Friday, October 26, 2012

प्राथमिक शिक्षा की बदहाली




 शिवानंद द्विवेदी सहर कहते हैं कि राष्ट्र और समाज के सर्र्वागीण विकास की बुनियाद प्राथमिक विद्यालयों में ही रखी जाती है। किसी भी स्वस्थ समाज और संपन्न राष्ट्र के निर्माण में उसकी शिक्षा पद्धति की अहम भूमिका होती है। आज जब हिंदुस्तान में गरीबी और अनियंत्रित होती जनसंख्या पहले से ही समस्या का सबब बनी हुई हैं, अगर प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था भी लचर हो जाए तो यह बड़ी चिंता का विषय बन जाता है। भले ही सरकार की हजारों परियोजनाएं हों, मगर सच्चाई यही है कि आज भी देश के प्राथमिक विद्यालय बदहाली के शिकार हैं। आखिर शिक्षा के नाम पर अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती ही क्यों जा रही है? आज सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की बदहाली का आलम यह है कि न तो पर्याप्त भवन उपलब्ध हैं और न ही पर्याप्त शिक्षक। ऐसे में गुणवत्ता वाली शिक्षा की उम्मीद कैसे की जा सकती है? शिक्षा के स्तर एवं व्यवस्था की जांच और निगरानी के नाम पर आंकड़ों और कागजी पुलिदों के अलावा कुछ ज्यादा हाथ नहीं लगता। शिक्षा के इस पहले पड़ाव में शिक्षा जैसा कुछ भी नहीं दिखता है। औपचारिक तौर पर शिक्षा का अधिकार भले ही दे दिया गया हो, लेकिन इसके तहत किताबों के वितरण एवं प्रबंधन आदि की व्यवस्था आज भी लालफीताशाही की भेंट चढ़ रही है। बड़ा सवाल यह है कि हम सिर्फ मुफ्त किताबें बांटने की योजना बनाकर शिक्षा के स्तर को ऊपर कैसे ले जा सकते हैं, जबकि हमारे विद्यालयों की मूलभूत आवश्यकताओं का प्रबंधन ही लचर है? हाल ही में अपने पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रवास के दौरान मुझे ग्रामीण प्राथमिक विद्यालयों के हालात को नजदीक से देखने का अवसर मिला। देवरिया जिले के तमाम प्राथमिक विद्यालयों में आधिकारिक रूप से दो से ढाई सौ विद्यार्थियों का दाखिला है, जबकि उनकी नियमित उपस्थिति का औसत सिर्फ 30-40 विद्यार्थी प्रतिदिन का है। हालांकि पूरे देश के प्राथमिक विद्यालयों की कमोबेश यही स्थिति है। सच्चाई यह भी है कि ढाई सौ बच्चों की शिक्षा का पूरा दरोमोदार महज एक नियमित अध्यापक और एक शिक्षामित्र के कंधों पर है। यह तो एक अदद विद्यालय का आंकड़ा है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों के हर प्राथमिक विद्यालय के हालात कुछ ऐसे ही हैं। शिक्षा के लिए लुटाए जा रहे सरकारी खजाने में बंदरबांट की आशंका को भी नकारा नहीं जा सकता, जो पहले से बदहाल शिक्षाप्रणाली में और नई समस्याएं खड़ी करता है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में गिरते शिक्षा के स्तर के चलते अभिभावक अपने बच्चों का दाखिला त्वरित रूप से बढ़ रहे निजी संस्थानों में कराने लगे हैं, लेकिन छात्रवृत्ति जैसी सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता रहे, इसलिए बच्चों का नाम समानांतर रूप से सरकारी प्राथमिक विद्यालय में भी चलाते रहते हैं, जो सरकारी धन का दुरुपयोग है। इसे हम नैतिक भ्रष्टाचार भी कह सकते हैं। इससे साबित होता है कि हमारा प्रशासनिक तंत्र राजनीतिक हितों को देखते हुए योजनाएं शुरू तो कर देता है, लेकिन क्रियान्वयन पर स्थिति वही ढाक के तीन पात। आज प्राथमिक विद्यालयों की पहली जरूरत पर्याप्त शिक्षक, भवन, शिक्षा संबंधी सामग्री आदि का प्रबंध करना है, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि शिक्षालय बनाने की बजाय हमारे प्राथमिक विद्यालय भोजनालय, राशन वितरण गोदाम आदि बन कर रह गए हैं। सही पोषण के नाम पर प्राथमिक विद्यालयों के धन का दुरुपयोग भी खूब हो रहा है। 250 बच्चों का राशन लेकर महज तीस बच्चों को राशन खिलाकर बाकी धन का काला कारोबार भी चल रहा है। ऐसा नहीं है कि इन प्राथमिक विद्यालयों की दशा शुरू से ही ऐसी है। 10-15 साल पहले तक प्रत्येक विद्यालय में कम से कम पांच शिक्षक और क्षेत्र के बहुसंख्यक विद्यार्थी होते थे। तब शिक्षा मुफ्त भी नहीं थी और किताबों का वितरण आदि भी नहीं होता था। आज उन विद्यालयों में कोई अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहता। इन सभी बातों को देखकर एक बात तो साफ होती है कि कहीं न कहीं शिक्षा जैसी मूलभूत जरूरत को लेकर हमारा प्रशासन लापरवाह और गैर जिम्मेदार है। समुचित प्रबंधन नीति के बिना किसी भी योजना का क्रियान्वयन करना व्यर्थ है। आज शिक्षा को आकर्षक बनाने के लिए जरूरी है कि मिड-डे मील की बजाय शिक्षा की अत्याधुनिक तकनीक उपलब्ध कराई जाए। बच्चों की संख्या के अनुपात में शिक्षक उपलब्ध कराए जाएं और बच्चों की शिक्षा के प्रति अध्यापकों की जवाबदेही तय की जाए। प्रशासनिक स्तर पर प्रत्येक वर्ष प्राथमिक विद्यालयों की जिलास्तरीय परीक्षा या सेमीनार आदि कराकर उनके प्रदर्शन के आधार पर हर सुविधा में वरीयता दी जाए। किसी भी विद्यार्थी के आर्थिक और सामाजिक पहलुओं का निराकरण शिक्षा की योजनाओं के माध्यम से करने का ही दुष्परिणाम है कि आज प्राथमिक विद्यालयों में दाखिले का उद्देश्य छात्रवृत्ति, कपड़ा, राशन आदि हासिल करना हो रहा है और शिक्षा की मूल आत्मा ही कहीं विलुप्त होती जा रही है। सामाजिक एकता और सामाजिक न्याय के प्रसार के नाम पर एक पंक्ति में बिठाकर भोजन देने की सरकारी योजना के लिए प्राथमिक विद्यालयों को चुनना हास्यास्पद और निराधार लगता है। शायद इन्हीं दिशा भ्रमित नीतियों की वजह से आज देश के बहुसंख्यक प्राथमिक विद्यालय बदहाली के शिकार हैं। आज शिक्षा की मूल आवश्यकता नीति-निर्माण, नियोजन, नियंत्रण एवं प्रबंधन आदि पर धन व्यय करने की बजाय गरीबी उन्मूलन, आहार, पोषण, सामाजिक समानता आदि के नाम पर धन प्रयोग कर शिक्षा के धन का दुरुपयोग किया जा रहा है। समय रहते यदि सरकार ने प्राथमिक शिक्षा की योजनाओं का सही नियोजन नहीं किया तो निश्चित रूप से राष्ट्र को बाल-श्रम, गरीबी, अशिक्षा जैसी तमाम समस्याओं से निजात नहीं मिलेगी, बल्कि ये समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाएंगी। दूसरी अहम बात यह है कि सरकारी प्राथ्यमिक विद्यालयों की खामियां जितनी बढ़ेंगी, निजी संस्थानों का प्रसार उतना ही ज्यादा होता जाएगा, जो शिक्षा के लिए बहुत अच्छे संकेत के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। निजी शिक्षण संस्थानों को शिक्षण के प्राथमिक विद्यालयों के विकल्प के तौर पर देखना हमारे वर्तमान की सबसे बड़ी भूल है। एक समय ऐसा आएगा जब निजी शिक्षण संस्थानों का मूल उद्देश्य शिक्षा का प्रसार राष्ट्र निर्माण हेतु नहीं, बल्कि शिक्षा के व्यापारीकरण के तौर पर किया जाएगा। महानगरों में तो इसके लक्षण दिखने भी लगे हैं। आने वाले समय में निम्न-मध्यमवर्ग की जेबें इन निजी संस्थानों के आगे छोटी पड़ने लगेंगी, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और हमारे पास पछताने के अलावा और कोई विकल्प नहींबचेगा। इसलिए प्राथमिक विद्यालय के सही संचालन से शिक्षा के व्यापारीकरण पर लगाम लगाने की भी जरूरत है। शिक्षा हमारी प्रमुख जरूरत है और इसका पुख्ता इंतजाम जरूरी है। हमें इसके विकल्पों पर नहीं सुधार पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Dainik jagran National Edition 27-10-2010 Education pej -9

नहीं हो सका केंद्रीय विवि में एकल प्रवेश परीक्षा पर फैसला



ठ्ठराजकेश्वर सिंह, नई दिल्ली दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की दुविधा के चलते केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एकल प्रवेश परीक्षा पर गुरुवार को सहमति नहीं बन पाई। नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों के अलावा पांच विश्वविद्यालय ही इसके पक्ष में दिखाई दिए। दूसरी तरफ, उच्च शिक्षा में सुधार पर अर्से से चल रही बहस के बीच विश्वविद्यालयों और कुलपतियों को जवाबदेह बनाने की बात आगे बढ़ने लगी है। आने वाले दिनों में कुलपति बनने के पहले आवेदक को विश्वविद्यालय की बेहतरी की पांच साल की कार्ययोजना का खाका पेश करना होगा। नियुक्ति हुई तो विशेषज्ञ समूह निश्चित समय पर उनकी कार्ययोजना की समीक्षा भी करेगा। इसके साथ ही कुलपतियों ने विश्वविद्यालयों से बेहतर नतीजों के उपायों पर जोर दिया है। बैठक में केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एकल प्रवेश परीक्षा का मुद्दा नहीं सुलझ सका। तमिलनाडु केंद्रीय विवि के कुलपति प्रो.बीपी संजय को इस पर रिपोर्ट देनी थी। वे नहीं दे सके, लेकिन बताया कि पुराने विश्वविद्यालय इसे लेकर उत्साहित नहीं है। अलबत्ता, नए विश्वविद्यालय जरूर ऐसा चाहते हैं। बैठक के बाद मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि सिर्फ पांच विश्वविद्यालयों ने ही एकल प्रवेश परीक्षा पर सहमति जताई है। बताया जाता है कि इस मुद्दे पर जेएनयू और डीयू ऊहापोह में हैं। नवंबर में होने वाली परिषद की अगली बैठक में इस पर फिर चर्चा होगी। बैठक में विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता पर तो जोर दिया, लेकिन खुद की जिम्मेदारी तय होने से गुरेज नहीं किया। सूत्रों के मुताबिक, परिषद के सदस्यों ने तय किया है कि किसी विश्वविद्यालय के कुलपति पद के लिए छांटे गए आवेदकों से उनकी पांच साल की कार्ययोजना को लेकर पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन लिया जाना चाहिए। आवेदकों को बताना होगा कि कुलपति पद पर उनकी नियुक्ति होने पर वे विश्वविद्यालय को कैसे और बेहतर बनाएंगे। रिसर्च आदि कैसे बढ़ाएंगे, बगैरह-वगैरह। फिर, कार्ययोजना में सबसे काबिल पाए गए आवेदक को ही कुलपति नियुक्त किया जाए। सूत्रों की मानें तो स्वायत्तता के मद्देनजर परिषद ने फैकल्टी के कुल पदों में दस प्रतिशत की नियुक्ति का अधिकार विश्वविद्यालयों को दिए जाने और विशेषज्ञ समूह से इनके कामकाज की समीक्षा पर भी सहमति बनी है। उसके आधार पर उनकी भी जवाबदेही तय होगी। बैठक में विश्वविद्यालयों के बीच क्रेडिट ट्रांसफर (एक विश्वविद्यालय में दाखिले के बाद बाकी की पढ़ाई दूसरी जगह से पूरी करने के लिए उसके उत्तीर्ण परीक्षा के अंकों का नए संस्थान में ट्रांसफर करना) पर भी सैद्धांतिक सहमति तो जताई गयी, लेकिन उस पर बहुत कुछ तय होना बाकी है। इसके अलावा आंतरिक ऑडिट और गैर योजना मद में अनुदान के मसलों पर भी चर्चा हुई है।
Dainik jagran National Edition 26-10-2012   Education pej-6

Thursday, October 25, 2012

इनकी शिक्षा की जिम्मेदारी किसकी!





शारीरिक रूप से अक्षम यानी विशेष बच्चों (मूक, बधिर, नेत्रहीन और मंदबुद्धि बच्चों) को उचित शिक्षा देने के लिए निजी स्कूलों को मार्च 2013 तक विशेष शिक्षकों की नियुक्ति करनी होगी। उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार को तय समय में इनके लिए विशेष शिक्षकों की नियुक्ति नहीं करने वाले निजी स्कूलों की मान्यता समाप्त करने का आदेश दिया है। इस संबंध में उच्च न्यायालय ने कहा, ‘मूक, बधिर, नेत्रहीन और मंदबुद्धि बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं है, बल्कि यह निजी स्कूलों की भी जिम्मेदारी है। निजी स्कूल ऐसे बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने से मुंह नहीं मोड़ सकते।गौरतलब है कि इससे पूर्व राज्यसभा में शिक्षा का अधिकार कानूनमें संशोधन कर शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिया गया है। बीमार और विकलांग बच्चों को आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) कोटे के तहत स्कूलों में दाखिला पाने का अधिकार होगा। इस समय देश भर में करीब दो करोड़विशेषबच्चे हैं, जिनमें से एक प्रतिशत से भी कम सरकारी और निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इसके साथ ही विशेष बच्चों के लिए जरूरत के मुताबिक घर बैठे शिक्षा पूरी करने का विकल्प भी इस विधेयक का भाग रहा है। मानव संसाधन मंत्री ने यह स्पष्ट किया कि नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा संशोधन विधेयक के तहत कई तरह की विकलांगताएं झेल रहे बच्चों के लिए घर बैठे शिक्षा की व्यवस्था की जा सकेगी। विशेष बच्चों को मुख्यधारा में शामिल करने की पहल चार वर्ष पूर्व एक जनहित याचिका से शुरू हुई। 16 सितम्बर, 2009 को उच्च न्यायालय ने राजधानी के सभी सरकारी एवं स्थाई निकायों के स्कूलों में विशेष श्रेणी के इन बच्चों को उपयुक्त शिक्षा देने के लिए छह माह के भीतर कम से कम दो विशेष प्रशिक्षित शिक्षक नियुक्त करने को कहा। लेकिन इस आदेश का पालन नहीं हुआ। नवम्बर, 2011 में पहले दिल्ली सरकार और बाद में नगर निगम ने भी अपने स्कूलों के लिए एक-एक विशेष शिक्षक नियुक्त किए जाने की प्रक्रिया शुरू की थी। संविधान के अनुसार 18 साल तक के विकलांग बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराना सरकार का उत्तरदायित्व है। विशेष शिक्षकों की नियुक्ति एवं स्कूलों को विकलांग बच्चों की सुविधा के अनुसार नहीं बनाने वाले शिक्षण संस्थानों की मान्यता समाप्त करने की बात कहकर उच्च न्यायालय ने सरकार के कंधे पर दोहरी जिम्मेदारी रख दी है। पहले से ही अपने स्कूलों में विशेष शिक्षकों की नियुक्ति में तीन साल की देरी कर चुकी सरकार के लिए निजी स्कूलों में इस आदेश को लागू कराना खास चुनौती होगा, क्योंकि कुछ माह पूर्व विशेष बच्चों की शिक्षा के मुद्दे पर निजी स्कूलों ने प्रशिक्षित अध्यापकों की भर्ती के लिए सरकारी सहायता की मांग की थी। निजी स्कूलों का यह वक्तव्य विशेष बच्चोंके प्रति सतही संवेदनशीलता और शिक्षा को अर्थलाभ से जोड़ने की प्रवृत्ति का सूचक है, जो क्षोभ का विषय है। स्वावलंबी बनने हेतु शिक्षा प्रथम पायदान है, क्योंकि बिना अक्षर ज्ञान के जीवन की विकटताएं और बढ़ जाती हैं और इसीलिए सर्वशिक्षा अभियानजैसी योजनाओं के माध्यम से समस्त भारत को शिक्षित करने का प्रयास किया जा रहा है। देश का प्रत्येक बच्चा भावी निर्माणकर्ता है, फिर चाहे वह किसी भी प्रकार की विकलांगता का शिकार क्यों न हो। विशेष बच्चों को भी आम बच्चों की तरह शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है। पर क्या इन बच्चों के लिए रास्ते इतने सहज हैं, जितने आम बच्चों के लिए होते हैं? 1995 में विकलांग (समान अवसर अधिकारों का संरक्षण एवं पूर्ण सहभागिता) अधिनियम पारित हुआ, जो 1996 में लागू किया गया। इस अधिनियम में विकलांगों के प्रति समाज के उत्तरदायित्व को निर्धारित किया गया। इसमें समाज से यह अपेक्षा की गई कि वह विकलांग व्यक्तियों के साथ समायोजन करें। परंतु आज भी विकलांग बच्चों के लिए बनी समस्त योजनाएं सिवाय कागजी किले से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुई हैं। ऐसी शिक्षण संस्थाओं की संख्या नाममात्र है जहां विकलांग बच्चों के बुद्धि के स्तर को नापने की सुविधाएं उपलब्ध हों, और हैं भी तो कुछ बड़े शहरों में। देश में ऐसे स्कूलों को ढूंढना रेत में सुई ढूंढने जैसा है जहां विकलांग बच्चों की शिक्षा हेतु समस्त साधन हों। देश के ज्यादातर सरकारी एवं निजी शिक्षा संस्थाओं में ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति नहीं की गई है जो मंदबुद्धि बच्चों को उनके स्तर तक आकर पढ़ा सके। ऐसे शिक्षकों के अभाव में क्या यह संभव नहीं है कि विकलांग बच्चे मुख्यधारा से जुड़े स्कूलों में पढ़ सकें? समस्या यहीं समाप्त नहीं होती। भारत में ऐसे बच्चों की संख्या भी बहुत है जो पोलियो या किसी अस्थिरोग से पीड़ित हैं; अथवा दृष्टिबाधित हैं या मूक-बधिर हैं। उनकी सुविधा के लिए आम स्कूलों से लेकर प्रतिष्ठित विद्यालयों तक में रैंप सुविधा का अभाव है। इसके चलते वे बच्चे, जो व्हील चेयर या बैसाखी का प्रयोग करते हैं, इन स्कूलों में जाने से कतराते हैं। एक ओर जहां विशेष बच्चों के शिक्षण का मुद्दा गंभीर विषय बना हुआ है, वहीं दूसरी ओर स्कूलों के भवन और प्रशासनिक व्यवस्था विशेष बच्चों के अनुकूल हो, यह भी एक चुनौती है। इस दिशा में सीबीएसई ने सुनिश्चित करने के लिए कहा है कि शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों के लिए स्कूलों में हॉस्टल, पुस्तकालय, लैब और इमारतों को अवरोध मुक्त बनाया जाए; साथ ही बोलने वाली पुस्तकें, पढ़ने वाली मशीन और स्पीच सॉफ्टवेयर के साथ-साथ कम्प्यूटर स्कूलों में उपलब्ध कराया जाए। मुख्यधारा के स्कूलों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे बच्चों को दाखिले से मना नहीं किया जाए। सीबीएसई ने यह भी स्पष्ट किया है कि ऐसे बच्चों के लिए स्कूलों में रैम्प शौचालय, व्हील चेयर लिफ्ट और ऐटिवेटर में चिह्न जरूर हो। स्कूलों में विकलांग बच्चों को ऐसी सुविधाएं उपलब्ध न कराए जाने के कारण वे उपेक्षित महसूस करते हैं। यदि विकलांगता से ग्रस्त बच्चों की सहायता करनी है तो उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना होगा। ऐसे बच्चों को दया नहीं अपितु सामाजिक एवं सरकारी दोनों स्तरों पर गहरी संवेदनशीलता की आवश्यकता है, जो उनमें आत्सम्मान जागृत कर सके। शिक्षा न केवल साक्षरता प्रदान करती है, बल्कि स्वभी जाग्रत करती है। और यहीस्वव्यक्तित्व निर्माण का मूल है। समाज के हर व्यक्ति को समझना होगा कि ईश्वर किसी को पूर्णत: रिक्त करके नहीं भेजता और विकलांग बच्चों के भीतर भी गहरी प्रतिभाएं छुपी होती हैं। सरकारी स्तर पर भी ऐसे प्रयासों की आवश्यकता है, जिससे विकलांग बच्चे मुख्यधारा से जुड़ सकें, अन्यथा शिक्षित भारत का स्वप्न अधूरा ही रहेगा।

Rashtirya sahara National Edition 25-10-2012 शिक्षा pej-10

एप्टीट्यूड इंडेक्स टेस्ट से करियर का फैसला लेना होगा आसान






10वीं कक्षा के छात्रों के लिए सीबीएसई लेगा परीक्षा
नई दिल्ली (एजेंसी)। भारतीय शिक्षा पण्राली में करियर आगे बढ़ाने के क्र म में छात्रों को पेश आ रही दुविधा की स्थिति से उबारने के उद्देश्य से केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) 10वीं कक्षा के छात्रों के लिए व्यापक अभिरूचि दक्षता परीक्षा ले रही है। बोर्ड के एक अधिकारी ने कहा किस्टूडेंट ग्लोबल एप्टीट्यूड इंडेक्स परीक्षा
(एसजीएआई) माध्यमिक स्तर के छात्रों की अभिरुचि और क्षमता के आकलन के उद्देश्य से तैयार की गई है। इससे छात्रों की क्षमता एवं उनके मजबूत पहलुओं को उजागर करने में मदद मिलेगी। अभिरुचि परीक्षा के आधार पर छात्रों का ग्रेड और सूचकांक तैयार किया जाएगा और उनकी क्षमता का आकलन करने के बाद उन्हें 11वीं कक्षा में चुने जाने वाले विषय सुझाए जाएंगे। अधिकारी ने कहा कि हम छात्रों की क्षमता का आकलन करने के बाद उन्हें सुझाएंगे कि वे 11वीं कक्षा में कौन से विषय चुन सकते हैं। हालांकि अगर अभिभावक और छात्र किसी विशेष विषय या संकाय पर जोर देते हैं तब हमें इस पर कोई आपत्ति नहीं होगी।
सीबीएसई के अनुसार, स्टूडेंट ग्लोबल एप्टीट्यूड इंडेक्स का उद्देश्य छात्रों की छुपी हुई प्रतिभा और क्षमता को उजागर करना है। यह परीक्षा छात्रों के करियर के अनुकूल है जो व्यवसायिक उपलब्धियों को हासिल करने में मददगार होगी। बोर्ड ने सभी संबद्ध स्कूलों को परिपत्र भेजा और छात्रों से स्टुडेंट ग्लोबल एप्टीट्यूड इंडेक्स परीक्षा में पंजीकरण कराने का सुझाव दिया है। परिपत्र में कहा गया है कि स्कूली शिक्षा में माध्यमिक स्तर की शिक्षा छात्रों के भविष्य को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और आगे के करियर को दिशा देने में इनका अहम योगदान होता है। अक्सर यह देखा गया है कि विषयों को चुनने में अंकों के साथ अभिभावकों, संबंधियों आदि का दबाव भी काफी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जबकि आदर्श परिस्थिति ऐसी होनी चाहिए कि छात्रों को उनकी क्षमता और रूचि के आधार पर विषय चुनने दिया जाना चाहिए।
क्या है स्टूडेंट ग्लोबल एप्टीट्यूड इंडेक्स टेस्ट : यह एक मनोवैज्ञानिक परीक्षा है। इसमें छात्रों की अभिरुचि, क्षमता और व्यक्तित्व का आकलन किया जाता है। इस परीक्षा को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल बनाया गया है। यह परीक्षा बहु विकल्प पर आधारित होगी और 90 मिनट की होगी। इसमें कोई छात्र पास या फेल नहीं होगा और गलत उत्तर के लिए नकारात्मक अंक नहीं दिए जाएंगे। इसके लिए छात्रों को 100 रुपए का शुल्क देना होगा। कुछ छात्र 11वीं कक्षा में पढ़ाई करने के संबंध में दुविधा की स्थिति में होते है। यह परीक्षा ऐसे छात्रों के लिए काफी मददगार होगी। बोर्ड ने इस परीक्षा को अभिरुचि एवं क्षमता के आकलन का माध्यम बताया है।
अभिरुचि परीक्षा के आधार पर छात्रों का ग्रेड और सूचकांक तैयार किया जाएगा और उनकी क्षमता का आकलन करने के बाद उन्हें 11वीं कक्षा में चुने जाने वाले विषय सुझाए जाएंगे


Rashtirya sahara National Edition 22-10-2012 Education Pej-2