Thursday, January 31, 2013

अब एक साल में मिलेगी एलएलएम की डिग्री




ठ्ठ जागरण न्यूज नेटवर्क, भोपाल अगले सत्र से एलएलएम (मास्टर ऑफ लॉ) कोर्स करने के इच्छुक विधि के छात्रों के लिए एक अच्छी खबर है। विदेशों की तर्ज पर सत्र 2013-14 से एलएलएम कोर्स अब एक साल का होने जा रहा है। फिलहाल यह दो साल का होता है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक वर्षीय एलएलएम कोर्स के लिए गाइडलाइन जारी कर दी है। इस कोर्स में प्रवेश ऑल इंडिया एडमिशन टेस्ट के आधार पर होगा। यह प्रवेश परीक्षा प्रत्येक विश्वविद्यालय चाहे तो अपने स्तर पर या फिर समूह बनाकर आयोजित कर सकेंगे। इस एक वर्षीय एलएलएम कोर्स के लिए इच्छुक विश्वविद्यालयों को सेंटर ऑफ पोस्ट ग्रेजुएट लीगल स्टडीज की स्थापना करनी होगी। इस सेंटर में कम से कम 10 फुल टाइम, योग्य व अनुभवी फैकल्टी रखनी होगी, जिनमें कम से कम चार प्रोफेसर व एसोसिएट प्रोफेसर अनिवार्य रूप से रहेंगे। साथ ही प्रत्येक पांच छात्रों पर एक प्रोफेसर या एसोसिएट प्रोफेसर रखना होगा। यह कोर्स ट्रीमेस्टर या फिर सेमेस्टर प्रणाली पर लागू होगा। अगर एक वर्षीय एलएलएम कोर्स ट्रीमेस्टर प्रणाली से चलाया जाता है तो न्यूनतम 12 हफ्ते की क्लास अनिवार्य होगी। वहीं सेमेस्टर प्रणाली लागू करने पर न्यूनतम 18 हफ्ते की क्लास अनिवार्य होगी। प्रत्येक हफ्ते 30 कंटेक्ट क्लास के साथ ही सेमिनार, फील्ड वर्क, प्रोजेक्ट आदि भी अनिवार्य रूप से करने होंगे। कोर्स में तीन पेपर अनिवार्य विषयों के तथा छह पेपर वैकल्पिक व विशेष विषयों के होंगे। गौरतलब है कि वर्तमान में विधि के छात्रों को स्नातक (एलएलबी) के बाद दो साल का एलएलएम कोर्स करना पड़ता है। राजीव गांधी लॉ कॉलेज, भोपाल के विधि विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ.विनोद तिवारी ने कहा, एक वर्षीय एलएलएम कोर्स के लिए लंबे समय से कवायद चल रही थी। यूजीसी ने अब अगले सत्र से एक वर्षीय एलएलएम कोर्स शुरू करने की गाइडलाइन जारी कर दी है। इससे विधि में स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने वालों की संख्या में वृद्धि होने की संभावना है।

Dainik jagran National Edition 30-01-2013 Page -6 f’k{kk)

Tuesday, January 22, 2013

शिक्षा की बदहाली





पिछले दिनों में दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के लिए चुनाव घोषणापत्र जारी करते हुए अकाली दल बादल के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पंजाब के उप-मुख्यमंत्री सुखबीर बादल ने कहा कि शिक्षा उनकी पार्टी के लिए सर्वोपरि है। उन्होंने इस मौके पर युवाओं की शिक्षा से जुड़ी कई महत्वपूर्ण घोषणाएं भी कीं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिक्षा की स्थिति पूरे देश में बहुत खराब हो चुकी है। हम योजनाओं के तौर पर सबके लिए शिक्षा और बच्चों एवं युवाओं की शिक्षा से जुड़े कई कार्यक्रमों का जिक्र भले कर लें, लेकिन सच्चाई यह है कि शिक्षा पर सरकार सबसे कम ध्यान दे रही है। लोगों में खुद तो शिक्षा के प्रति जागरूकता आई है, लेकिन सरकारी तंत्र इस मामले में पर्याप्त कारगर साबित नहीं हो पा रहा है। शिक्षा के महत्व से अब सभी सुपरिचित हैं और इसीलिए पिछड़े व गरीब तबके के लोग भी अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं। लोगों की जागरूकता के कारण शिक्षा का प्रसार बढ़ा है, लेकिन सरकारी तंत्र के ढीलेपन के कारण इसकी गुणवत्ता लगातार घट रही है। ऐसी स्थिति में सुखबीर सिंह अपनी पार्टी के लिए शिक्षा को सर्वोपरि बता रहे हैं तो यह एक शुभ संकेत है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि शिक्षा ही वह उपाय है, जिसके जरिये कोई राष्ट्र विकास के रास्ते पर आगे बढ़ सकता है। क्योंकि शिक्षा के जरिये ही अपने संसाधनों के बेहतर उपयोग के तरीके सीख सकते हैं और न्यूनतम लागत में अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा ही आदमी के मन में व्यवस्था के प्रति आस्था जगाती है और यही उसे व्यवस्था की खामियों के खिलाफ सही तरीके से लड़ने का जज्बा भी देती है। शिक्षा के अभाव में कोई व्यक्ति न तो अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो पाता है और वह अपने कर्तव्यों के प्रति ही सचेत होता है। अशिक्षित व्यक्ति किसी घटना या स्थिति विशेष के प्रति अपनी कोई स्पष्ट राय भी नहीं बना पाता है। आम तौर पर महत्वपूर्ण मसलों पर खुद असमंजस में होने के कारण वह अपना कोई पक्ष भी स्पष्ट तौर पर नहीं चुन पाता है। क्योंकि वह स्वयं अपने हित या अहित का ठीक-ठीक निर्णय भी नहीं कर पाता है। वह किसी घटना का तुरंत का प्रभाव तो देखता है, लेकिन दूरगामी परिणाम का आकलन आम तौर पर नहीं कर पाता है। एक लोकतांत्रिक देश के लिए यह स्थिति कभी भी अच्छी नहीं कही जा सकती है। क्योंकि लोकतंत्र की पूरी व्यवस्था ही लोगों की सम्मति पर टिकी होती है। सैद्धांतिक रूप से यहां सरकार के हर निर्णय को जनता का ही निर्णय माना जाता है। ऐसी जनता अपने हित या अहित का निर्णय कैसे कर सकती है, जिसे दुनिया के हालात का कुछ स्पष्ट पता ही न हो। वस्तुत: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के अभाव का यह असर लोकतंत्र के प्रति हमारी सोच पर भी दिखाई देता है। अवसर चाहे विधानसभा या लोकसभा चुनाव का हो, या फिर किसी भी जनांदोलन का, दोनों ही मामलों में जनता का जो निर्णय सामने आता है, उस पर चल रही हवा के साथ बहने का भाव ज्यादा और सोच-विचार कर सही निर्णय का भाव कम होता है। कई बार लोग केवल विरोध के लिए विरोध कर रहे होते हैं, यह समझे बगैर कि जिस स्थिति के खिलाफ वे खड़े हैं, उसकी असलियत क्या है। वे यह जानने की कोशिश भी नहीं करते कि जैसा उन्हें बताया जा रहा है, वैसा कुछ हो भी सकता है या नहीं। इसका फायदा कई बार क्षुद्र स्वार्थी तत्व भी उठा लेते हैं और नुकसान अंतत: देश की व्यवस्था को झेलना पड़ता है। हम ऐसे नुकसान से बच सकें, इसका एक ही तरीका है और वह है लोकतंत्र के प्रति एक परिपक्व सोच का विकास करना। यह तभी संभव है जबकि शिक्षा का सही ढंग से विकास किया जाए। दुर्भाग्य यह है कि इस मामले में पूरे देश की ही स्थिति ठीक नहीं है। देश भर में गरीब जनता की मजबूरी यह है कि एक निश्चित हद से अधिक खर्च कर नहीं सकती। ऐसी स्थिति में उसे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना पड़ता है और वहां अध्यापकों के जिम्मे शिक्षणेतर कार्य ही इतने अधिक हैं कि उनका अधिकतर समय उन्हें पूरा करने में ही निकल जाता है। कभी जनगणना तो कभी मतदाता सूची का संशोधन, कभी चुनावी ड्यूटी तो कभी मतगणना और इन सबके अलावा मिड डे मील भी। अधिकतर राज्यों में मिडडे मील बंटवाने के अलावा उसे तैयार करवाने का काम भी शिक्षकों की ही जिम्मेदारी है। मुश्किल यह है कि इन शिक्षणेतर कार्यो की निगरानी के लिए कई तंत्र भी हैं। जबकि शिक्षकों का जो मुख्य कार्य है, यानी शिक्षण, उसकी निगरानी के लिए तंत्र केवल नाममात्र का है। इससे भी कष्टप्रद स्थिति कई राज्यों में शिक्षा की व्यवस्था को लेकर है। अधिकतर सरकारी स्कूलों में तो विद्यार्थियों के बैठने के लिए ही उचित व्यवस्था नहीं है। कहीं भवन ही नहीं है तो कहीं बेंच नहीं हैं। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली तक में कई स्कूलों में छात्रों को टाट-पट्टी पर बैठना पड़ता है। इस सबके अलावा सबसे कष्टप्रद अध्यापकों की कमी है। इन स्थितियों में कहीं भी सुधार की कोई प्रभावी गति दिखाई नहीं दे रही है। ऐसी स्थिति में बच्चों के व्यक्तित्व का विकास क्या होगा, जब वे अपने पाठ ही पूरे नहीं पढ़ सकेंगे? इस आधी-अधूरी पढ़ाई का ही नतीजा है जो अधिकतर युवा पढ़ाई पूरी करने के बाद अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए रोजगार के ही संकट से जूझ रहे होते हैं। बहुत लंबा समय वे नौकरी की तलाश में ही गुजार देते हैं और इसके बाद भी संतोषजनक जीवन नहीं जी पाते। बहुत सारे लोगों के हाथ सिर्फ हताशा लगती है। जबकि अच्छे स्कूलों से पढ़े हुए विद्यार्थियों के लिए रोजगार कभी समस्या का कारण ही नहीं रहा। सच तो यह है कि आज के समय में शिक्षा की सारी सार्थकता उद्यमिता के विकास में निहित है। विद्यार्थियों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे नौकरियों की तलाश में कई साल बेरोजगार रहने के बजाय स्वयं अपने दम पर उद्यम शुरू करने और दूसरों को भी रोजगार देने का प्रयास करें। उद्यमिता के मामले में पंजाब पहले से ही अव्वल है, अब सुखबीर बादल की बात से यह उम्मीद भी जगी है कि कम से कम अपने अधिकार क्षेत्र में वह शिक्षा की बेहतरी पर ध्यान देंगे। बादल सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद पंजाब में अभी भी शिक्षा व्यवस्था दुरुस्त नहीं हो सकी है। कृषि और उद्यमिता जैसे मामलों में पंजाब देश का अग्रणी राज्य है। शिक्षा के मसले पर अगर सरकार पूरा ध्यान देकर इसे सही दिशा दे दे तो इस मामले में भी यह देश को दिशा देने वाला राज्य हो सकेगा। (लेखक दैनिक जागरण में स्थानीय संपादक हैं)
Dainik Jagran National Editon Date -22-01-2013 Page -8 Education 

Monday, December 10, 2012

बच्चों को चाहिए सुयोग्य अभिभावक





परत दर परत राजकिशोर
एक दिलचस्प कार्टून की याद आती है। दो या तीन साल का एक बच्चा पीठ के बल पर लेटा हुआ एक किताब पढ़ रहा है। किताब का नाम है- बच्चों का पालन-पोषण कैसे करें। एक व्यक्ति बच्चे से पूछता है मुन्ना, तुम यह किताब क्यों पढ़ रहे हो? बच्चा जवाब देता है- ताकि मैं समझ सकूं कि मेरा पालन-पोषण ठीक से हो रहा है या नहीं। काश, सभी बच्चे ईर के यहां से यह बुद्धि और विवेक लेकर आते। लेकिन तब वे बच्चे ही क्यों कहलाते? शारीरिक और मानसिक विकास में एक खास उम्र तक समानुपातिक संबंध रहता है। उसके बाद शरीर का विकास रु क जाता है और मन का विकास होता जाता है- अगर इसे रोका न जाए। बच्चे का शारीरिक और मानसिक, दोनों तरह का विकास सीमित रहता है। वह जीवन की एकदम प्रारंभिक सीढ़ी पर अवस्थित होता है। वह नहीं समझता कि वह कौन है, उसके कुछ अधिकार भी हैं या नहीं, उसका पालन-पोषण जिस तरह हो रहा है वह ठीक है या नहीं। कह सकते हैं कि वह दुनिया का सबसे असहाय प्राणी होता है। वह अपने साथ होने वाले अन्याय को न ठीक से समझ सकता है, न उसका प्रतिकार कर सकता है। यह बात मैं बचपन से ही महसूस करता आ रहा हूं कि ज्यादातर मां-बाप, मां-बाप होने के योग्य ही नहीं हैं। वे खुद अपने जीवन को अच्छे ढंग से संचालित नहीं करते, तो अपने बच्चों का खयाल क्या खाक रखेंगे? मुझे खुद अपने माता-पिता से बहुत-सी शिकायतें थीं। ऐसा नहीं है कि मैं उनसे असंभव मांगें नहीं करता था। जाहिर है, इन मांगों को खारिज होना ही था। इससे मुझे चोट लगती थी। लेकिन ये मांगें क्यों असंभव हैं, यह बात मुझे ठीक से समझा दी गई होती, तो मुझे चोट लगने के बजाय समाज के ढांचे को समझने में मदद मिलती। यह काम बाद में मेरे गुरु बेचन शुक्ल ने किया। मेरे मां-बाप ने मुझे शारीरिक रूप से जन्म दिया, पर बेचन शुक्ल ने मेरा बौद्धिक जन्म संभव किया। इसके लिए मैं आजीवन उनका ऋणी रहूंगा। मैं अपने ऊपर गर्व नहीं करता, न इसकी कोई वजह है; लेकिन यह जरूर पूछना चाहता हूं कि बेचन शुक्ल जैसे व्यक्ति कितने लड़के- लड़कियों को मिल पाते हैं? शायद बेचन शुक्ल जैसे व्यक्तियों की उतनी जरूरत ही न पड़े, अगर माता-पिता योग्य हों और अपनी जिम्मेदारी का सम्यक निर्वाह करें। ठीक ही कहा गया है- परिवार मनुष्य की पहली पाठशाला है। इस पाठशाला में बच्चा जो कुछ सीखता है, उसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। इसलिए समाज द्वारा स्थापित स्कूल अच्छे हों अथवा नहीं, परिवार की पाठशाला को तो अच्छा होना ही पड़ेगा। इल सिलसिले में खलील जिब्रान की यह पंक्ति बेसाख्ता याद आती है कि बच्चे को तुम अपनी संपत्ति न समझो, तुम तो सिर्फ वह माध्यम हो जिसके द्वारा बच्चा इस संसार में आता है। वास्तव में किसी भी बच्चे का पैदा होना एक प्राकृतिक नियम के तहत संभव होता है। ज्यादातर स्त्री-पुरु षों की चाह यही होती है कि वे अपना जैविक उत्तराधिकारी छोड़ जाएं। स्वाभाविक है कि जैविक के साथ सांस्कृतिक भी जुड़ जाए। इसलिए अधिकतर मां-बाप अपने बच्चों के मानसिक और सांस्कृतिक विकास पर अपनी छाप छोड़ने की इच्छा रखते हैं और इसके लिए भरपूर प्रयास करते हैं। यह और बात है कि बच्चे सिर्फ अपने परिवार से नहीं सीखते, बल्कि समाज से भी सीखते हैं। मां-बाप के मोह का सबसे अच्छा उदाहरण है, धर्म। भगवान किसी को हिंदू या मुसलमान बनाकर नहीं भेजता, लेकिन पैदा होते ही मां-बाप बच्चे को एक धर्म पकड़ा देते हैं। हिंदू का बच्चा होगा, तो हिंदू होगा; मुसलमान का बच्चा होगा तो मुसलमान होगा। यह बच्चे को अपनी संपत्ति मानकर चलना है। आप बच्चे को यह आजादी क्यों नहीं दे सकते कि वह बड़ा होकर सभी धर्मो का अध्ययन करे और उसे जो धर्म सबसे अच्छा लगता हो, उसे चुने? अथवा, कोई भी धर्म उसे ठीक न लगे, तो वह कोई भी धर्म स्वीकार न करे। यही सब बातें यह सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि बच्चे का पालन-पोषण सिर्फ परिवार की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए, इस बारे में समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। आजकल राज्य ही समाज का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए राज्य को ही यह जिम्मा उठाना होगा कि किसी भी बच्चे का पालन-पोषण गलत ढंग से न हो। यह जरूर विवाद का विषय हो सकता है कि राज्य का हस्तक्षेप कितना हो और किस रूप में हो। प्रत्येक राज्य में तानाशाही का कुछ न कुछ तत्व अवश्य रहता है। इसलिए हमें इसका भी ध्यान रखना होगा कि परिवार की तानाशाही न चले, तो राज्य की तानाशाही भी न चले। नॉर्वे सरकार ने बच्चों के पालन-पोषण के कुछ नियम बना रखे हैं, जो बताते हैं कि मां-बाप को अपने बच्चों से किस तरह पेश आना चाहिए। जो दंपति इन नियमों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें पहले चेतावनी दी जाती है; फिर भी वे नहीं मानते तो बच्चा उनसे छीन लिया जाता है और प्रोफेशनल पालन गृहों में भेज दिया जाता है। मां-बाप को जेल भी भेजा जा सकता है। भारतीय मूल के दो दंपतियों को इस कड़े कानून का स्वाद चखना पड़ा, तो हमारे देश में प्रतिवाद की लहर-सी फूट पड़ी और पश्चिम के साम्राज्यवाद की निंदा की जाने लगी। यह विरोध अभी भी जारी है। मैं विरोध की इस लहर के साथ नहीं हूं। मैं नॉर्वे सरकार की प्रशंसा करता हूं जिसने इस तरह का कानून बनाने की हिम्मत की है जो बच्चों के मानवाधिकारों की रक्षा करता है। हां, यह जांच करने की जरूरत है कि कहीं नॉर्वे की सरकार अन्य देशों, खासकर गैर-यूरोपीय देशों की संस्कृति पर हमला तो नहीं कर रही है? नॉर्वे को इसका कोई हक नहीं है कि वह विदेशियों पर अपनी संस्कृति थोप दे। यह सांस्कृतिक तानाशाही है। अगर यूरोप मानव स्वतंत्रता का पक्षधर है, तो उसे इन अतियों से बाज आना होगा।
मैं बचपन से ही महसूस करता आ रहा हूं कि ज्यादातर मां-बाप, मां-बाप होने के योग्य ही नहीं हैं। वे खुद अपने जीवन को अच्छे ढंग से संचालित नहीं करते, तो अपने बच्चों का खयाल क्या खाक रखेंगे? परिवार मनुष्य की पहली पाठशाला है। इस पाठशाला में बच्चा जो कुछ सीखता है, उसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। इसलिए समाज द्वारा स्थापित स्कूल अच्छे हों अथवा नहीं, परिवार की पाठशाला को तो अच्छा होना ही पड़ेगा
Rashtirya Sahara National Edition 9-12-2012 Page 10(f’k{kk)