही हैं, जो यूजीसी के नए नियम के कारण पीएचडी के बराबर हो गई हैं।

क्या यह उन उम्मीदवारों के साथ भद्दा मजाक नहीं है, जिन्होंने सालों मेहनत करके नेट या स्लेट क्वालीफाई किया? उनकी बराबरी वे करेंगे, जो ठेके पर अपनी थीसिस लिखा लाए या किसी दूसरी थीसिस से चुराकर नई थीसिस तैयार कर ली और पीएचडी हो गए? जिस डिग्री की कहीं भी कोई सुव्यवस्थित परीक्षा प्रणाली आजतक नहीं थी और अभी भी नहीं बनी है, वह डिग्री एक राष्ट्रीय, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर की परीक्षा के बराबर कैसे हो सकती है? लेकिन भ्रष्टतंत्र में कुछ भी संभव है, वरना उच्च न्यायालय के निर्णय को इतनी दबंगई के साथ खारिज नहीं किया जा सकता था।

No comments:

Post a Comment