Wednesday, July 6, 2011

उठने लगी राष्ट्रीय परीक्षा नीति की मांग


एक तरह के पाठ्यक्रम के लिए अलग-अलग परीक्षाओं को आयोजित करने का कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता है। उदाहरण केलिए यदि कोई डॉक्टर बनना चाहता है तो क्या जरूरत है कि उसे विभिन्न संस्थाओं द्वारा आयोजित मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में बैठना पड़े। विार्थी इतनी परीक्षाएं देते-देते पस्त हो जाता है और असफल होने पर कुंठा व निराशा का शिकार भी बनता है। केवल मेडिकल ही नहीं, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की परीक्षाओं में भी अलग-अलग परीक्षाएं आयोजित की जा रही हैं..भी तक क्रिकेट में ही लीग मैचेज हुआ करते थे, अब स्कूल-कॉलेज और विश्वविालयों में भी परीक्षा लीग इस तरह बढ़ती जा रही है कि परीक्षार्थियों केसाथ अभिभावक भी परेशान हो गए हैं। पहले मुख्य रूप से तिमाही, छमाही और वार्षिक ये ही तीन परीक्षाएं ली जाती थीं। छोटी कक्षाओं में इस तरह की परीक्षा का कोई प्रावधान नहीं था। लेकिन अब वार्षिक परीक्षा या मासिक परीक्षा के अलावा भी नित्य परीक्षाएं आयोजित हो रही हैं। इसमें प्रवेश परीक्षा, जांच परीक्षा, योग्यता परीक्षा, दक्षता परीक्षा, क्वालिफाइंग परीक्षा व चयन परीक्षा और न जाने कैसी-कैसी परीक्षाओं के आयोजन स्कूल-कॉलेज व विश्वविालय ही नहीं अपितु इसके लिए बनी कई निजी संस्थाएं इस समय हर शहर में काम कर रही हैं।

बस इनको आप जिम्मेदारी दे दीजिए। इन संस्थाओं ने आज अपना इस क्षेत्र में केवल मुकाम ही नहीं बनाया है, बल्कि इसकी बदौलत अच्छी-खासी रकम भी पैदा कर रही हैं। इससे भी बड़ी बात व चिंता का विषय यह है कि इनके पाठ्यक्रम भी अलग-अलग हैं। परीक्षा के नाम पर रोज बाजार में नई-नई विभिन्न विषयों की पुस्तकें आ रही हैं। इनके प्रकाशकों की तो चांदी है, भले ही इन पुस्तकों से परीक्षा में कुछ भी न पूछा जाता हो। हां, इसके पीछे की जो कहानी है, वह जरूर एक अलग दास्तां बयान करती है। इस धंधे से जुड़े मेरे कुछ मित्र हैं, उनका कहना है कि इन पुस्तकों के प्रकाशकों व मुद्रकों के पास कोई प्रकाशक मंडल नहीं है, फिर भी वे कुछ जानी-मानी हस्तियों के नाम पुस्तक में लिखकर अपनी शाख बनाते हैं और उसके सहारे करोड़ों रुपए की कमाई कुछ काली तो कुछ सफेद कर रहे हैं। जिसका नाम पुस्तक में देते हैं, उसे पारिश्रमिक के नाम पर कुछ रुपए थमा देते हैं। यही वजह है कि परीक्षाओं की बाढ़ आ गई है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति स्नातक, परास्नातक के अलावा बीएड की डिग्री भी हासिल किए है, किंतु उसे भी शिक्षक बनने के लिए शिक्षक पात्रता की परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है। आखिर इन परीक्षाओं का क्या मतलब है? पिछले दिनों प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार परिषद केअध्यक्ष सीएनआर राव ने खुद इतनी तरह की परीक्षाओं के बोझ और तनाव से लदे छात्रों की दुर्दशा पर गहरी चिंता जताते हुए कहा था कि भारत में उचित शिक्षा व्यवस्था नहीं है। परिणाम हो रहा है कि विार्थी जीवन का लंबा समय फिजूल की इन परीक्षाओं में ही उलझ कर रह जाता है। उसे समाज या देश के लिए सोचने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। वह कोई सार्थक कार्य भी नहीं कर पाता है। उल्टे छात्र की ऊर्जा व सर्जनात्मकता धीरे-धीरे नष्ट होती जाती है। आगे चलकर वह निराशा और कुंठा का शिकार हो जाता है।

परीक्षाओं के मकड़जाल से विार्थियों को तत्काल मुक्त कराने की जरूरत है। अब समय आ गया है कि परीक्षा का मॉडल बदला जाए और परीक्षाएं एक ही स्तर यानी राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित की जाएं। इधर कुछ क्षेत्रों में ऐसी परीक्षाएं लेने का प्रयास शुरू भी हो गया है। इसे कम से कम इंटरमीडिएट के स्तर तक जरूर ले जाना चाहिए। एक तरह के पाठ्यक्रम के लिए अलग-अलग परीक्षाओं को आयोजित करने का कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता है। उदाहरण केलिए यदि कोई डॉक्टर बनना चाहता है तो क्या जरूरत है कि उसे विभिन्न संस्थाओं द्वारा आयोजित मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में बैठना पड़े। विार्थी इतनी परीक्षाएं देते-देते पस्त हो जाता है और असफल होने पर कुंठा व निराशा का शिकार भी बनता है। केवल मेडिकल ही नहीं, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की परीक्षाओं में भी अलग-अलग परीक्षाएं आयोजित की जा रही हैं। यही हाल कानून की पढ़ाई अथवा विभिन्न स्नातक व परास्नातक पाठ्यक्रमों का भी है। जरूरी है कि एक तरह के पाठ्यक्रम के लिए एक अखिल भारतीय स्तर की परीक्षा हो। इसके लिए केंद्र सरकार को ही पहल करनी होगी। कई अवसरों पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने इस तरह के विचार व्यक्त भी किए हैं। अमेरिका जैसे विकसित देश में छात्रों को किसी एक स्ट्रीम में जाने के लिए सिर्फ एक ही परीक्षा देनी पड़ती है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इस मकड़जाल को तोड़ने के लिए कई समितियों का गठन भी किया है। लेकिन फिलहाल कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट के अभी हालिया निर्णय के बाद इसकेलागू होने की उम्मीद जरूर बढ़ी है। इससे छात्रों का हित तो होगा ही, भ्रष्टाचार व कदाचार से भी मुक्ति मिल सकेगी। अभी तक जो लोग परीक्षा के नाम पर धंधा करते आ रहे हैं, उस पर भी लगाम लगेगी।

(
लेखक अखिल भारतीय माध्यमिक शिक्षक महासंघ के महामंत्री हैं)

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