Tuesday, April 19, 2011

उत्तर प्रदेश में शिक्षा का भदेस


दरअसल, उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का मूलभूत ढांचा ही चरमरा गया है। विभाग के अधिकारी और सत्ता में बैठे लोगों को शिक्षा के उन्नयन व विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। शिक्षकों को भी अपने दायित्व के प्रति पूरी निष्ठा व ईमानदारी रखने की जरूरत है। यदि यह कार्य समय रहते नहीं हुआ तो प्रदेश की भावी पीढ़ी का भविष्य क्या होगा, यह सोचकर ही चिंता होती है..
दरअसल, उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का मूलभूत ढांचा ही चरमरा गया है। विभाग के अधिकारी और सत्ता में बैठे लोगों को शिक्षा के उन्नयन व विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। शिक्षकों को भी अपने दायित्व के प्रति पूरी निष्ठा व ईमानदारी रखने की जरूरत है। यदि यह कार्य समय रहते नहीं हुआ तो प्रदेश की भावी पीढ़ी का भविष्य क्या होगा, यह सोचकर ही चिंता होती है..जादी के 63 वर्ष गुजर गए, फिर भी उत्तर प्रदेश में शिक्षा को हम सही पटरी पर नहीं ला पाए। शैक्षिक गुणवत्ता की बात करना तो बहुत दूर है। ईमानदारी से यदि इसका लेखा-जोखा लें तो जो तस्वीर सामने आती है, वह केवल चौंकाने वाली ही नहीं, बल्कि निराशा पैदा करने वाली है। अभी कुछ दिनों पहले एनुअल सर्वे ऑफ एजूकेशनकी जो रिपोर्ट आई है, उससे यह साफ हो गया है कि सरकार और उसकी मशीनरी सूबे की शिक्षा के विकास केलिए कितनी ईमानदारी के साथ काम किया है। यह रिपोर्ट सूबे के अधिकारियों के निकम्मेपन का भी बयान कर रही है। दरअसल, सर्वे ने जो तथ्य उजागर किए हैं, वे सरकार की कमाओ खाओ और मौज उड़ाओनीति को उजागर करते हैं। सर्वेक्षण में 6 वर्ष से 14 वर्ष के आयु वर्ग वाले बच्चों का जो आंकड़ा सामने आया है, वह दर्शाता है कि आज भी प्रदेश के 28 लाख बच्चे स्कूल पहुंचने से वंचित हैं। इन बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने के लिए राज्य को 18000 करोड़ रुपए प्रत्येक वर्ष चाहिए। यदि राज्य के 45 प्रतिशत हिस्से को भी जोड़ दिया जाए तो यह व्यय 26000 करोड़ रुपए तक पहुंच रहा है। ऐसे में नि:शुल्क शिक्षा और शिक्षा अधिकार अधिनियम को राज्य में लागू कर पाने पर प्रश्नचिन्ह लग रहा है। 

एक अनुमान केअनुसार, यदि उत्तर प्रदेश में शिक्षा अधिकार अधिनियम को लागू करना है तो इसकेलिए चार हजार 596 नए प्राथमिक स्कूल और दो हजार 349 नए उच्च प्राथमिक स्कूलों की जरूरत होगी। इसका अनुमानित व्यय 3800 करोड़ रुपए आंका जा रहा है। यही नहीं, इसकेअलावा कई अन्य आधारभूत सुविधाओं की जरूरत पड़ेगी, जिससे बजट और अधिक बढ़ जाएगा। राज्य के 6-14 वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों को शिक्षा केदायरे में लाने के लिए नए प्राथमिक स्कूलों की जरूरत पड़ेगी। लगभग 3.25 लाख नए शिक्षकों की भर्ती भी सरकार को करनी पड़ेगी। वहीं दूसरी ओर उच्च प्राथमिक स्कूलों में भी बड़ी संख्या में नए शिक्षकों की नियुक्ति राज्य सरकार को करनी पड़ेगी। इसके लिए सरकार को अपने शिक्षा के बजट में भी वृद्धि की जरूरत होगी। ऐसे में अनिवार्य नि:शुल्क शिक्षा को जमीन पर उतार पाना काफी कठिन दिखाई दे रहा है।

सर्वे की रिपोर्ट की तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है, जो इससे भी अधिक चौंकाने वाला है। रिपोर्ट यह बताती है कि सर्वे के स्कूलों में कक्षा एक के 50 प्रतिशत से अधिक छात्र ऐसे हैं जो पढ़ाई-लिखाई के मामले में शून्य हैं। केवल 37.2 प्रतिशत बच्चे ही अक्षर पहचानते हैं, किंतु उनमें अक्षरों को जोड़कर शब्द बनाने और उन्हें पढ़ पाने की क्षमता नहीं है। केवल 8.2 प्रतिशत बच्चे ही ऐसे मिले, जो अपनी कक्षा के स्तर की पढ़ाई कर पाने में सक्षम हैं। कक्षा एक के बच्चों की संख्या इस श्रेणी में महज 2.7 प्रतिशत है। यह स्थिति सूबे की पूरी प्राथमिक शिक्षा की है। इससे भी अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि कक्षा पांच के 56.59 प्रतिशत बच्चे कक्षा दो की हिन्दी की किताब ठीक से नहीं पढ़ पाते। शिक्षणेतर कार्य तो यहां भूले-बिसरे ही हुआ करते हैं। इन स्कूलों के पास अपना खेल का मैदान है ही नहीं। गणित और विज्ञान विषय के अध्यापकों का आज भी सवर्था अभाव बना हुआ है। 

सूबे में इससे भी बुरा हाल उच्च प्राथमिक शिक्षा का है। यहां कक्षा 8वीं के कुल बच्चों में से 16.9 प्रतिशत बच्चे ही किताब पढ़ पाते हैं और 24 प्रतिशत केवल अक्षर पहचानते हैं। केवल 13.5 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो शब्द ज्ञान रखते हैं। कक्षा 8 में पहुंचकर केवल 14.5 प्रतिशत बच्चे ही कक्षा-एक की सही पढ़ाई कर पाने में सक्षम हैं। वहीं 31.2 प्रतिशत बच्चे कक्षा-दो स्तर तक पहुंच पाए हैं। सर्वे के अनुसार, कक्षा-तीन से पांच तक में पढ़ने वाले कुल ग्रामीण बच्चों में से 49.3 प्रतिशत बच्चे कक्षा-एक स्तर की पढ़ाई भी नहीं कर पाते। राज्य के छात्र राष्ट्रीय स्तर की पढ़ाई से 15.9 प्रतिशत पीछे चल रहे हैं। सर्वे में यह बात भी सामने आई है कि राज्य के पश्चिमी जनपदों में पढ़ाई की स्थिति थोड़ी बेहतर है। महानगरों के ग्रामीण क्षेत्रों में देखें तो लखनऊ 55.3, आगरा 54.4, इलाहाबाद 56, कानपुर 60, बरेली 42.8, मेरठ 30.7 और वाराणसी के 42.2 प्रतिशत छात्र कक्षा-एक उत्तीर्ण करने लायक भी नहीं हैं, फिर भी वे कक्षा-तीन व पांच में पढ़ रहे हैं। सर्वे में कक्षा-आठ के 41.9 प्रतिशत छात्र ऐसे पाए गए, जो रुपए-पैसे नहीं गिन सकते। लगभग 64.3 प्रतिशत ऐसे भी छात्र मिले हैं, जिन्हें समय यानी घड़ी देखना नहीं आता। 

तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर बहुत खराब है। सर्वे से पता चलता है कि पांचवीं कक्षा के करीब 27 और आठवीं कक्षा के 31 प्रतिशत छात्रों को ट्यूशन लेने की जरूरत होती है, जिसके लिए उन्हें अलग से फीस देनी पड़ती है। प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले ऐसे बच्चों की संख्या सरकारी स्कूलों से कम है। ऐसे में सरकार को शिक्षा की गुणवत्ता के लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत है। दरअसल, उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का मूलभूत ढांचा ही चरमरा गया है। विभाग के अधिकारी और सत्ता में बैठे लोगों को शिक्षा के उन्नयन व विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास करने की जरूरत है। शिक्षकों को भी अपने दायित्व के प्रति पूरी निष्ठा व ईमानदारी रखने की जरूरत है।

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