Saturday, July 14, 2012

खुले में पढ़ रहे बिहार में 14 लाख बच्चे


विकास के मामले में बिहार भले ही देश में चमकता दिखाई दे रहा हो, पर स्कूली शिक्षा के मामले में उसे अभी लंबा सफर तय करना है। राज्य में अभी भी चौदह लाख बच्चे खुले आसमान के नीचे बैठकर पढ़ रहे हैं। योजना आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में भवन नहीं होने के कारण 13,800 स्कूल आसमान के नीचे चल रहे हैं। एक स्कूल में औसतन 100 बच्चे पढ़ रहे हों तो यह संख्या 14 लाख के करीब होती है। 150 स्कूल टेंट में तथा 450 कच्चे मकान में चल रहे हैं। राज्य में स्कूलों के लिए दो लाख क्लासरूम की जरूरत है।बिहार में 2005 में राजग की सरकार बनने के बाद स्कूली शिक्षा में सुधार के कई कदम उठाए गए हैं। इससे स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है। फिर भी 3.52 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। राज्य में प्राइमरी स्कूलों की संख्या काफी कम है। एक हजार बच्चों पर मात्र छह प्राइमरी स्कूल हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत दस है। कक्षाओं में औसतन 81 बच्चे है। राष्ट्रीय औसत 31 बच्चों का है। राज्य में बड़े पैमाने पर स्कूलों के लिए भवन बनाने का काम शुरू हुआ है पर रफ्तार धीमी होने से काम खराब हो रहा है। शिक्षकों के 56,404 पद खाली होने से पढ़ाई पर असर पड़ रहा है। राज्य के 6.5 फीसद स्कूल एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। प्राइमरी स्कूलों में मिड डे मील का असर दिखाई पड़ रहा है। बच्चों की संख्या बढ़ी है, लेकिन कोटे का 60 फीसद ही उठाव हो रहा है।

Tuesday, July 10, 2012

18 स्कूलों में छात्र नहीं, सिर्फ शिक्षक


अक्षर-अक्षर दीप जला रहे शिक्षा विभाग में किस कदर अंधेरा पसरा है, यह देखने के लिए ज्यादा मशक्कत नहीं करनी। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से मात्र 50 किलोमीटर की दूरी पर जाकर आप शिक्षा व्यवस्था विसंगतियां देख सकते हैं। जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर में 18 ऐसे प्राथमिक स्कूलों में शिक्षक तैनात कर दिए गए, जहां छात्र संख्या शून्य है। इतना ही पर्याप्त नहीं था। इन 18 स्कूलों में से आधा दर्जन में तो भोजनमाता भी रख दी गईं हैं, जबकि 16 विद्यालय महज इसलिए बंद पड़े हैं कि यहां शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हो पाई है। तकरीबन अस्सी फीसद साक्षरता दर हासिल कर चुके उत्तराखंड में शिक्षा विभाग की उलटबांसियां कोई नई बात नहीं है। ताजा मामला देहरादून जिले के चकराता ब्लॉक में सामने आया है। सूचना अधिकार में मिली जानकारी के मुताबिक, ब्लाक में कुल 214 राजकीय प्राथमिक विद्यालय हैं। इनमें से 18 स्कूलों में छात्र संख्या शून्य है। हैरत यह है कि विभाग ने इसी साल फरवरी में शिक्षा आचार्यो को प्रोन्नत कर इन स्कूलों में बतौर शिक्षा मित्र तैनाती दे दी। कुल 18 शिक्षा आचार्यो को प्रोन्नति को तोहफा देकर एक-एक स्कूल सौंप दिया गया। इसी ब्लाक में 16 प्राथमिक विद्यालयों में चार-पांच साल से सिर्फ इसलिए ताले लगे हुए हैं क्यों कि यहां शिक्षकों की तैनाती नहीं हो पाई है। चकराता के उप खंड शिक्षा अधिकारी केआर वर्मा स्वीकार करते हैं कि शिक्षकों की कमी के कारण कई स्कूल चार-पांच साल से बंद हैं। वह कहते हैं कि तमाम प्रयासों के बाद भी शिक्षक बंद पड़े इन विद्यालयों में ज्वाइनिंग नहीं दे रहे हैं।

पढ़ाई पर तीन गुना ज्यादा खर्च कर रहे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश


उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश प्रति बच्चे की पढ़ाई पर राष्ट्रीय औसत से तीन गुना से ज्यादा खर्च कर रहे हैं। उत्तराखंड में एक बच्चे की शिक्षा पर औसतन 16681 रुपये खर्च किया जा रहा है। शिक्षा का अधिकार कानून में पब्लिक स्कूलों में 25 फीसद सीटों पर वंचित वर्गो के बच्चों के दाखिले से सरकारी खजाने पर तकरीबन 41 करोड़ का खर्च बढ़ गया है। इसकी भरपाई के लिए राज्य ने केंद्र का दरवाजा खटखटाया है। यह मामला अब केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पाले में है। देश में एक छात्र पर औसतन 5207 रुपये सालाना खर्च हो रहे हैं, जबकि उत्तराखंड में यह राशि 16681 रुपये है। यह खर्च अन्य राज्यों में सबसे ज्यादा है। हिमाचल में भी यह राशि 16 हजार से ज्यादा है, लेकिन उत्तराखंड की तुलना में कुछ कम है। उत्तराखंड के 80 फीसद से ज्यादा पर्वतीय क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व कम है। ऐसे में स्कूल खोलने और प्राइमरी स्तर पर न्यूनतम दो और अपर प्राइमरी में न्यूनतम तीन शिक्षकों की तैनाती के मानक के मुताबिक सरकारी शिक्षा पर खर्च का बोझ बढ़ा है। अपर प्राइमरी स्तर पर व्यायाम, संगीत और कला के लिए पार्टटाइम शिक्षक रखे जाने हैं। इससे खर्च कम होने के बजाए बढ़ना तय है। खर्च की रफ्तार तेज होने से पहले से चिंतित राज्य अब पब्लिक स्कूलों में वंचित वर्गो के बच्चों के दाखिले के बोझ से हलकान हैं। शिक्षा का अधिकार कानून के तहत निजी पब्लिक स्कूलों में 25 फीसद सीटों पर वंचित वर्गो के बच्चों को दाखिला दिलाने से सूबे के सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ गया है। उत्तराखंड ने इस मद में तकरीबन 41 करोड़ की धनराशि केंद्र से मांगी है। अन्य राज्यों ने भी इस कानून के तहत आने वाले खर्च को वहन करने की मांग केंद्र से की है। केंद्रीय योजना आयोग ने राज्यों के तर्क पर गौर तो फरमाया, लेकिन सभी राज्यों से जुड़े होने के कारण यह मामला अब केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पाले में है। 1.60 लाख तक पहंुच जाएगी छात्रों की संख्या उत्तराखंड में मौजूदा निजी पब्लिक स्कूलों में 25 फीसद सीटों के मुताबिक तकरीबन 22 हजार सीट वंचित वर्ग के बच्चों के लिए हैं। बीते वर्ष तकरीबन 15 हजार बच्चों के दाखिले इसके तहत हुए। इस वर्ष यह प्रक्रिया अब भी जारी है। 30 सितंबर तक बच्चे दाखिला ले सकते हैं। 2011-12 और 2012-13 के लिए इस मद में राज्य ने 40.74 करोड़ खर्च का आकलन किया है। केंद्र से यह खर्चा वहन करने का प्रस्ताव भेजा गया है। आगामी वर्षो में आरटीई के तय मानकों के मुताबिक दाखिले हुए तो कक्षा एक से आठवीं तक के छात्रों की संख्या बढ़कर तकरीबन 1.60 लाख तक पहंुचना तय है।

आंध्र में शून्य अंक पर भी इंजीनियरिंग में दाखिला


उत्तर भारत के इंजीनियरिंग और तकनीकी संस्थानों में जहां सीटों को लेकर मारामारी रहती है, वहीं दक्षिण भारत के राज्य आंध्र प्रदेश में दाखिला परीक्षा में शून्य अंक पाने वाले छात्रों को भी इंजीनियरिंग और कृषि पाठ्यक्रमों में दाखिला मिल रहा है। इस साल संयुक्त प्रवेश परीक्षा में शून्य पाने वाले 78 में 22 छात्रों को दाखिला मिलेगा। ये सभी छात्र एससी-एसटी वर्ग के हैं। आंध्र प्रदेश के शिक्षा अधिकारियों के मुताबिक इंजीनियरिंग, एग्रीकल्चर एंड मेडिकल कॉमन इंट्रेस टेस्ट (ईएएमसीईटी) में बैठे इन छात्रों को प्रवेश मिलेगा, क्योंकि शून्य पाने के बावजूद 12वीं कक्षा में इन्होंने 40 प्रतिशत से ज्यादा अंक पाए हैं। इनमें नौ छात्र इंजीनियरिंग, 13 छात्र एमबीबीएस को छोड़ अन्य किसी कोर्स में दाखिला ले सकते हैं। 2008 तक ऐसे छात्र एमबीबीएस में भी चयनित हो जाते थे। उसके बाद मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआइ) ने कड़े मानक तय कर दिए। आंध्र में देश में सर्वाधिक 671 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। इस साल इंजीनियरिंग परीक्षा में बैठे 2,83,477 छात्रों में 2,23,886 यानी 79 फीसदी कामयाब हुए। इनमें करीब 24,000 छात्र 12वीं परीक्षा में पास नहीं हो पाए, लिहाजा उन्हें प्रवेश नहीं मिल सका। तमाम वजहों से 2012-13 में इंजीनियरिंग की करीब एक लाख सीटें खाली रह जाएंगी। राज्य में कुल 3,21,000 सीटें हैं। कई छात्रों के आइआइटी या बाहरी राज्यों के संस्थानों में दाखिला लेने से यह आंकड़ा और बढ़ने की संभावना है। 2010 तक तो 12वीं पास करने वाले हर छात्र को इंजीनियरिंग में दाखिला मिल जाता था। पिछले साल सामान्य वर्ग के लिए 12वीं में 50 फीसद और आरक्षित छात्र के लिए 40 फीसद प्राप्तांक अनिवार्य कर दिए गए। आंध्र प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों के चांसलर और राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन इंजीनियरिंग और तकनीकी संस्थानों में दाखिले की ऐसी स्थिति से खुश नहीं है। उनका कहना है कि प्रवेश के लिए न्यूनतम प्राप्तांक तय होने चाहिए। शून्य अंक वाले छात्र इंजीनियरिंग में क्या सीख पाएंगे? पिछले साल भी शून्य पाने वाले 73 में 17 छात्रों को दाखिला मिला था।उत्तर भारत के इंजीनियरिंग और तकनीकी संस्थानों में जहां सीटों को लेकर मारामारी रहती है, वहीं दक्षिण भारत के राज्य आंध्र प्रदेश में दाखिला परीक्षा में शून्य अंक पाने वाले छात्रों को भी इंजीनियरिंग और कृषि पाठ्यक्रमों में दाखिला मिल रहा है। इस साल संयुक्त प्रवेश परीक्षा में शून्य पाने वाले 78 में 22 छात्रों को दाखिला मिलेगा। ये सभी छात्र एससी-एसटी वर्ग के हैं। आंध्र प्रदेश के शिक्षा अधिकारियों के मुताबिक इंजीनियरिंग, एग्रीकल्चर एंड मेडिकल कॉमन इंट्रेस टेस्ट (ईएएमसीईटी) में बैठे इन छात्रों को प्रवेश मिलेगा, क्योंकि शून्य पाने के बावजूद 12वीं कक्षा में इन्होंने 40 प्रतिशत से ज्यादा अंक पाए हैं। इनमें नौ छात्र इंजीनियरिंग, 13 छात्र एमबीबीएस को छोड़ अन्य किसी कोर्स में दाखिला ले सकते हैं। 2008 तक ऐसे छात्र एमबीबीएस में भी चयनित हो जाते थे। उसके बाद मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया (एमसीआइ) ने कड़े मानक तय कर दिए। आंध्र में देश में सर्वाधिक 671 इंजीनियरिंग कॉलेज हैं। इस साल इंजीनियरिंग परीक्षा में बैठे 2,83,477 छात्रों में 2,23,886 यानी 79 फीसदी कामयाब हुए। इनमें करीब 24,000 छात्र 12वीं परीक्षा में पास नहीं हो पाए, लिहाजा उन्हें प्रवेश नहीं मिल सका। तमाम वजहों से 2012-13 में इंजीनियरिंग की करीब एक लाख सीटें खाली रह जाएंगी। राज्य में कुल 3,21,000 सीटें हैं। कई छात्रों के आइआइटी या बाहरी राज्यों के संस्थानों में दाखिला लेने से यह आंकड़ा और बढ़ने की संभावना है। 2010 तक तो 12वीं पास करने वाले हर छात्र को इंजीनियरिंग में दाखिला मिल जाता था। पिछले साल सामान्य वर्ग के लिए 12वीं में 50 फीसद और आरक्षित छात्र के लिए 40 फीसद प्राप्तांक अनिवार्य कर दिए गए। आंध्र प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों के चांसलर और राज्यपाल ईएसएल नरसिम्हन इंजीनियरिंग और तकनीकी संस्थानों में दाखिले की ऐसी स्थिति से खुश नहीं है। उनका कहना है कि प्रवेश के लिए न्यूनतम प्राप्तांक तय होने चाहिए। शून्य अंक वाले छात्र इंजीनियरिंग में क्या सीख पाएंगे? पिछले साल भी शून्य पाने वाले 73 में 17 छात्रों को दाखिला मिला था।