Saturday, April 23, 2011

मप्र में गीता सार को पाठ्यक्रम में शामिल करने का विरोध


 मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा गीता सार को स्कूल शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल करने के निर्देश का राज्य में विपक्षी राजनीतिक दलों और अल्पसंख्यक समुदाय ने विरोध शुरू कर दिया है। इससे पहले भी सरकार द्वारा स्कूलों में सूर्य नमस्कार शुरू कराने का विपक्षी दलों एवं अल्पसंख्यक समुदायों ने जमकर विरोध किया था। राज्य विधानसभा में विपक्ष के नवनियुक्त नेता अजय सिंह राहुल ने मुख्यमंत्री के निर्देश को शिक्षा के भगवाकरण की दिशा में उठाया गया एक और कदम बताते हुए कहा है कि इसका पूरे प्रदेश में कड़ा विरोध किया जाएगा। उन्होंने कहा कि स्कूलों को हवन और गीता पाठ के लिए नहीं बनाया गया है। हम सरकार के इस कदम का पूरे प्रदेश में पुरजोर विरोध करेंगे। भोपाल के आर्कबिशप डॉ. लियो कार्नेलियो ने कहा है कि यह शिक्षा प्रणाली में राज्य सरकार का अनुचित हस्तक्षेप है। यह एक पंथनिरपेक्ष देश है और हमारी अनेक धर्मो वाली संस्कृति है। कांग्रेस विधायक आरिफ अकील ने कहा कि केवल गीता सार ही क्यों, अन्य धर्मो की शिक्षा को भी पाठ्यक्रम में शामिल क्यों नहीं किया जा सकता। माकपा के राज्य सचिव बादल सरोज ने कहा है कि यह घोषणा बेतुकी है, क्योंकि दर्शन, संस्कृत एवं हिन्दी जैसे विषयों में विश्व के अनेक अन्य पौराणिक गं्रथों सहित गीता पहले से ही पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है|

Friday, April 22, 2011

इंजीनियरिंग के सभी दाखिले एक ही प्रवेश परीक्षा से


देर भले ही हो, लेकिन भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) समेत इंजीनियरिंग की पढ़ाई वाले सभी संस्थानों में दाखिले के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक ही प्रवेश परीक्षा की कवायद शुरू हो गई है। आइआइटी प्रवेश परीक्षा में सुधार के लिए बनी समिति की सिफारिश पर अमल की बाबत जल्द ही इस बारे में आम लोगों की राय ली जाएगी। आइआइटी-जेईई (संयुक्त प्रवेश परीक्षा) में सुधार के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सचिव टी. रामास्वामी की अगुवाई में बनी समिति की सिफारिशों पर गुरुवार को यहां मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की मौजूदगी में हुई बैठक में विस्तार से चर्चा हुई। सूत्रों के मुताबिक बैठक में कमोवेश सभी ने इंजीनियरिंग की सभी तरह की पढ़ाई के लिए दाखिलों की बाबत राष्ट्रीय स्तर पर एक ही प्रवेश परीक्षा कराने पर सहमति जताई है। हालाकि कुछ आइआइटी निदेशक इस पर सहमत नहीं हैं। लिहाजा इस पर और बेहतर निष्कर्ष के लिए आम लोगों की राय लेने का फैसला किया गया है। इसके लिए जल्द ही एक वेबसाइट शुरू की जाएगी। आम लोगों की राय के बाद एक ही प्रवेश परीक्षा के तौर-तरीकों को अंतिम रूप दिया जायेगा। सूत्रों का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक ही प्रवेश परीक्षा पर मुहर लगी तो उनकी रैंकिंग के आधार पर यह उसे पास करने वाले छात्रों पर होगा कि वे किस संस्थान में पढ़ना चाहते हैं। गौरतलब है कि अभी आइआइटी, एनआइटी के अलावा केंद्र व राज्य सरकारों के अधीन इंजीनियरिंग कालेजों में दाखिले के लिए अलग-अलग सौ से अधिक प्रवेश परीक्षा होती है। सरकार की मंशा देशभर में एक ही प्रवेश परीक्षा कराने की है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आइआइटी-जेईई में सुधार के लिए पूर्व में दामोदर आचार्य कमेटी का गठन किया था। उस कमेटी ने इंजीनियरिंग में दाखिले के लिए 12वीं कक्षा में 60 प्रतिशत से अंक को तरजीह देने के साथ राष्ट्रीय स्तर पर एक ही प्रवेश परीक्षा की सिफारिश तो की, लेकिन यह भी जोड़ा कि उसके बाद भी आइआइटी में दाखिले के लिए अलग से एप्टीट्यूड (अभिरुचि) टेस्ट लिया जाना चाहिए, लेकिन बाद में उस पर सहमति नहीं बनी|

Thursday, April 21, 2011

अब स्कूलों में गीता सार पढेंगे बच्चे


मध्य प्रदेश के छात्र पढ़ेंगे गीता सार


मध्य प्रदेश के स्कूली पाठ्यक्रम में गीता सार शामिल किया जाएगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बुधवार को स्कूली शिक्षा विभाग की समीक्षा के दौरान इस आशय के निर्देश दिए हैं। मुख्यमंत्री ने इसके साथ ही अनाथ तथा शिक्षा से वंचित बच्चों के लिए छात्रावासों में पांच प्रतिशत सीटें आरक्षित करने के निर्देश भी दिए ताकि एक भी बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। टंट्या भील, नायक शंकर शाह रघुनाथ शाह जैसे अमर शहीदों की गाथायें बच्चों को पढ़ाई जाए। इससे बच्चों में अपना मध्य प्रदेश का भाव मजबूत होगा। उन्होंने स्कूलों में खेती-बाड़ी के पाठ भी पढ़ाने के निर्देश दिए। मुख्यमंत्री ने कहा कि संसाधनों की अनुपलब्धता से शिक्षा व्यवस्था प्रभावित न हो। स्कूल भवन निर्माण में अधिक समय लगने के कारण उन्होंने शीघ्र स्थापित होने वाले फोल्डिंग स्कूल भवनों के विकल्प का परीक्षण करने के भी निर्देश दिए। उन्होंने बताया कि देश के कुछ राज्यों में ऐसे फोल्डिंग भवनों का उपयोग हो रहा है। बैठक में बताया गया कि पेंच में मोंगली उत्सव का आयोजन 14 मई को होगा|

Wednesday, April 20, 2011

भारत को उच्च शिक्षित मेधावी छात्रों की जरूरत : कलाम


साक्षरता की हकीकत


लगभग अस्सी फीसदी साक्षरता वाले राज्य उत्तराखंड की हकीकत उत्साह पर पानी फेर रही है। सरकारी स्कूलों की तस्वीर बदरंग ही नहीं, भयावह है। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) से साफ है कि लोग अपने बच्चों को क्यों सरकारी स्कूलों से दूर रखना चाहते हैं। जिन स्कूलों में आठवीं कक्षा के तकरीबन 99 फीसदी छात्र-छात्राएं अक्षर की पहचान न कर पा रहे हों, उनका भविष्य क्या होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है। रिपोर्ट में चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि शिक्षकों की उपस्थिति कम होती जा रही है। सरकार भले ही शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के दावे कर रही हो, लेकिन हालात दिन पर दिन खराब होते जा रहे हैं। दरअसल, वर्तमान में चिंता से ज्यादा चिंतन की आवश्यकता है। आखिर क्या वजह है कि भारी-भरकम बजट वाले विभाग के रिजल्ट इतने दयनीय हैं। परिस्थितियों का विश्लेषण करें तो काफी कुछ साफ हो जाता है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा और शिथिल प्रशासन, इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। स्कूल खोलने में जितनी दरियादिली दिखायी जाती है, शायद ही इतना ध्यान व्यवस्थाओं पर दिया गया हो। शिक्षक राजनीति में उलझी सरकार के पास स्कूलों के आंतरिक हालात का जायजा लेने का वक्त ही नहीं है। नियुक्ति से लेकर स्थानांतरण और बिल्डिंग से लेकर बजट तक, हर जगह राजनीति का हस्तक्षेप है। ऐसे में नौनिहालों के सुनहरे भविष्य की उम्मीद करना बेमानी होगी। जाहिर है अभिभावक सरकारी स्कूलों से मुंह मोड़ प्राइवेट स्कूलों की शरण ले रहे हैं और इन स्कूलों का रवैया सभी जानते हैं। लेकिन अभिभावक मजबूर है, बच्चों के भविष्य के लिए वह निजी स्कूलों की ब्लैकमेलिंग सहने को भी तैयार है। सरकार के लिए ये वक्त एक्शन का है। देर तो हो ही चुकी है, लेकिन कहीं अंधेर न हो जाए। शिक्षा समाज का अधिकार है और इसकी व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी। समाज तो शिक्षा के लालयित है, लेकिन सरकार अपनी कर्तव्य का निर्वहन करने में सतर्क नजर नहीं आ रही है।


Tuesday, April 19, 2011

उत्तर प्रदेश में शिक्षा का भदेस


दरअसल, उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का मूलभूत ढांचा ही चरमरा गया है। विभाग के अधिकारी और सत्ता में बैठे लोगों को शिक्षा के उन्नयन व विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। शिक्षकों को भी अपने दायित्व के प्रति पूरी निष्ठा व ईमानदारी रखने की जरूरत है। यदि यह कार्य समय रहते नहीं हुआ तो प्रदेश की भावी पीढ़ी का भविष्य क्या होगा, यह सोचकर ही चिंता होती है..
दरअसल, उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का मूलभूत ढांचा ही चरमरा गया है। विभाग के अधिकारी और सत्ता में बैठे लोगों को शिक्षा के उन्नयन व विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। शिक्षकों को भी अपने दायित्व के प्रति पूरी निष्ठा व ईमानदारी रखने की जरूरत है। यदि यह कार्य समय रहते नहीं हुआ तो प्रदेश की भावी पीढ़ी का भविष्य क्या होगा, यह सोचकर ही चिंता होती है..जादी के 63 वर्ष गुजर गए, फिर भी उत्तर प्रदेश में शिक्षा को हम सही पटरी पर नहीं ला पाए। शैक्षिक गुणवत्ता की बात करना तो बहुत दूर है। ईमानदारी से यदि इसका लेखा-जोखा लें तो जो तस्वीर सामने आती है, वह केवल चौंकाने वाली ही नहीं, बल्कि निराशा पैदा करने वाली है। अभी कुछ दिनों पहले एनुअल सर्वे ऑफ एजूकेशनकी जो रिपोर्ट आई है, उससे यह साफ हो गया है कि सरकार और उसकी मशीनरी सूबे की शिक्षा के विकास केलिए कितनी ईमानदारी के साथ काम किया है। यह रिपोर्ट सूबे के अधिकारियों के निकम्मेपन का भी बयान कर रही है। दरअसल, सर्वे ने जो तथ्य उजागर किए हैं, वे सरकार की कमाओ खाओ और मौज उड़ाओनीति को उजागर करते हैं। सर्वेक्षण में 6 वर्ष से 14 वर्ष के आयु वर्ग वाले बच्चों का जो आंकड़ा सामने आया है, वह दर्शाता है कि आज भी प्रदेश के 28 लाख बच्चे स्कूल पहुंचने से वंचित हैं। इन बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने के लिए राज्य को 18000 करोड़ रुपए प्रत्येक वर्ष चाहिए। यदि राज्य के 45 प्रतिशत हिस्से को भी जोड़ दिया जाए तो यह व्यय 26000 करोड़ रुपए तक पहुंच रहा है। ऐसे में नि:शुल्क शिक्षा और शिक्षा अधिकार अधिनियम को राज्य में लागू कर पाने पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है। 

एक अनुमान केअनुसार, यदि उत्तर प्रदेश में शिक्षा अधिकार अधिनियम को लागू करना है तो इसकेलिए चार हजार 596 नए प्राथमिक स्कूल और दो हजार 349 नए उच्च प्राथमिक स्कूलों की जरूरत होगी। इसका अनुमानित व्यय 3800 करोड़ रुपए आंका जा रहा है। यही नहीं, इसकेअलावा कई अन्य आधारभूत सुविधाओं की जरूरत पड़ेगी, जिससे बजट और अधिक बढ़ जाएगा। राज्य के 6-14 वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों को शिक्षा केदायरे में लाने के लिए नए प्राथमिक स्कूलों की जरूरत पड़ेगी। लगभग 3.25 लाख नए शिक्षकों की भर्ती भी सरकार को करनी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर उच्च प्राथमिक स्कूलों में भी बड़ी संख्या में नए शिक्षकों की नियुक्ति राज्य सरकार को करनी पड़ेगी। इसके लिए सरकार को अपने शिक्षा के बजट में भी वृद्धि की जरूरत होगी। ऐसे में अनिवार्य नि:शुल्क शिक्षा को जमीन पर उतार पाना काफी कठिन दिखाई दे रहा है।

सर्वे की रिपोर्ट की तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है, जो इससे भी अधिक चौंकाने वाला है। रिपोर्ट यह बताती है कि सर्वे के स्कूलों में कक्षा एक के 50 प्रतिशत से अधिक छात्र ऐसे हैं जो पढ़ाई-लिखाई के मामले में शून्य हैं। केवल 37.2 प्रतिशत बच्चे ही अक्षर पहचानते हैं, किंतु उनमें अक्षरों को जोड़कर शब्द बनाने और उन्हें पढ़ पाने की क्षमता नहीं है। केवल 8.2 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे मिले, जो अपनी कक्षा के स्तर की पढ़ाई कर पाने में सक्षम हैं। कक्षा एक के बच्चों की संख्या इस श्रेणी में महज 2.7 प्रतिशत है। यह स्थिति सूबे की पूरी प्राथमिक शिक्षा की है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि कक्षा पांच के 56.59 प्रतिशत बच्चे कक्षा दो की हिन्दी की किताब ठीक से नहीं पढ़ पाते। शिक्षणेतर कार्य तो यहां भूले-बिसरे ही हुआ करते हैं। इन स्कूलों के पास अपना खेल का मैदान है ही नहीं। गणित और विज्ञान विषय के अध्यापकों का आज भी सवर्था अभाव बना हुआ है। 

सूबे में इससे भी बुरा हाल उच्च प्राथमिक शिक्षा का है। यहां कक्षा 8वीं के कुल बच्चों में से 16.9 प्रतिशत बच्चे ही किताब पढ़ पाते हैं और 24 प्रतिशत केवल अक्षर पहचानते हैं। केवल 13.5 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो शब्द ज्ञान रखते हैं। कक्षा 8 में पहुंचकर केवल 14.5 प्रतिशत बच्चे ही कक्षा-एक की सही पढ़ाई कर पाने में सक्षम हैं। वहीं 31.2 प्रतिशत बच्चे कक्षा-दो स्तर तक पहुंच पाए हैं। सर्वे के अनुसार, कक्षा-तीन से पांच तक में पढ़ने वाले कुल ग्रामीण बच्चों में से 49.3 प्रतिशत बच्चे कक्षा-एक स्तर की पढ़ाई भी नहीं कर पाते। राज्य के छात्र राष्ट्रीय स्तर की पढ़ाई से 15.9 प्रतिशत पीछे चल रहे हैं। सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि राज्य के पश्चिमी जनपदों में पढ़ाई की स्थिति थोड़ी बेहतर है। महानगरों के ग्रामीण क्षेत्रों में देखें तो लखनऊ 55.3, आगरा 54.4, इलाहाबाद 56, कानपुर 60, बरेली 42.8, मेरठ 30.7 और वाराणसी के 42.2 प्रतिशत छात्र कक्षा-एक उत्तीर्ण करने लायक भी नहीं हैं, फिर भी वे कक्षा-तीन व पांच में पढ़ रहे हैं। सर्वे में कक्षा-आठ के 41.9 प्रतिशत छात्र ऐसे पाए गए, जो रुपए-पैसे नहीं गिन सकते। लगभग 64.3 प्रतिशत ऐसे भी छात्र मिले हैं, जिन्हें समय यानी घड़ी देखना नहीं आता। 

तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर बहुत खराब है। सर्वे से पता चलता है कि पांचवीं कक्षा के करीब 27 और आठवीं कक्षा के 31 प्रतिशत छात्रों को ट्यूशन लेने की जरूरत होती है, जिसके लिए उन्हें अलग से फीस देनी पड़ती है। प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले ऐसे बच्चों की संख्या सरकारी स्कूलों से कम है। ऐसे में सरकार को शिक्षा की गुणवत्ता के लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का मूलभूत ढांचा ही चरमरा गया है। विभाग के अधिकारी और सत्ता में बैठे लोगों को शिक्षा के उन्नयन व विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। शिक्षकों को भी अपने दायित्व के प्रति पूरी निष्ठा व ईमानदारी रखने की जरूरत है।

Monday, April 18, 2011

हकीकत बनेगा वर्चुअल विश्वविद्यालय


मोबाइल पर दोस्तों से बात करते, फेसबुक, ट्विटर पर चैटिंग करते लोग अक्सर ऐसी दुनिया में चले जाते हैं जहां दूर रहते हुए भी एक दूसरे का हालचाल जाना सकता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), आईआईएससी ऐसे ही एक आभासी संसार का सृजन कर रहा है जिसके माध्यम से छात्र, प्रोफेसर एवं अन्य लोग पठन- पाठन का काम कर सकते हैं। वर्चुअल विश्वविद्यालय स्थापित करने से जुड़े विभिन्न आयामों की रूपरेखा तैयार करने की जिम्मेदारी आईआईटी कानपुर के निदेशक एसजी धांडे को सौंपी गई है। समिति अगले महीने मानव संसाधन मंत्रालय को अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। इस परियोजना को 2012 तक अमलीजामा पहनाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस परियोजना के बारे में धांडे ने बताला, 'वर्चुअल विश्वविद्यालय को अमलीजामा पहनाने के प्रस्ताव को अंतिम रूप दे दिया गया है। इस विषय पर एक रिपोर्ट तैयार की गई है जो अगले महीने मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंपी जाएगी।'
व्ा च्ा र्ु अ ल्ा विश्वविद्यालय एक अनोखी पहल है जिसे कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर के माध्यम से अमल में लाया जाएगा। इसके तहत उपकरणों समेत वीडियो, ऑडियो सामग्रियों से परिपूर्ण वर्चुअल लैब को एकीकृत कमान के तहत जोड़ा जाएगा। छात्र इस प्रयोगशाला में प्रयोग कर सकते हैं या पाठ्यसामग्री को निर्देशानुसार पढ़ सकते हैं। अगर किसी छात्र को वर्चुअल लैब के माध्यम से सर्किट तैयार करना हो तो इस विषय में सभी उपकरण उपलब्ध है और उपयुक्त मात्रक वाले प्रतिरोध का उल्लेख कर छात्र सर्किट बना सकते हैं और वास्तविक आंकड़ा प्राप्त कर सकते हैं। प्रयोग करते समय किसी तरह की गलती में सुधार के बारे में भी व्यवस्था की गई है। छात्रों का मार्गदर्शन करने के लिए प्राध्यापक उपलब्ध रहेंगे। इससे समय और खर्च बचाया जा सकेगा। केवल उपकरणों आदि के स्पर्श का अनुभव लेने के लिए छात्रों को भौतिक प्रयोगशाला में जाने की जरूरत होगी। वर्चुअल विश्वविद्यालय मानव संसाधन विकास मंत्रालय की महत्वाकांक्षी परियोजना है जिसे सूचना संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा मिशन (एनएमईआईसीटी) के तहत मंजूरी दी गई थी। इसे तैयार करने की दिशा में 150 वर्चुअल लैब का नेटवर्क तैयार किया गया है और प्रत्येक लैब में 10 प्रयोग किए जा सकते हैं। इस पर 80 करोड़ रुपए का खर्च आया है। बाद में इसका विस्तार किए जाने की योजना है जिसपर 200 करोड़ रुपए खर्च हो सकते हैं। परियोजना को 2012 तक अमलीजामा पहनाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है जिसपर Rs 4,600 करोड़ खर्च का अनुमान है। इस विश्वविद्यालय के माध्यम से 1,000 पाठ्यक्र म पेश किए जाने की योजना है। इस संबंध में 260 कोर्स तैयार किये गए हैं जिसमें 135 वीडियो एवं 125 वेब कोर्स से जुड़ी सामग्री है। गौरतलब है कि वर्चुअल विश्वविद्यालय की अवधारणा सबसे पहले प्रो. पी रामा राव ने तैयार की थी और आभाषी तकनीकी विश्वविद्यालय स्थापित करने की वकालत की थी।

Monday, April 11, 2011

प्राथमिक स्कूलों से भागते बच्चे


मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ताजा आंकड़े बताते हैं कि बीते दो वर्षो के दौरान देश के प्राइमरी स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में 26 लाख से अधिक की गिरावट आई है! और भी हैरतअंगेज तथ्य यह है कि इसमें से आधी संख्या सिर्फ उत्तर प्रदेश से है! स्कूल न जाने के इस आंकड़े को इस परिवर्तन की रोशनी के बावजूद देखा जाना चाहिए कि साल भर से अधिक समय से ही सरकार ने पूरे देश में शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू किया हुआ है! उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में पढ़ाई छोड़कर भाग रहे बच्चों का कारण तो इसी एक आंकड़े में निहित है कि वहां बाल श्रमिकों की संख्या में इधर के वर्षो में तेजी से इजाफा हुआ है। स्पष्ट है कि बच्चे पढ़ाई क्यों छोड़ रहे हैं और कहां जा रहे हैं!
देश के प्राइमरी स्कूलों को आज जो कोई भी देखता है उसके मन में सिर्फ एक प्रश्न आता है कि इतनी सुविधाओं के बाद अब यहां किस चीज की कमी है जो न तो यहां पढ़ाई का स्तर सुधर पा रहा है और न ही बच्चे टिक रहे हैं? इन विद्यालयों की हकीकत यह है कि यहां पढ़ाने वाले अध्यापक अपने खुद के बच्चों को किसी पब्लिक स्कूल में पढ़ाते हैं और छात्र संख्या आधे से अधिक फर्जी होती है ताकि ग्राम प्रधान और अध्यापक मिलकर मध्याह्न भोजन व छात्रवृत्ति में प्रति छात्र के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा धन का बंदरबांट कर सकें और छात्र संख्या कम होने के कारण अध्यापकों में से किसी का स्थानांतरण न हो जाए। स्कूल छोड़कर भागने वाले बच्चों में हालांकि ऐसे बच्चे कम ही होते हैं जो बेहतर पढ़ाई के लिए अभिभावकों द्वारा निकाल लिये जाते हों। अधिकतर बच्चे ऐसे ही हैं जो कहीं मजदूरी कर चार पैसे कमाने के लिए ही मां-बाप द्वारा स्कूल से निकाल लिए जाते हैं या स्कूल भेजे ही नहीं जाते। यही वह एकमात्र कारण है जिसके आगे मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा, मुफ्त भोजन, किताब-कॉपी, यूनीफार्म और वार्षिक वजीफा भी इन बच्चों के अभिभावकों को इनकी पढ़ाई के लिए प्रेरित नहीं कर पाता। वर्ष 2000 में केंद्र सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान शुरू किया जिसका उद्देश्य स्कूल जाने योग्य हर बच्चे को अनिवार्य रूप से स्कूल तक पहुंचाना था। इससे भी पहले विश्व बैंक की सहायता से डी.पी.ई.पी. नामक जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम चल रहा था। यह जानकर किसी को भी आश्र्चय हो सकता है कि सिर्फ प्राथमिक स्कूलों तक हर बच्चे को पहुंचाने के लिए एक दर्जन से भी अधिक कार्यक्रम प्रत्येक जिले में चल रहे हैं और शायद ही शिक्षा विभाग का कोई अधिकारी या बाबू हो जिसे सारे कार्यक्रमों के नाम तक याद हों!
हाल यह है कि बर्ष 2008-09 और 2009-10 में पहले के वर्षों की अपेक्षा 26 लाख कम बच्चों का नाम लिखा गया। इसी अवधि में सबसे बुरी गति उत्तर प्रदेश की रही जहां स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में 10 लाख की गिरावट आई! यानी 5 लाख बच्चे प्रतिवर्ष स्कूल जाने से वंचित रहे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय अब यह सोचकर हैरान है कि इन बच्चों को किस तरकीब से स्कूल तक पहुंचाया जाए। यही हाल राजस्थान, बिहार, असम, और महाराष्ट्र में भी है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि सरकारी प्राथमिक स्कूलों में अब सिर्फ गरीब बच्चे पढ़ते हैं। सरकार भी इस तथ्य से वाकिफ है और इसीलिए ऐसी योजनाएं इन विद्यालयों में लागू की जाती हैं जिससे भूखे-नंगे बच्चे न सिर्फ आकर्षित हों बल्कि विद्यालय पहुंचकर वहां टिकें भी। वजीफा, दोपहर का भोजन और किताब-कॉपी आदि मुफ्त में देना इसी योजना का अंग है, लेकिन हैरत उनकी सोच पर होती है, जो लोग इन योजनाओं का खाका तैयार करते हैं। उन्हें या तो गांवों के बारे में जमीनी हकीकत का पता नहीं होता या फिर वे येन-केन- प्रकारेण अपने सिर से बला टाल देते हैं। इस संदर्भ में एक उदाहरण पर्याप्त होगा- प्राथमिक स्कूलों में सरकार ने शौचालय बनवाये हैं ताकि बच्चे खुले में शौच न जाएं। शासन को रिपोर्ट मिली कि बच्चे इन शौचालयों का इस्तेमाल करने के बजाय खुले मे जाना ही पसंद कर रहे हैं। जानते हैं कि नौकरशाही ने इसका कौन सा उपाय बताया? विद्यालयों में शासनादेश आ गया कि प्रत्येक शौचालय में खूब रंगीन पेण्टिंग करके चिड़ियों आदि के चित्र बनाये जाएं तो बच्चे उन्हें देखने के बहाने शौचालय में टिकेंगें! करोड़ों रुपये का निपटारा इस बहाने हो गया लेकिन नतीजा शून्य। केंद्रीय योजना मनरेगा के साइड-इफेक्ट्स भी गरीब बच्चों के स्कूल न जाने या छोड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। असल में मनरेगा की वजह से एक तो गांव में ही काम के अवसर बढ़े और दूसरे मजदूरी भी बढ़ी। मनरेगा में निश्चित काम की निश्चित मजदूरी होने के कारण होता यह है कि काम चाहे परिवार के किसी एक सदस्य के नाम ही मिला हो लेकिन उसे सब मिलकर जल्दी से निपटा लेते हैं। मसलन 100 घनफुट मिट्टी निकालने की मजदूरी 119 रुपये मिलती है। अब होता यह है कि परिवार के कई सदस्य मिलकर इसे जल्दी से निपटाकर दूसरे काम में लग जाते हैं। गरीब लोग अपने बच्चों को भी इस काम में लगा लेते हैं। मनरेगा ने चूंकि सामान्य मजदूरी की दर भी बढ़ा दी है इसलिए भी गरीब परिवारों के बच्चे स्कूल जाना छोड़कर बालश्रमिक बन रहे हैं। आखिर स्कूल में उन्हें सड़ा-गला खाना और साल भर में 250 रुपये का वजीफा ही तो मिलता है! जाहिर है कि मजदूरी करने पर एक बच्चा इससे बहुत अधिक तो कमा ही लेता है। यही कारण तो है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हाल के 2-3 वर्षों में बहुत तेजी से बाल श्रमिक बढ़े हैं।



12वीं योजना में शोध विवि पर रहेगा जोर


अमेरिका और चीन की तुलना में शोध में काफी पीछे रहने और युवाओं को हुनरमंद बनाने की धीमी रफ्तार की चुनौती को सरकार भांप गई है। लिहाजा देश में अगला दौर शोध विश्वविद्यालयों और ज्यादा से ज्यादा व्यावसायिक (वोकेशनल) शिक्षा के कॉलेजों का है। सरकार की मंशा 2020 तक उच्च शिक्षा के कुल दाखिले में 50 प्रतिशत व्यावसायिक शिक्षा में कराने की है। सूत्रों के मुताबिक मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने शिक्षा क्षेत्र में अगले वर्षों की चुनौतियों के मद्देनजर अभी से तैयारी शुरु कर दी है। 12वीं योजना (2012-2017) में शोध को बढ़ावा देने वाले विश्वविद्यालयों को खोलने पर उसका सबसे ज्यादा जोर होगा। बताते हैं कि सरकार 2020 तक छोटी-छोटी ऐसे लगभग 50 विश्वविद्यालयों को खोलने का इरादा रखती है, जिनमें छात्रों की संख्या अधिकतम पांच हजार तक ही हो। ताकि उसमें शोध आदि पर ज्यादा बेहतर ढंग से काम हो सके। इसी तरह युवाओं को व्यावसायिक शिक्षा के जरिए हुनरमंद बनाने पर भी खास फोकस किया जाना है। बताते हैं कि 2007-08 में उच्च शिक्षा में कुल 1.63 करोड़ दाखिले में से सरकारी संस्थानों के तकनीकी व व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में सिर्फ 16 प्रतिशत छात्रों ने दाखिले लिये थे। 2020 तक इसे बढ़ाकर 50 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य तय किया गया है। लिहाजा 12वीं पंचवर्षीय योजना से ही इस क्षेत्र को खास तवज्जो देनी होगी। उसके लिए कम और मध्यम अवधि के एक या दो वर्षीय एसोसिएट डिग्री या डिप्लोमा जैसे पाठ्यक्रम शुरू किये जा सकते हैं। सरकार ने उन पर विचार करना शुरू कर दिया है। विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में व्यावसायिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों को बढ़ावा देने, मानक को तय करने, जरूरी दिशा-निर्देश जारी करने के लिए एक राष्ट्रीय तंत्र का गठन भी किया जा सकता है|

Saturday, April 9, 2011

अतार्किक निर्णय


पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड ने नकल न करने की एवज में हर परीक्षार्थी को पांच नंबर का कृपांक देने की घोषणा की है। यह तर्क न केवल हास्यास्पद है बल्कि बेतुका भी लगता है। परीक्षाओं में नकल रोकने का उद्देश्य यह होता है कि प्रमाणपत्र उन्हीं विद्यार्थियों को मिले जो ज्ञान और योग्यता रखते हों। परीक्षाओं में नकल रोकना शिक्षा बोर्ड की जिम्मेदारी होती है और इसके लिए उसे कड़ाई से जांच की छूट भी मिली होती है। बोर्ड यदि चाहे तो नकल रोकने के लिए पुलिस की भी मदद ले सकता है और इसके अतिरिक्त नकलची विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम रोकने से लेकर उन्हें निलंबित करने तक का अधिकार बोर्ड के पास होता है। इसके बावजूद विद्यार्थियों को ग्रेस मार्क देना यह दर्शाता है कि बोर्ड अपने स्तर पर नकल रोकने में नाकाम रहा है और अब विद्यार्थियों को ग्रेस मार्क का लालच देकर नकल रोकना चाह रहा है। इसके अतिरिक्त शिक्षा मंत्री के इस निर्णय से परीक्षा का औचित्य ही समाप्त हो जाता है। विद्यार्थियों को शिक्षा देने का उद्देश्य एक बेहतर समाज का निर्माण होता है और इस बेहतर समाज का मानक ही उसकी साक्षरता और शिक्षा दर होती है। यदि सभी को इसी प्रकार प्रमाण पत्र देकर शिक्षित घोषित किया जाता रहेगा तो समाज में शिक्षित तथा अशिक्षित का अंतर ही समाप्त हो जाएगा। चूंकि स्कूलों की पढ़ाई के स्तर का आकलन उसके विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम से किया जाता है इसलिए शिक्षा मंत्री उसके प्रति अधिक चिंतित दिखाई दे रहे हैं। गत वषरें में ऐसा देखने में आया था कि कुछ स्कूलों की कुछ कक्षाओं में सभी विद्यार्थीं फेल हो गए थे और कुछ स्कूलों के परीक्षा परिणाम अत्यंत खराब आए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उन खराब परिणाम वाले स्कूलों की छवि सुधारने के लिए शिक्षा मंत्री ने ग्रेस मार्क का प्रावधान कर दिया है। शिक्षा मंत्री को चाहिए कि वह स्कूलों की छवि सुधारने के चक्कर में समाज का भविष्य चौपट न करें और अपने निर्णय पर एक बार फिर से विचार करें।



Sunday, April 3, 2011

सौ फीसदी साक्षरता के लिए दूरस्थ शिक्षा महत्वपूर्ण


स्कूली शिक्षा के दायरे से 81 लाख बच्चों के बाहर होने पर चिंता व्यक्त करते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने शनिवार को कहा कि दूरस्थ शिक्षा बच्चों तक शिक्षा की पहुंच बनाने में महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है और इस दिशा में इग्नू की अहम भूमिका है। इग्नू के 22वें दीक्षांत समारोह को वीडियो कांफ्रेंसिंग से संबोधित करते हुए सिब्बल ने कहा कि हम सभी जानते हैं कि सामाजिक एवं आर्थिक विकास की दिशा में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान है। ताजा जनगणना में साक्षरता दर में 9.2 फीसदी की बढ़ोत्तरी और महिला साक्षरता दर में 11.8 फीसदी का इजाफा शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धि है। उन्होंने कहा कि अब आबादी का 74 फीसदी हिस्सा यानी 77.84 करोड़ लोग साक्षर हैं। पिछली जनगणना में साक्षरता दर 64.83 फीसदी थी। महिला साक्षरता दर 53 प्रतिशत से बढ़कर 65 प्रतिशत और पुरुष साक्षरता दर 75 प्रतिशत से बढ़कर 82 प्रतिशत हुई है। अभी भी करीब 80 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर हैं जो चिंताजनक है। मानव संसाधन विकास मंत्री ने कहा कि हमारा लक्ष्य वर्तमान करीब 13 प्रतिशत सकल नामांकन दर को 2020 तक बढ़ाकर 30 प्रतिशत करना और अंतत: पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य को हासिल करना है। सिब्बल ने कहा कि इस उद्देश्य को प्राप्त करने में दूरस्थ शिक्षा और आन लाइन शिक्षा महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इस दिशा में इग्नू को लोगों तक शिक्षा की पहुंच बनाने और डिग्री प्रदान करने से आगे बढ़ते हुए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। सिब्बल ने कहा कि अभी देश में करीब 700 विश्वविद्यालय और 2,600 कॉलेज हैं। 30 प्रतिशत सकल नामांकन दर के लक्ष्य को हासिल करने के लिए आने वाले समय में एक हजार अतिरिक्त विश्वविद्यालय और 20 से 30 हजार कालेजों की जरूरत होगी जो तत्काल संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि इस उद्देश्य के लिए हमें कुछ अलग करने की जरूरत होगी, लेकिन साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित नहीं हो।