Sunday, January 16, 2011

अहिंसा के उपयोग

पिछले हफ्ते वर्धा विश्वविद्यालय में शांति-अहिंसा विभाग के पीएचडी छात्र मनहर चारण का प्री-सबमिशन देखने-सुनने का मौका मिला। जो सिर्फ पुराने विश्र्वविद्यालयी तौर-तरीकों से परिचित हैं, उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि नया चलन अपनी थीसिस सीधे जमा करने का नहीं है। उसके पहले एक छोटी-सी बैठक होती है, जिसमें बाहर से आए विशेषज्ञ, शोध गाइड और कुछ अन्य शिक्षक उपस्थित होते हैं। इस बैठक में छात्र अपने कार्य का संक्षिप्त ब्यौरा प्रस्तुत करते हंै। उसके बाद विभिन्न लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और सुझाव देते हैं। इससे शोध छात्रों को अपनी थीसिस बेहतर बनाने का मौका मिलता है। मनहर के शोध कार्य का विषय था- विज्ञापनों का बीकानेर शहर के जनजीवन पर प्रभाव अहिंसात्मक परिप्रेक्ष्य में। उसने बड़े आत्मविश्र्वास के साथ अपनी बात रखी। उसके बाद लोगों ने अपने-अपने सुझाव दिए। शांति-अहिंसा के उस गंभीर विद्यार्थी से शाम को फिर मुलाकात हुई। मैंने पूछा, थीसिस जमा करने के बाद आप क्या करेंगे? उसका उत्तर था, यही तो सबसे बड़ा प्रश्न है मेरे सामने। थीसिस जमा करने के बाद अपने घर बीकानेर चला जाऊंगा और क्या? फिर चर्चा होने लगी कि इस विषय के सफल छात्रों के लिए रोजगार की संभावना कितनी है। उसने कहा कि भारत में तो इसकी कोई संभावना दिखाई नहीं पड़ती। मैंने ध्यान दिलाया कि पश्चिम के कई देशों में इस विषय पर अच्छा काम हो रहा है। वहां अध्यापन और शोध की पूरी गुंजाइश है। सहमति व्यक्त करते हुए उसने कहा कि मैं सोच रहा हूं कि कोई विदेशी भाषा सीख लूं और बाहर चला जाऊं। हां में सिर हिलाने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था, हालांकि भीतर से मैं बहुत आहत था। आहत इसलिए था कि हम अपने एक विश्वविद्यालय में एक ऐसा विषय पढ़ा रहे हैं जिसे पढ़ लेने के बाद छात्र का अपने देश में कोई भविष्य नहीं रह जाता। इसका मतलब यह नहीं है कि यह विषय महत्वपूर्ण नहीं है। दुनिया के हिंसक देशों में भारत का स्थान बहुत ऊपर नहीं तो बहुत नीचे भी नहीं है। प्रत्यक्ष हिंसा के अलावा हिंसा के अनेक रूप हमारे यहां काम कर रहे हैं। इसके बावजूद कि इस देश में शांति और अहिंसा के बड़े-बड़े उपदेशक पैदा हुए। अहिंसा को अपने जीवन का ध्येय बना लेने वाले गांधीजी इस परंपरा के आखिरी महत्वपूर्ण कड़ी थे। ऐसा देश अगर आज हिंसा की चोटिल गिरफ्त में कसमसा रहा है तो हमें खोज करनी ही होगी कि समाज और राज्य में शांति और अहिंसा को स्थापित करने के लिए किस तरह के प्रयत्नों की आवश्यकता है। लगभग आठ वर्ष पहले जब मैंने पढ़ा कि वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्र्वविद्यालय में शांति और अहिंसा की पढ़ाई होगी तभी मैं चौंका था कि अहिंसा क्या सिर्फ सैद्धांतिक अध्ययन-अध्यापन का विषय है या व्यावहारिक विज्ञान है जिसे काम करते हुए ही सीखा और सिखाया जा सकता है। मैंने यह भी लिखा था कि अगर शांति-अहिंसा के अध्यापक और विद्यार्थी अपने आसपास के अंचल में शांति-अहिंसा के मूल्यों को स्थापित करने का प्रयत्न नहीं करते और वह व्यावहारिक स्तर पर यह साबित नहीं करते कि अन्याय के विरुद्ध और न्याय के पक्ष में अहिंसात्मक संघर्ष ज्यादा सफल हो सकता है तब तक इसके नतीजे टिकाऊ नहीं होंगे। विश्वविद्यालयों को ज्ञान-विज्ञान का केंद्र होना चाहिए या समाज में उनकी कोई रचनात्मक भूमिका भी होनी चाहिए? महात्मा गांधी शांति और अहिंसा के चलते-फिरते विश्र्वविद्यालय थे और यह हैसियत उन्होंने किताबें पढ़-पढ़ाकर नहीं, बल्कि संघर्ष करते हुए हासिल की थी। हमारे प्रोफेशनल समय की सबसे बड़ी विकृति यह है कि जिस चीज से पैसा नहीं कमाया जा सकता वह बेकार है। अगर आपके चित्र बाजार में नहीं बिकते, अगर आपका संगीत सुनने के लिए भीड़ नहीं उमड़ पड़ती तो ऐसी चित्रकला और संगीत से क्या फायदा? इसी तरह अगर आपने अहिंसा पर पीएच.डी कर ली और आप महीने में चालीस-पचास हजार रुपए भी नहीं कमा सकते, तो आपकी पढ़ाई-लिखाई की सार्थकता क्या है? जाहिर है, यह कुशाग्र विद्यार्थी भी अहिंसा के क्षेत्र में अपना आर्थिक कैरियर खोज रहा है। अपने ज्ञान का सामाजिक उपयोग करने में उसकी रुचि नहीं है। उसने अपनी पढ़ाई-लिखाई के दौरान जो कुछ भी सीखा और जाना है उसके व्यावहारिक उपयोग के लिए देश भर में अवसर ही अवसर हैं, लेकिन इससे संपन्न बनना तो दूर मध्य वर्ग का सामान्य जीवन भी नहीं जिया जा सकता। फिर वह किसी सुदूर देश के विश्र्वविद्यालय में काम करने की क्यों न सोचे? ऐसा नहीं है कि राजनीति, अर्थशास्त्र, समाज विज्ञान, अहिंसा आदि विषयों पर अध्ययन का उपयोग नहीं है। ज्ञान पैदा करना और समाज में उसका संचरण करना विश्र्वविद्यालयों का प्रमुख काम है, लेकिन ज्ञान के लिए ज्ञान वैसे ही है जैसे कला के लिए कला। जिस ज्ञान का कर्म से रिश्ता नहीं बने, वह ऐसा संतरा है जिसे निचोड़ने पर रस की एक बूंद भी नहीं निकलती। दुर्भाग्य से, भौतिक विज्ञानों को छोड़कर दूसरे अनुशासन समाज पर बोझ बनते जा रहे हैं। अध्यापक इसलिए पढ़ाते हैं ताकि उनके छात्र आगे चलकर अध्यापक बन सकें। सुंदर का इससे असुंदर उपयोग और क्या हो सकता है?


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