Sunday, January 30, 2011

अपने स्कूल पर भरोसा नहीं


जब अपने ही भरोसा नहीं करते तो बेगानों से क्यों गिला-शिकवा। सरकारी शिक्षा तंत्र की बदहाली पर कटाक्ष करती यह पंक्ति हकीकत बयां करती है। कम से कम जिले के आंकड़े तो यही गवाही दे रहे हैं। जिले में इस समय प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाने वाले 2086 शिक्षकों में 2045 शिक्षक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। मतलब 41 ही ऐसे सरकारी शिक्षक हैं, जिनके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। शेष को सरकारी स्कूलों की शिक्षा पर भरोसा नहीं है, तभी तो वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। सरकारी स्कूलों में शिक्षक पद पर नियुक्ति का क्रेज लोगों के सिर चढ़ कर बोलता है। इसका उदाहरण है कि हाल ही में प्रदेश भर में सरकारी स्कूलों में शिक्षकों के 3725 पदों के लिए 45 हजार के लगभग आवेदन आए थे। यानी की एक शिक्षक पद के पीछे एक दर्जन आवेदन। इससे तो यही लगता है कि सरकारी शिक्षक बनने का क्रेज लोगों में खूब है। इसका दूसरा पहलू सरकारी शिक्षा तंत्र पर सवाल उठाता है। लोगों को नौकरी तो सरकारी चाहिए, लेकिन वे अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए प्राइवेट स्कूलों की तरफ भागते हैं। आज सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 90 फीसदी विद्यार्थी मजदूर, दिहाड़ीदार, दलित व पिछड़े वर्ग से ही आ रहे हैं। ऐसे में सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का लोगों से यह कहना कि अपने बच्चों का सरकारी स्कूलों में दाखिला करवाएं, बेमानी लगता है। अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा दिलवा रहे सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का मानना है कि सरकारी स्कूलों में इंफ्रास्ट्रक्चर व सुविधाओं का अभाव है। इसके चलते आज इन स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक ही नहीं, बल्कि जिसके पास भी थोड़ा बहुत पैसा है, वे भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजते हैं। हालांकि शिक्षा के लिहाज से सरकारी स्कूलों के शिक्षक ज्यादा योग्य होते हैं, लेकिन सरकार द्वारा उनसे पढ़ाने के अलावा इतने गैर शैक्षणिक कार्य लिए जाते हैं कि बच्चों का भविष्य दांव पर लग जाता है, जबकि प्राइवेट स्कूलों में शिक्षकों को पढ़ाने पर ज्यादा जोर दिया जाता है। शिक्षाकर्मी अध्यापक यूनियन की प्रधान राजविंदर कौर पढ़ाती तो सरकारी स्कूल में हैं, लेकिन उनके बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं। उनका कहना है कि सरकारी स्कूलों में सरकार ने शिक्षकों पर डाक का इतना बोझ डाल रखा है कि बच्चों को पढ़ाना मुश्किल हो जाता है। इसलिए शिक्षक पढ़ाई को लेकर गंभीर नहीं: जिला शिक्षा अधिकारी (डीईओ) सेकेंडरी जोगिंदर दास मकसूदपुरी भी इस बात से सहमत हैं कि शिक्षकों के बच्चे भी सरकारी स्कूलों की बजाय प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। यही कारण है कि शिक्षक पढ़ाई को लेकर स्कूलों में इतने ज्यादा गंभीर नहीं होते हैं।


स्कूली शिक्षा का एक और कड़वा सच


हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र के मौके पर जो झलकियां निकलती हैं, वह हमें हमारे देश की संस्कृति और प्रगति की कहानी बताती हैं, लेकिन जो जमीनी सच्चाई अभी हाल में जारी एक रिपोर्ट ने सारे देश के सामने रखा है, उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले तकरीबन 53.4 फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा के किताबों को भी ठीक से नहीं पढ़ पाते हैं। इसी तरह पांचवीं कक्षा के 35.9 फीसदी बच्चे ही गुणा-भाग के सरल सवालों को हल कर पाते हैं। चौथी कक्षा के 19 फीसदी बच्चे जोड़-घटाव के सवाल हल नहीं कर पाते और तकरीबन 35 फीसदी पहली कक्षा के बच्चे एक से नौ तक की गिनती नहीं पढ़ पाते। प्रथम नामक एक गैर-सरकारी संगठन की वार्षिक रिपोर्ट 2010 ने यह भी तथ्य देश के सामने रखा है कि देश के स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के अनुरूप अपेक्षित सुधार फिलहाल नहीं हो पाया है। इसके विपरीत स्कूली बच्चों में गणित की समझ कम हुई है और दूसरी कक्षा के 29 फीसदी बच्चे अभी भी एक से सौ तक की गिनती ठीक से नहीं जानते। क्षेत्रफल, आयतन आदि से संबंधित सवालों को आठवीं कक्षा के 40 फीसदी बच्चे ठीक से हल नहीं कर पाते। यह सर्वेक्षण देश के 522 जिलों के 14 हजार से ज्यादा गांवों में सात लाख बच्चों से बातचीत के आधार पर तैयार किया गया। सर्वेक्षण से यह भी खुलासा हुआ कि ग्रामीण इलाकों में छह से 14 आयु वर्ग के करीब 96.5 फीसदी बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। इनमें से 71.1 फीसदी का नामांकन सरकारी व 24.3 फीसदी का प्राइवेट स्कूलों में हुआ है। स्कूल में जाने वाले पांच वर्ष के बच्चों के नामांकन में वृद्धि हुई है। वर्ष 2010 में यह आंकड़ा 62.8 फीसदी था जबकि 2009 में 54.9 फीसदी। 11-14 आयु वर्ग की छह प्रतिशत ग्रामीण लड़कियां अब भी स्कूल तक नहीं पहुंच पा रहीं, जबकि 2009 में आंकड़ा 6.8 प्रतिशत था। इस रिपोर्ट का निष्कर्ष यही है कि अब हमारा ध्यान महज संख्या से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर होना चाहिए। सहस्राब्दी विकास लक्ष्य में शिक्षा भी शमिल है और भारत सरकार के सामने इस लक्ष्य को हासिल करना एक चुनौती है। उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने इस रिपोर्ट को जारी करते हुए कहा कि-शिक्षा में गुणवत्ता के सुधार की योजनाओं को कड़ाई से लागू करने की जरूरत है। इसके लिए प्रशासनिक अधिकारी से लेकर स्कूल प्रबंधन और शिक्षकों को पूरी निष्ठा से अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। दरअसल प्राइमरी, माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर हमेशा ही सवाल उठते रहे हैं। सरकार की कोशिशें नामांकन पर अधिक केंद्रित है, लेकिन अब योजनाकारों को गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। ऐसी शिक्षा का क्या मतलब जो उन्हें कोई ऐसा हुनर न दे सके जिसके बलबूते वह कोई रोजगार न ढूंढ़ पाएं और मजदूरी करने को विवश हों। शिक्षा के अधिकार का मतलब महज बच्चों का स्कूलों में दाखिला नहीं होना चाहिए? स्कूल जाने का अधिकार दिया है तो उसे यह अधिकार भी हो कि उसे बढि़या शिक्षा मिले और कल्याणकारी राज्य अपनी इस जिम्मेवारी से बच नहीं सकता। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि ग्रमीण स्कूलों में 2009 की तुलना में 2010 में प्राइवेट स्कूलों में नामांकित बच्चों की संख्या में इजाफा हुआ है। यह संख्या 21.8 फीसदी से बढ़कर 24.3 फीसदी हो गई है। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर घटिया है और इन इलाकों में पांचवी कक्षा के करीब 27 और आठवीं कक्षा के 31 प्रतिशत छात्रों को ट्यूशन की जरूरत होती है। इस ट्यूशन के लिए उन्हें अलग से फीस देनी होती है। हालांकि प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले ऐसे बच्चों की संख्या सरकारी बच्चों से कम है। इसकी ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए सरकार को संसाधन जुटाने के साथ-साथ प्रतिबद्धता भी दिखानी होगी। इस संदर्भ में बिहार व पंजाब का जिक्र करना जरूरी है। नीतीश कुमार जब 2005 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उनकी सरकार का एजेंडा सुशासन था, जिसका जमकर प्रचार भी किया गया। बिहार राज्य में नीतीश कुमार की सरकार ने शिक्षा पर भी फोकस किया। वर्ष 2006 में इस राज्य में 11-14 आयुवर्ग के 12.3 फीसदी और 17.6 फीसदी लड़कियां स्कूल नहीं जाती थीं पर 2010 में यह आंकड़ा घटकर 4.4 और 4.6 फीसदी रह गया है। स्पष्ट है कि बिहार में नीतीश कुमार इस मामले में काफी प्रगति की है। इसके लिए सरकार ने दो लाख से ज्यादा प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती की जिसमें तकरीबन एक लाख तो केवल महिलाएं ही हैं। नौवीं कक्षा में दाखिला लेने वाली लड़की को मुख्यमंत्री साइकिल योजना के तहत दो हजार रुपये प्रोत्साहन के तौर पर दिए गए। इसका सम्मिलित प्रभाव यह रहा कि इस योजना का लाभ हजारों लड़कियों ने उठाया है। अंकगणित के सवालों को हल करने में पिछले वर्षो की तुलना में 2010 में पंजाब के स्कूली बच्चों में काफी सुधार आया है। सर्वेक्षण से इस बात का भी खुलासा होता है कि किस तरह यह राज्य शिक्षकों के साथ-साथ छात्रों पर भी ध्यान दे रहा है। इस राज्य में ऐसी योजनाएं हैं, जिनका मकसद अध्यापन कला के स्तर को ऊपर ले जाना है। 13 हजार स्कूलों में 60 फीसदी स्कूलों का बुनियादी ढांचा शिक्षा का अधिकार कानून के मानकों के अनुसार संतोषजनक है, जबकि आधे से ज्यादा स्कूलों में अध्यापकों की कमी है और एक तिहाई स्कूलों की स्थिति ऐसी जिसमें और अधिक कक्षाओं को बनाए जाने की जरूरत है। स्कूली शिक्षा में सुधार के लिए दरअसल बुनियादी ढांचे का विकास किया जाना बहुत जरूरी है। स्कूल में पढ़ने के लिए छात्रों को क्लासरूम, ब्लैकबोर्ड, स्वच्छ पेयजल और गरम भोजन की जरूरत है। इसके साथ ही प्रशिक्षित और योग्य अध्यापकों की भी जरूरत है। सरकार इस मामले में खुद को लाचार पाती है। एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक शिक्षा को पटरी पर लाने के लिए पांच लाख और शिक्षकों की जरूरत है ताकि स्कूलों में अध्यापकों की कमी को पूरा किया जा सके। पूरे देश में सात लाख बहत्तर हजार अप्रशिक्षित अध्यापक हैं और बारह लाख छह हजार अध्यापकों के पद खाली हैं। इस संकट से निपटने के लिए सरकार के पास कोई ठोस योजना दिखाई नहीं देती। यह चर्चा अक्सर सुनाई देती है, पर इस बारे में कुछ भी साफ नहीं पता चल पाता। कभी सरकार बीएड को एक साल से बढ़ाकर दो साल करने का फैसला लेती है तो फिर कभी अध्यापकों का संकट बढ़ने की बात कहकर इस बयान से पलट जाती है कि इससे संकट और गहरा हो जाएगा। पुरुष के साथ-साथ महिला अध्यापकों की भी काफी जरूरत है। राजस्थान और उत्तर प्रदेश में लड़कियों को स्कूल भेजने की स्थिति खराब है। इन राज्यों को इस दिशा में खास ध्यान देना होगा ताकि शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्र में लड़कियां पिछड़ न जाएं। शिक्षा में पिछड़ने का मतलब जिंदगी में मिलने वाले मौके खो देना है। आज हमारे देश में जिस तरह भ्रष्टाचार, घोटालों और काले धन पर बहस हो रही है, उस माहौल में उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने संबंधी जो कुछ कहा है, उस पर क्या सरकार गंभीरता से गौर करेगी। ऐसे में जबकि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के दावे कागजी ही साबित हुए हैं। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)



Friday, January 28, 2011

यूपी में एक और निजी विवि खोलने की तैयारी


प्रदेश में एक और निजी विश्वविद्यालय खोलने की तैयारी है। जेपी यूनिवर्सिटी नामक यह विश्वविद्यालय बुलंदशहर के अनूपशहर क्षेत्र में खोला जाएगा। निजी क्षेत्र के इस विवि की स्थापना के लिए आवेदक संस्था ने शासन को विस्तृत परियोजना रिपोर्ट भेजी है। जयप्रकाश सेवा संस्थान चैरिटेबल ट्रस्ट ने विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में शासन को बताया कि वह बुलंदशहर के अनूपशहर क्षेत्र में निजी विश्वविद्यालय खोलने का इरादा रखता है। संस्था ने यह भी बताया है कि विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए प्रस्तावित स्थल पर उसके पास 50 एकड़ के मानक के मुताबिक जमीन भी उपलब्ध है। संस्था जेपी इन्स्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी के नाम से गुना (मध्य प्रदेश) में प्रौद्योगिकी शिक्षण संस्थान संचालित कर रही है। परियोजना रिपोर्ट के जरिये उपलब्ध करायी गईं जानकारियों के स्थलीय परीक्षण के लिए शासन कमेटी गठित करने पर विचार कर रहा है।
         

Wednesday, January 26, 2011

तय क्रेडिट पर डिग्री पाएंगे आइआइटियन


सब कुछ योजना के तहत हुआ तो नए सत्र से देश के सभी भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) में छात्रों की मूल्यांकन प्रणाली बदल जाएगी। अब तय क्रेडिट लाने पर ही छात्रों को डिग्री मिल जाएगी। हालांकि कम्युलेटिव इंडेक्स प्वाइंट (सीपीआइ) जारी रहेगा, लेकिन उसके खराब होने का भूत नहीं सताएगा। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल और संस्थानों के निदेशकों की उपस्थिति में आइआइटी काउंसिल ने उक्त फैसला किया। मूल्यांकन प्रणाली बदलने के सुझाव आइआइटी निदेशक प्रो.संजय गोविंद धांडे ने रखे थे। उन्होंने बताया कि संस्थान में छात्रों को 40 कोर्स करने होते हैं। इसके लिए सीपीआई प्रणाली लागू है। इसमें छात्र का किस पाठ्यक्रम में कैसा प्रदर्शन है? प्रोजेक्ट व प्रैक्टिकल कितने किये? आदि के आधार पर उसे अगली कक्षा में स्थान मिलता है। यदि किसी में प्रदर्शन कमजोर रहा तो सीनेट फैसला करती है। तय सीमा से न्यून प्रदर्शन पर छात्र को एकेडमिक टर्मिनेशन का शिकार होना पड़ता है। काउंसिल ने सैद्धांतिक सहमति दे दी है कि सीपीआइ प्रणाली जारी रहेगी परंतु अब कोर्स का प्रदर्शन देखने के बजाय छात्र को हर सेमेस्टर में किये कार्य के लिए निर्धारित क्रेडिट दिये जाएंगे। ये क्रेडिट उसके खाते में जमा होते रहेंगे। कोर्स समाप्त होने पर कुल क्रेडिट (निर्धारित या उससे अधिक होने पर डिग्री दे दी जाएंगी। उन्होंने बताया कि सभी आइआइटी की सीनेट पहले की तरह स्वायत्त रहेंगी। कोर्सवार क्रेडिट तय करने, कितने क्रेडिट लाने पर डिग्री दी जायेगी? कितने क्रेडिट तक के छात्रों को अकादमिक निष्कासन का शिकार होना पड़ेगा। कितने क्रेडिट तक उसे सीनेट में अपील का मौका मिलेगा? डिग्री पूरी करने के लिए अधिकतम समय कितने साल होगा? इसके निर्धारण का अधिकार सभी संस्थानों की सीनेट का होगा। अलग-अलग संस्थानों की क्रेडिट का मूल्य अलग अलग हो सकता है परंतु इससे छात्रों को सीपीआई ठीक रखने का भूत नहीं सताएगा। छात्र के लिए एक-दो सेमेस्टर के बाद किसी और संस्थान में जाना आसान हो जाएगा। पीजी, पीएचडी व शिक्षक बढ़ाने का बना रोडमैप : भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों की संयुक्त परिषद (आइआइटी काउंसिल) ने संस्थानों में परास्नातक व पीएचडी छात्रों की संख्या बढ़ाने और शिक्षकों की कमी दूर करने का रोडमैप स्वीकार कर लिया।



Sunday, January 23, 2011

बिजनौर के 634 गांवों में पाठशाला ही नहीं


शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू कर हर बच्चे को शिक्षा से जोड़ने का सरकारी प्रयास बिजनौर में बेमानी नजर आ रहा है। सर्वशिक्षा अभियान के माध्यम से गांवों में शिक्षा की अलख जगाने का सरकारी वायदा किया जा रहा है, खजाने में धन भी पड़ा है लेकिन अभी भी जिले के 634 गांवों में स्कूल नहीं हैं। यहां के बच्चों को पढ़ाई के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है। शिक्षा विभाग ने नए स्कूल खोलने के लिए सत्यापन कराया तो पता चला कि जिले जिले में 2390 गांव हैं। इनमें से मात्र 1756 गांवों में ही स्कूल हैं। बाकी गांवों के बच्चे तालीम हासिल करने के लिए कोसों दूर जाते हैं। शिक्षा का अधिकार के तहत हर गांव में स्कूल खोलने की सरकारी योजना परवान चढ़ती नहीं दिख रही। नए परिषदीय स्कूल खोलकर सभी बच्चों को शिक्षा से जोड़ने की योजना पर काम करने का वायदा तो किया जा रहा है, लेकिन स्कूलों के निर्माण के लिए पिछले साल आए धन को अभी तक खर्च नहीं किया जा सका है। ऐसे में फिलहाल हर बच्चे की किस्मत संवारने को स्कूल मिलने की उम्मीद नजर नहीं आ रही। केंद्र और प्रदेश सरकार के बीच कई बार हर गांव में स्कूल खोलने के लिए मानक तय किए गये, लेकिन इसमें आने वाले खर्च को देखते हुए हर बार प्रस्ताव को मंजूरी देने के बाद उसमें बदलाव कर दिया गया। अब फिर से नया प्रस्ताव आया है। सबसे पहले प्रत्येक एक किमी पर बेसिक और डेढ़ किमी पर जूनियर हाईस्कूल खोलने की योजना बनाई गई। सरकार ने इसे नहीं स्वीकारा। इसके बाद आबादी के आधार पर स्कूलों को खोलने का प्रस्ताव बनाया। इसे भी केंद्र सरकार ने नहीं माना। अब प्रत्येक तीन किमी पर जूनियर हाईस्कूल खोलने का प्रस्ताव पास किया गया है। इसके तहत जिले के छह सौ से अधिक गांवों को चिन्हित किया गया है, जहां पर विद्यालय नहीं हैं। इस बारे में बात करने पर बीएसए योगराज सिंह ने बताया कि जिन गांवों में स्कूल नहीं हैं, उनमें मानकों के अनुरूप स्कूलों का निर्माण कराया जाएगा।


नहीं बढ़ेगी आइआइटी में फीस : सिब्बल


सरकार भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) को और बेहतर बनाने के पक्ष में तो है, लेकिन उसके लिए फीस वृद्धि पर वह तैयार नहीं है। सरकार ने इस बाबत की गई सिफारिश को नकार दिया है। हालांकि, उसने 200 करोड़ की लागत से 50 शोध पार्कों को बनाने की मंजूरी दे दी है। इतना ही नहीं, सरकार ने फैकल्टी की कमी को पूरा करने के लिए एक पैनल बनाने पर भी अपनी रजामंदी दे दी है। आइआइटी कौंसिल की शुक्रवार को हुई बैठक में आइआइटी की स्वायत्तता और भविष्य में बेहतर नतीजों की बाबत काकोदकर कमेटी की रिपोर्ट पर चर्चा तो हुई, लेकिन उस पर सहमति नहीं बन सकी। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में कौंसिल के सदस्यों को समिति की वह सिफारिश भी गले नहीं उतरी, जिसमें उन्होंने लगभग पांच गुना फीस वृद्धि का सुझाव दिया था। सूत्रों के बैठक में मुताबिक सिब्बल ने कहा कि इससे कमजोर वर्गो के उन छात्रों के लिए दिक्कत बढ़ जाएगी, जिनमें प्रतिभा है और वे आइआइटी से पढ़कर आगे जाना चाहते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि इससे सामान्य छात्र भी प्रभावित होंगे। वे कर्ज लेकर पढ़ने को भी आसान रास्ता नहीं मानते। बताते हैं कि सिब्बल ने सभी जरूरी पहलुओं को ध्यान में रखकर काकोदकर कमेटी से नए वित्तीय मॉडल पर फिर से रिपोर्ट तैयार करने को कहा है। कमेटी ने हॉस्टल फीस वृद्धि का भी सुझाव दिया था। कौंसिल ने इसे आइआइटी के बोर्ड ऑफ गवर्नर के फैसले पर छोड़ दिया है। बैठक में सिब्बल ने बताया कि 12वीं योजना में 50 शोध पार्क बनाये जाएंगे, जिस पर 200 करोड़ का खर्च आएगा। इसके साथ ही अभी औसतन सालाना एक हजार शोध को बढ़ाकर दस हजार करने का भी फैसला किया गया। इस पर अमल से और ज्यादा फैकल्टी की जरूरत होगी। आइआइटी में फैकल्टी की कमी को किसी हद तक पूरा करने और जरूरत पर समय से उनकी नियुक्ति की बाबत विजिटर की ओर से नियुक्त (नामिनी) किए जाने वाली फैकल्टी का पहले से ही एक पैनल बनाकर रखने पर भी सहमति बनी है। जबकि आइआइटी निदेशकों की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी कर चयन पर भी कौंसिल ने सहमति जता दी है। बैठक में दिए गए एक प्रजेंटेशन के बाद आइआइटी पाठ्यक्रम में साइबर सिक्योरिटी को भी कैरीकुलम में शामिल करने पर सहमति बनी है। डा. आर. चिदंबरम इसका रोडमैप तैयार करेंगे, जबकि विदेश से अनुदान लेने के मामले में प्रो. देबांग खाखर की रिपोर्ट भी मंजूर कर ली गयी है। इसके अलावा शोध के लिए संसाधनों को बढ़ाने के लिए सेमेस्टर सिस्टम के एक समान कैरीकुलम की बाबत प्रो. संजय धांडे की रिपोर्ट को भी मंजूर कर लिया गया है। कौंसिल ने मॉरीशस में भी प्रौद्योगिकी संस्थान खोलने पर रजामंदी दी, लेकिन वह आइआइटी नहीं होगा।

वोकेशनल कोर्स में भी अब होगी पीएचडी


व्यावसायिक शिक्षा में स्कूली पढ़ाई से लेकर पीएचडी तक की डिग्री हासिल की जा सकेगी। इसके लिएआसान ऋण भी मिलेगा। मदरसों से निकले छात्र और वयस्क उम्र वाले भी अपनी सुविधा और काबिलियत के अनुसार वोकेशनल कोर्स कर सकेंगे। इन सभी को वोकेशनल एजूकेशन क्वालीफिकेशनफ्रेमवर्क (एनवीईक्यूएफ)के तहत प्रमाणपत्र, डिप्लोमा अथवा डिग्री दी जाएगी जो देश और विदेश दोनों जगह मान्य होगी। एनवीक्यूएफको बृहस्पतिवार को राज्य सरकारों ने अपनी मंजूरी दे दी।
मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बलजल्द ही पाठक्रम तैयार करने के लिएराज्यों के प्रतिनिधित्व वाली समिति गठित करेंगे जो मई तक काम निपटा लेगी। इसके बाद सिब्बलवित्त मंत्रालय से बात करेंगे। वह इसे केंद्रीय योजना के रूप में लागू करना चाहते हैं। उनका मानना है कि स्कूल से विश्वविद्यालय तक ग्रेडिंगके आठ स्तरों वाले फ्रेमवर्कके लिएअलग से बुनियादी ढांचा नहीं बनाना होगा। सिर्फ शिक्षकों या उपकरणों की जरूरत होगी यानी सरकार पर कोई बहुत बड़ा बोझ नहीं पड़ेगा। बृहस्पतिवार को राज्यों के शिक्षा मंत्रियों की बैठक में सिब्बलने रोजगार के अवसर देने वाली शिक्षा को समय की जरूरत बताया। उन्होंनेकहा कि 10वींसे 12वींकक्षा के बीच लगभग 4.41करोड़ बच्चेपढ़ाई अधूरी छोड़ देते हैं। व्यावसायिक कोर्स से यह संख्या घटाने में मदद मिलेगी। सरकार का लक्ष्य सालाना 25फीसदी स्कूली बच्चों को व्यावसायिक शिक्षा से लैस करना है।
फिलहाल भारत में ऐसे बच्चों की तादाद महज 4.8फीसदी है जबकि जर्मनी में 65फीसदी और चीन में 50फीसदी से ऊपर है। बैठक में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा समेत 15राज्यों के शिक्षा मंत्री शामिल हुएजबकि पिछली बार इनकी संख्या महज चार थी। सिब्बलने राज्यों को स्थानीय परंपरा, कौशल, तेजी से बढ़ते क्षेत्रों के अलावा उन स्कूलों और संस्थानों की पहचान को भी कहा जहां कोर्स शुरू किया जा सके।