Friday, September 28, 2012

महावीर मेडिकल कॉलेज में अनुसूचित जाति के छात्रों के साथ भेदभाव





बीते दिनों यह तथ्य विभिन्न जांचों के बाद सामने आया कि सफदरजंग अस्पताल के वर्धमान  किया गया था। इस मामले की जांच कर रहे अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पूनिया ने इस पीड़ादायक सत्य को उद्घाटित किया कि दलित छात्रों को जानबूझ कर फेल किया गया। उन्होंने आरोप लगाया कि केवल सफदरजंग ही नहीं, देश के तमाम अन्य बड़े संस्थानों में भी दलित व पिछड़े छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है। आयोग ने केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय से सिफारिश की है कि दलित छात्रों को भेदभाव से बचाने और उन्हें बेहतर माहौल देने के लिए उपाय किए जाएं। इसके लिए आयोग ने सुझाव दिए हैं। आयोग का यह मानना है कि आइआइटी, आइआइएम, एम्स और केंद्रीय विश्वविद्यालयों जैसे देश के चोटी के शिक्षण संस्थान भी दलित छात्रों से भेदभाव कर रहे हैं जिससे दलित विद्यार्थी अपना आत्मविश्वास खो रहे हैं। विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश इस कलंक के साथ कठघरे में खड़ा है कि चहुंओर मानवता के पैरवी करने वाला स्वयं कैसे मानव और मानव के मध्य भेद कर रहा है और वह भी वहां जहां कदम रखते ही भेदभाव, ऊंच-नीच की हर दीवार स्वत: ही गिर जाती है। जातिगत भेद की पीड़ा सिर्फ गांवों की नहीं है, सच तो यह है कि आधुनिक शहरों में भी हर कोई जानना चाहता है कि उसके साथ खड़े व्यक्ति का सरनेम क्या है? यह सरनेम व्यक्ति के नाम और प्रतिभा दोनों पर भारी है। विभिन्न अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि शिक्षण संस्थाओं में जातीय भेदभाव के चलते छात्र न केवल हीनभावना का शिकार हो रहे हैं, बल्कि कई बार तो अपमान और उपेक्षा के चलते अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में कमजोर तबकों के लिए कदम-कदम पर खतरे हैं। वे वहां तक पहुंचने के लिए खूब मेहनत करते हैं मगर वहां पहुंचने के बाद उनका आत्मविश्वास चकनाचूर हो जाता है। दलित परिवार में जन्म कदम-कदम पर सामाजिक तिरस्कार और दूसरी मुश्किलों का पर्याय है। सच तो यह है कि छुआछूत और जातिगत भेदभाव मानवता के प्रति सबसे गंभीर अपराध है। यह नस्लभेद से भी भयावह और निंदनीय है। यह सोच निम्न वर्ग से लेकर मध्यमवर्गीय श्रेणी तक ही सीमित नहीं है। आनंद तेलतुंबडे को जातिगत भेदभाव सबसे पहले मुंबई के एक कॉरपोरेट ऑफिस में झेलना पड़ा था। बकौल आनंद अंबेडकर के नेतृत्व ने दलितों में आत्मविश्वास जगाया। मगर अंबेडकर के बाद क्या हुआ? बिखरते, नोटों के लिए बिकते और आरक्षण को रामबाण की तरह पेश करते हमारे नेता आखिर नौजवानों में गर्व और आत्मविश्वास की भावना कैसे जगा सकते हैं? प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक जातिगद भेद का दंश, दलित छात्रों को सिर्फ अपने साथी छात्रों द्वारा ही नहीं, बल्कि प्राध्यापकों द्वारा भी झेलना पड़ता है। आरक्षण को वोट बैंक की जुगत में मुद्दा बनने वाले नेता, इस तथ्य से अंजान है कि इस देश में बड़ी तेजी से एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो आरक्षण नहीं चाहता क्योंकि वह उस वेदना को जीना नहीं चाहता जो उसकी पहचान आते ही उसकी झोली में स्वत: आ जाती अपनी ही जन्मभूमि में प्रताड़ना, अपमान और तिरस्कार दलित युवाओं को कुंठित कर रहा है। इससे वह न केवल सामाजिक बल्कि आर्थिक तौर पर भी पिछड़ रहे हैं। विश्व मानचित्र में अगर भारत को स्वयं की छवि मानवीय रखनी है तो विभेद की रेखा को मिटाना ही होगा। माना यह सहज नहीं है क्योंकि सवर्ण वर्ग अपने तथाकथित वर्चस्व को सहजता से छोड़ने को तैयार नहीं होगा। अत: इस देश को ऐसे युवाओं की आवश्यकता है जो चुनावी राजनीति और आरक्षण पर बहस के इतर खुशी और ऊर्जा के साथ अपनी पहचान को बनाए रखते हुए आगे बढ़ें और यह विश्वास करें कि उनका अस्तित्व देश के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि किसी उच्च जाति के व्यक्ति का। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) उच्च शिक्षा में दलित छात्रों के उत्पीड़न पर डॉ. ऋतु सारस्वत की टिप्पणी शिक्षा के क्षेत्र में भेदभाव

दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, पेज 8  , 26-09-2012   f’k{kk

समान शिक्षा के बीच चौड़ी होती खाई





विश्लेषण प्रेमपाल शर्मा
जब कोठारी समिति ने अपनी सिफारिशें दी थीं तब दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र आदि में बीस से तीस प्रतिशत छात्र हिंदी माध्यम में पढ़ते थे लेकिन पैंतीस वर्षो बाद आज बिहार, उत्तर प्रदेश से आने वाले हजारों छात्र अपने भाषा माध्यम (हिंदी) से वंचित किए जा रहे हैं आश्र्चय कि इसके विरुद्ध न वे खुद आंदोलन कर रहे हैं और न उनके शिक्षक संगठन। यानी समान अधिकार मांगने की आवाजें भी ठंडी पड़ रही हैं
जिस शिक्षा के जरिये हम आजादी के बाद संविधान में प्रदत्त समानता की तरफ बढ़ सकते थे, आज वही शिक्षा समाज में घोर असमानता पैदा कर रही है। आजादी के शुरुआती वर्षो में समानता लाने की कोशिशें हुईं भी लेकिन पिछले बीस वर्षो में शिक्षा एक ऐसा समाज बना रही है जहां सब कुछ हो सकता है पर समानता नहीं। यहां हम असमानता के सबसे बड़े औजार यानी भाषा के मुद्दे पर र्चचा करेंगे क्योंकि कोई भी शिक्षा भाषा के जरिये ही दी जाती है और मौजूदा वक्त में यहां वही सबसे विध्वंसकारी भूमिका निभा रही है। सूत्र वाक्य में कहा जाए तो अपनी भाषा की कीमत पर अंग्रेजी के आतंक ने समाज को गरीब-अमीर नहीं बल्कि अंग्रेजी जानने वाले और न जानने वालों की श्रेणी में बांट दिया है। यों असमानता के और भी कारक हैं जिन्हें आधारभूत सुविधाएं कहा जा सकता है। हम सब ऐसे स्कूलों को जानते हैं जहां एक कमरा और पांच क्लासें चलती हैं। बच्चे भी ठसाठस भरे हुए। न टॉयलेट की सुविधा, न पीने का पानी आजाद भारत में ऐसे स्कूल हजारों की संख्या में हैं। कहीं एक से ज्यादा कमरे हैं भी तो एक ही पंखा होने की वजह से सभी शिक्षक उसके नीचे आकर बैठ जाते हैं और बच्चे मनमर्जी इधर- उधर। लड़कियों के स्कूलों में टायलेट की कमी एक महत्वपूर्ण कारण है जिस कारण बच्चियां स्कूल नहीं जा पा रही हैं। इस तस्वीर के बरक्स दिल्ली जैसे महानगरों के उन स्कूलों को देखिए जिन पर मोटे- मोटे शब्दों में लिखा होता है पूर्णत: वातानुकूलित।और यह दावा भी कि वर्ष में एक बार बच्चे विदेश जरूर जाते हैं।जैसी फीस वैसी सुविधाएं। कुछ शूटिंग, घुड़सवारी की भी व्यवस्था करते हैं। इन स्कूलों में डॉक्टर से लेकर मनोवैज्ञानिक तक का इंतजाम। यह सब देश के पांच-दस प्रतिशत बच्चों के लिए है और बाकी नब्बे प्रतिशत इन सबसे वंचित। क्या दुनिया का कोई देश शिक्षा के नाम पर असमानता के ऐसे ध्रुवान्तों पर जीता होगा? संविधान में शिक्षा के मूल अधिकार और नीति-निर्देशक तत्वों को समाहित करने के क्रम में जेहन में यही था कि हर बच्चा स्कूल तक पहुंच कर समान शिक्षा पाएगा। अस्सी के दशक तक सरकारी स्कूल बढ़ाने और सबको समान शिक्षा देने की तरफ कदम बढ़ाए जाते रहे। शिक्षा- आयोग (कोठारी आयोग 1964-66) की रपट में सरकार ने पूरे जोर से स्वीकारा कि कॉमन स्कूल सिस्टमयानी समान शिक्षा की तरफ कदम बढ़ाए जाएंगे। और उसी की एक और महत्वपूर्ण सिफारिश कि न केवल स्कूली बल्कि उच्च शिक्षा भी मातृभाषा में देने की कोशिश की जाएगी। 1980 के आसपास तक सब इसके प्रति आशान्वित थे कि न केवल इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र जैसे विषय अपनी भाषा में पढ़ाए जाएंगे बल्कि विज्ञान और चिकित्सा शिक्षा भी हम अपनी भाषा में पढ़ेंगे। 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र आदि में बीस से तीस प्रतिशत छात्र हिंदी माध्यम में पढ़ते थे लेकिन पैंतीस वर्षो के बाद आज बिहार, उत्तर प्रदेश से आने वाले हजारों छात्र अपने भाषा माध्यम (हिंदी) से वंचित किए जा रहे हैं और आश्र्चय कि इसके विरुद्ध न वे खुद आंदोलन कर रहे हैं और न उनके शिक्षक संगठन। यानी समान अधिकार मांगने की आवाजें भी ठंडी पड़ रही हैं। शिक्षा के क्षेत्र में समानता के नाम पर आधारभूत सुविधाएं जैसे कमरे, शिक्षक, टॉयलेट से हजार गुना कहर अंग्रेजी ने बरपाया है। इतना कि बच्चे न सीख पाने के कारण मानसिक रूप से आत्महत्या तक कर रहे हैं। दिल्ली के ही कुछ उदाहरणों से ही यह बात साफ हो जाएगी । याद कीजिये एम्स में मेडिकल के छात्र अनिल मीणा की आत्महत्या की घटना, जिसने अपने सुसाइड नोट में लिखा था मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मुझे क्लास में अंग्रेजी में जो पढ़ाया जाता है, कुछ समझ नहीं आता। मैं हताश हूं।बाद में जांच-पड़ताल में यह भी पता चला कि अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई न समझ पाने के कारण वह दोस्तों के बीच हीन भावना का अनुभव करते हुए अकेला रहने लगा था। यानी गांव से चलकर महानगर में आये एक गरीब बच्चे को अंग्रेजी का आतंक लील गया। एक और घटना। सरकारी स्कूल की एक बच्ची। उम्र नौ साल। टीचर उसे अंग्रेजी के कुछ वाक्य सुनाने की जिद पर अड़ी थी। बच्ची के मां-बाप मजदूर, न घर में किसी को अंग्रेजी आती, न आसपास के बच्चों को। न सुनाने के कारण उसे धूप में खड़ा कर दिया गया जिससे वह बेहोश हो गई और अस्पताल जाते तक खत्म। ऐसी कितनी ही घटनाओं के बावजूद हम अंग्रेजी के प्रति मोह नहीं छोड़ पा रहे हैं? बच्चे स्कूल छोड़कर क्यों भागते हैं, इस समस्या के संदर्भ में कभी शिक्षकों पर दोष मढ़ा जाता है तो कभी उनकी आर्थिक स्थिति पर लेकिन एक बड़ा कारण शिक्षण का वह भाषा माध्यम भी है जिसे न बच्चे समझते हैं और न जिसकी सामग्री से जुड़ाव अनुभव करते हैं। लेकिन आज दिल्ली के सरकारी प्राइमरी स्कूलों में भी अंग्रेजी शुरू कर दी गई है। क्या इसके लिए सरकारी ढांचा जिम्मेदार नहीं है? और तो और तीस साल पहले कोठारी समिति की सिफारिशों के अनुसार सिविल सेवा परीक्षा में अपनी भाषा में लिखने की जो छूट दी गई थी, उसकी भी उल्टी गिनती शुरू हो गई है ? गौरतलब है कि कोठारी समिति की सिफारिशों के अनुसार 1979 से पहली बार सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी समेत अपना भाषा माध्यम अपनाने की छूट दी गई थी। भाषा के लिए आजाद भारत का सबसे महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी कदम। इसकी सफलता या समावेशी मानक का अंदाजा इससे लग सकता है कि जहां 1970 में आईएएस परीक्षा देने वाले सिर्फ ग्यारह हजार अभ्यर्थी थे, 1979 में उनकी संख्या एक लाख से भी अधिक हो गई। यानी दस गुना वृद्धि। 1950 में यह संख्या सिर्फ तीन हजार थी जो 1970 तक केवल तीन गुना बढ़ी। यानी पहली बार देश के उस गरीब तबके के छात्र आईएएस परीक्षा में बैठे जो महंगे अग्रेंजी माध्यम में शिक्षा प्राप्त नहीं थे और सफलता के आंकड़े सामने हैं। पिछले तीस वर्षो में दलित, आदिवासी या गरीब तबके के लगभग पचास प्रतिशत से अधिक बच्चे अपनी मातृभाषा के बूते सिविल सेवाओं में आ पाये हैं। इनमें सभी भाषाओं के मुकाबले हिंदी भाषी सर्वाधिक हैं- कुल सफल छात्रों का पंद्रह प्रतिशत से अधिक। लेकिन 2011 में अचानक प्रारंभिक परीक्षा में फिर अंग्रेजी आ गई है और एक अग्रणी अंग्रेजी दैनिक की रपट पर यकीन करें तो 2012 में ही पिछले वर्ष के मुकाबले ग्रामीण उम्मीदवारों की संख्या उनचास से घटकर उनतीस प्रतिशत रह गई है। सवाल है कि हम देश के हर नागरिक को उसकी भाषा के आधार पर मुख्य धारा में शामिल करना चाहते हैं या बाहर!
मान लें कि अंग्रेजी बिना काम नहीं चल सकता और पिछले बीस-तीस सालों से निजी स्कूल, सरकार और उसके आयोग, ज्ञान आयोग आदि अंग्रेजी की प्रशंसा करते नहीं थक रहे, फिर क्यों स्कूल-कॉलेजों का स्तर नीचे गिरता जा रहा है? पीसा नाम की एक परीक्षा में, जिसमें एशिया के ज्यादातर देश शामिल थे, भारत का नंबर सबसे पीछे रहा। सितम्बर 2012 के शुरू में एक और अंतरराष्ट्रीय संस्था की रपट जिसे क्यूएस आंकलन के नाम से जानते हैं, के अनुसार दुनिया के पहले दो सौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय या संस्थान शामिल नहीं है। ऐसे में यही मानना चाहिए कि अंग्रेजी रटंत के विस्तार में छात्रों की मौलिकता और रचनात्मकता लुप्त हो रही है। सवाल सिर्फ पूरी पीढ़ी को समानता से वंचित करने का ही नहीं, बल्कि मौलिक शोध और रचनात्मकता का जो योगदान देश को मिल सकता था उसके गायब होने का भी है। सच पूछें तो देश के संस्थान, विश्वविद्यालयों का स्तर गिर रहा है तो अपनी भाषा में शिक्षा न दिये जाने के कारण। यही नहीं, इससे सामाजिक असमानता उग्र होती जा रही है।

Rashtirya sahara National Edition PeJ -10 Education