Tuesday, March 29, 2011

सर्वशिक्षा बनी मजाक


वही परीक्षा, वही खुदकुशी


देश में इस समय परीक्षाओं का माहौल है। बच्चों पर इन परीक्षाओं का भारी दबाव है। यह परीक्षा से उपजे मानसिक दबाव का ही दुष्परिणाम है कि आत्महत्या करने की खबरें भी तेजी से आ रही हैं। ये परीक्षाएं भी बच्चों के लिए जानलेवा सिद्ध हो रही हैं। पिछले साल जनवरी से जून के बीच 110 छात्रों ने परीक्षा के दबाव अथवा एक-दो विषयों में विफलता के चलते आत्महत्या कर ली थी। उनमें से 26 छात्र अकेले मुंबई-थाणे क्षेत्र के थे और उनकी उम्र 15 से 22 के बीच थी। महाराष्ट्र सरकार ने पिछले दिनों टाटा इंस्टीटूट ऑफ सोशल साइंस, देवनार, मुंबई को जिम्मेदारी सौंपी है कि वह अध्ययन करके बताए कि बच्चों के अकादमिक जीवन में परिवार और स्कूल की क्या भूमिका है, बच्चों की कार्य निष्पादन क्षमता कैसी है तथा बच्चा परिवार की अपेक्षाएं पूरी करने में कहां अयोग्य साबित हुआ है।
बात केवल महाराष्ट्र की नहीं है। तथ्य बताते हैं कि विगत दो वर्षों में परीक्षाओं के दबाव में तथा फेल होने पर देश भर में हजारों छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। योजनाकारों, शिक्षाविदों एवं नीति निर्माताओं के सामने यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है कि बच्चों के आत्महत्या की ये घटनाएं मौजूदा शिक्षा प्रणाली या परीक्षा प्रणाली के दोष के कारण हो रही हैं या परिवार व समाज का प्रतिस्पर्द्धी माहौल उन्हें आत्मघाती बना रहा है।
यह सच अब पूरा समाज स्वीकार कर रहा है कि हो न हो, दोष इस शिक्षा प्रणाली में ही है। परीक्षा प्रणाली तो इस शिक्षा प्रणाली का एक हिस्सा है। शिक्षा पद्धति की वास्तविक स्थिति यह है कि पूरे वर्ष कक्षा में जो तोता रटंत पढ़ाई होती है, उसी का परीक्षण परीक्षाओं में होता है। छात्र को केवल तीन घंटे में पूरे वर्ष के अध्ययन का प्रतिबिंब पूछे गए प्रश्नों के माध्यम से प्रस्तुत करना होता है। पूरे वर्ष की पढ़ाई को मात्र तीन घंटे में हल करने, ऊपर से मां-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने के दबाव में फंसा बच्चा आत्मघात को मजबूर हो रहा है।
पिछले वर्ष दिल्ली में हुए एक शैक्षिक अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि परीक्षाओं के बीच बच्चों पर इतना अधिक मानसिक दबाव बढ़ा कि आत्महत्या के लगभग 300 प्रयास किए गए। यह निष्कर्ष भी सामने आया है कि जो बच्चे परीक्षा या अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे, उनमें से लगभग 70 फीसदी मानसिक दबाव के शिकार पाए गए। जाहिर है, दोष इस शिक्षा प्रणाली में ही है।
शोध यह भी बताते हैं कि इस मानसिक दबाव के लिए परिवार और समाज का प्रतिस्पर्द्धी माहौल भी कम जिम्मेदार नहीं है। सामाजिक ढांचे में आ रहे सतत बिखराव, संयुक्त परिवार का विखंडन, नगरों में मां-बाप, दोनों का नौकरीपेशा होने जैसे कारणों से बच्चे लगातार उपेक्षित हो रहे हैं। पहले के संयुक्त परिवारों में दादा, दादी, नाना, नानी व परिवार के अन्य बड़े सदस्य ऐसे बाहरी दबाव को झेलने में बच्चों के लिए शॉक एब्जॉर्वरका काम करते थे। लेकिन आज के एकल परिवार बच्चों के बीच पनप रहे मानसिक दबाव के इस मनोविज्ञान को संभालने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। बच्चे यदि परीक्षा में बेहतर नहीं कर पाते, तो मां-बाप उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगते हैं। उनकी यही उपेक्षा धीरे-धीरे बच्चों को गहरे अवसाद में ले जाती है। उसके मन में यह ग्रंथि पनप रही है कि सामान्य अथवा प्रतियोगी परीक्षा में कम अंक रह जाने के हालात को न समझकर मां-बाप उसकी अल्प सफलता पर उसे प्रताड़ित ही करेंगे। सही मायने में परिवार और समाज में बच्चों से निरंतर संवाद का अभाव उन्हें वह मार्ग प्रदान नहीं कर रहा है, जिस पर चलकर वे संवाद के जरिये अपना दबाव कम कर सकें।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बच्चों का स्वाभाविक व्यक्तित्व पाठ्यक्रम के बोझ तले खोता जा रहा है। साप्ताहिक, अर्द्ध मासिक और मासिक परीक्षणों का बोझ न तो बच्चों को और न ही अभिभावकों को चैन लेने दे रहा है। स्कूल और घर में धीरे-धीरे एक आक्रोश पैठ बना रहा है। इसे न तो शिक्षा व्यवस्था के नीति-नियंता समझ रहे हैं और न ही अभिभावक। जहां तक शिक्षक का प्रश्न है, तो इस शिक्षा प्रणाली में वह रोजगार की मजबूरी में एक वेतनभोगी व्यक्ति तथा छात्र इस व्यवस्था का एक उपभोक्ता बन रहा है, जहां आपसी संवाद की प्रक्रिया संवेदनशू्न्यता के बीच दम तोड़ रही है। आज शिक्षाविदों, योजनाकारों और पाठ्यक्रम निर्माताओं के सामने यक्ष प्रश्न है कि आखिर बच्चों के दम पर चलने वाली संपूर्ण शिक्षा प्रणाली में बच्चे ही इतने उपेक्षित क्यों हो रहे हैं।

संसद में अटक गए सिब्बल के अहम शिक्षा सुधार


 लगभग दो साल पहले फिर से बनी संप्रग की सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री बनने के बाद कपिल सिब्बल ने उच्च शिक्षा में सुधारों के लिए चाहे जितना शोर मचाया हो, लेकिन अब तक वे बेमायने ही साबित हुए हैं। शिक्षा का अधिकार कानून को छोड़ दें तो बाकी लगभग आधा दर्जन विधेयक अभी भी संसद में भी लटके पड़े हैं, जबकि कई तो वहां पेश भी नहीं हो पाए हैं। इस बार बजट सत्र में भी एक भी विधेयक संसद में पारित न होना शिक्षा में सुधार के एजेंडों को बड़ा झटका है। जब कपिल सिब्बल मानव संसाधन विकास मंत्री बने थे तो शिक्षा में सुधारों की इतनी बात हुई कि लगा ऊंची तालीम का पूरा ढांचा ही बदल जाएगा। अब लगभग दो साल होने को हैं और विदेशी विश्वविद्यालय (प्रवेश, नियमन एवं संचालन) विधेयक, विश्वविद्यालयों, कालेजों में कदाचार रोकने संबंधी विधेयक, उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए अनिवार्य मान्यता संबंधी विधेयक, शैक्षिक न्यायाधिकरण विधेयक, राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (संशोधन) विधेयक और शिक्षा का अधिकार (संशोधन) विधेयक अभी संसद में ही लटके पड़े हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (संशोधन) विधेयक भी लंबित ही है|

Monday, March 28, 2011

११ वीं,१२वीं में मास मीडिया स्टडीज


विफलताओं से उपजा पलायन


एक भारतीय छात्रा की हत्या के बाद फिर से आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों की सुरक्षा और आस्ट्रेलियाई प्रशासन की कार्यपण्राली पर सवाल उठने लगे हैं। लम्बे अंतराल के बाद हुए इस हमले में अभी तक किसी आस्ट्रेलियाई मूल के छात्र की संलिप्तता पता नहीं चली है फिर भी भारतीय छात्रों पर रह-रह कर होते हमले जहां आस्ट्रेलियाई समाज में तेजी से बढ़ती आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं को दर्शाते हैं वहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था की कमियों और कमजोरियों को भी उजागर करते हैं। उच्च शिक्षा के लिए आस्ट्रेलिया ही नहीं, सिंगापुर, हांगकांग, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, चीन और कई यूरोपीय एवं पूर्व सोवियत देशों की ओर भारतीय छात्रों का पलायन हमारी शिक्षा व्यवस्था और वर्तमान शिक्षा सुधारों पर बड़ा प्रश्न चिह्न है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था के विकास की यदि बात की जाए व उसकी तुलना एशियाई विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के साथ करें तो भी स्थिति बिल्कुल संतोषजनक नहीं कही जा सकती है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार जहां देश की केवल 65.47 प्रतिशत आबादी साक्षर थी वहीं चीन में साक्षरता की यह दर 84.1, इंडानेशिया में 87.3 और थाईलैंड में 95.7 थी। 1,68,000 महाविद्यालयों, 20 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, 227 राज्य विश्वविद्यालयों, 109 डीम्ड विश्वविद्यालयों और 13 राष्ट्रीय स्तरीय संस्थानों के साथ उच्च शिक्षा की स्थिति कहीं ज्यादा दयनीय है। भारत में केवल 10 प्रतिशत युवा ही उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं और यह आंकड़ा विकसित दुनिया के आधे से कम और पड़ोसी चीन के 15 प्रतिशत से भी बेहद कम है। आई.आई.टी. और आई.आई.एम. सरीखी शिक्षा की प्रतियोगी परीक्षाओं में छह लाख से अधिक प्रतियोगी हिस्सा लेते हैं जिनमें से कामयाब होकर उच्च शिक्षा पाने का अवसर महज एक से डेढ़ प्रतिशत भाग्यशाली युवाओं को ही होता है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था की इस बदहाली का एक बेहद दिलचस्प पहलू यह है कि भारतीय आई.आई.टी. में दाखिला लेना हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दाखिला पाने से 10 गुणा मुश्किल काम है और यह कोई शिक्षा के निर्धारित उच्च मानकों के कारण नहीं, संस्थानों की कम संख्या का परिणाम है। पिछले दिनों उच्च शिक्षा की स्थिति पर प्रकाशित लंदन टाइम्स की एक रिपोर्ट भी हमारी शिक्षा व्यवस्था की दुर्गति को उजागर करती है जिसके अनुसार उच्च शिक्षा के दुनिया के शीर्ष दो सौ संस्थानों में जहां महज एक ही भारतीय संस्थान शामिल है, वहीं चीन, हांगकांग, साउथ कोरिया के तीन-तीन विश्वविद्यालय इस श्रेणी में शामिल हैं। उच्च शिक्षा के स्तर में सुधार की जरूरतों को समझते हुए हम लगातार उच्च शिक्षा के संस्थानों के निर्माण की बात करते हैं परंतु इन पर बातें ही अधिक हो रही हैं। भारत में 8 आई.आई.टी., 7 आई.आई.एम. और 5 भारतीय विज्ञान संस्थानों की स्थापना का प्रश्न लम्बे समय से लम्बित है पर अभी तक मामला केवल केंद्रीय मंत्रिमंडल तक पहुंचा है, दूसरी तरफ मैकेंजी के एक सूत्र के अनुसार चीन आई.आई.टी. स्तर के सौ संस्थानों के निर्माण का काम शुरू भी कर चुका है। ध्यान रहे कि चीन दुनिया के एक बड़े एजूकेशन हब की तरह विकसित हो रहा है और आज भी वहां दो लाख से अधिक विदेशी छात्र शिक्षा पाते हैं। वहीं उच्च शिक्षा संस्थानों की कमी के कारण ही बड़ी संख्या में भारतीय छात्र विदेशों में उच्च शिक्षा के मौके तलाशने के लिए विवश होते हैं। विदेशों में शिक्षारत इन छात्रों पर इनके व परिवार द्वारा किया जाने वाला खर्च एक अनुमान के अनुसार 45 हजार करोड़ रुपये सालाना है। यह राशि भारतीय विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के वार्षिक खर्च से पंद्रह गुना से भी अधिक है और भारतीय छात्रों के अभिभावकों के गाढ़े खून- पसीने से कमाई गई इस पूंजी को अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, दुबई, हांगकांग, मलेशिया व आस्ट्रेलिया जैसे देशों के शिक्षा व्यवसायी लूट रहे हैं। उदारवाद के बदलते हुए परिवेश में इस शिक्षा व्यवसाय की लूट और अपनी विफलताओं से अनजान भारतीय मध्यम वर्ग सामाजिक सुरक्षा और रोजगार के खतरों की कठिन चुनौतियों को झेलते हुए भी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इस नए कथित विकास के साथ कदमताल करने की कोशिश कर रहा है। विकास की इस कदमताल में वह कल के सुनहरे सपने बुनकर अपने बच्चों को पढ़ने विदेश तो भेज देता है परंतु अपने आप को नए जनवादी राज परिवारों के जैसा समर्थ और आत्मनिर्भर नहीं पाता जिससे उसके बच्चे अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए दूसरे देशों में जाकर अंशकालिक कामों का सहारा लेते हैं। कैजुअल कामगारों के बड़े ठिकाने आस्ट्रेलिया में अंशकालिक कामों के लिए आस्ट्रेलियावासी गरीब युवाओं और भारतीय छात्रों के बीच बढ़ती प्रतिद्वंद्विता हमारे छात्रों पर लगातार होते हमलों का मुख्य कारण है। बेशक हमारे नीति निर्माता सकल घरेलू उत्पाद की तेज वृद्धि दर और क्रांतिकारी शिक्षा सुधारों की लाख बातें करें, मगर वास्तविकता यही है कि एजूकेशन हब बनने की बात तो दूर, हम शिक्षा संस्थानों की आवश्यक संख्या और शिक्षा की गुणवत्ता के मामले में अभी तक अंतराष्ट्रीय मानकों के आस पास भी नहीं हैं। इसी कारण बेहतर भविष्य की तलाश में अपने छात्रों का विदेश में जाना और उनके अभिभावकों की पूंजी को देश से बाहर जाने से रोक पाने में हम पूरी तरह असमर्थ हैं। यदि भारतीय शिक्षा व्यवस्था की स्थिति लगातार ऐसी ही बनी रहती है तो यह तय है कि अंततोगत्वा यह विकास की गति और देश की अर्थव्यवस्था के लिए शुभ संकेत नहीं होगा।


उच्च शिक्षण संस्थाओं में एकल प्रवेश परीक्षा का सुझाव


प्रधानमंत्री के विज्ञान सलाहकार परिषद के प्रमुख सीएनआर राव ने देश के सभी उच्च शिक्षण संस्थाओं में दाखिले के लिए एकल प्रवेश परीक्षा लेने का सुझाव दिया है, ताकि छात्र परीक्षा में उलझने के बजाय रचनात्मक कार्यों से जुड़ सकें। वरिष्ठ वैज्ञानिक राव ने पिछले हफ्ते मानव संसाधन विकास मंत्रालय को लिखे पत्र में कहा है कि हमारे देश में परीक्षा प्रणाली तो है, लेकिन व्यावहारिक शिक्षा प्रणाली का अभाव है। पिछले कई वर्षों से परीक्षाओं पर ज्यादा तवज्जो दी जा रही है और उच्च शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए प्रवेश परीक्षा अहम बन गई है। राव ने कहा कि आइआइटी प्रवेश परीक्षा को युवा इतना अधिक महत्व दे रहे हैं कि अंतत: बड़ी संख्या में छात्रों का शिक्षा के प्रति रुझान घट रहा है। उन्होंने कहा कि इस चलन को देखते हुए विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं के आधार पर एक परीक्षा आयोजित की जानी चाहिए। हालांकि उच्च शिक्षा में सुधार के संबंध में सिफारिश करने वाली मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा गठित समिति के अध्यक्ष रहे प्रो. यशपाल को देश के सभा उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए एकल प्रवेश परीक्षा का सुझाव व्यवहार्य नहीं लगता। प्रो. यशपाल ने कहा कि उच्च शिक्षण संस्थाओं में एक प्रवेश परीक्षा से राव का अभिप्राय क्या है, इस बारे में मुझे मालूम नहीं है, लेकिन यदि उनका अभिप्राय मेडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन, विज्ञान, मानविकी आदि के लिए एक प्रवेश परीक्षा से है तो मुझे नहीं लगता कि यह व्यवहार्य होगा। राव ने अपने पत्र में लिखा है कि कब ऐसा समय आएगा, जब युवा केवल परीक्षा के बारे में सोचना छोड़कर कुछ रचनात्मक करने की दिशा में उन्मुख होंगे। इस दिशा में वर्तमान परीक्षा प्रणाली की समीक्षा की जाने की जरूरत है। उन्होंने लिखा है कि विश्वविद्यालय परीक्षा लेने के बोझ से दबे हुए हैं। कुछ विश्वविद्यालय तो ऐसे हैं, जिनसे कई शिक्षण संस्थाएं संबद्ध हैं। गौरतलब है कि देश में 22 करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे में आते हैं, लेकिन इनमें महज 1.3 करोड़ ही विश्वविद्यालय स्तर तक पहुंच पा रहे हैं। सरकार ने मौजूदा 12 प्रतिशत सकल नामांकन अनुपात को वर्ष 2020 तक बढ़ाकर 20 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया है|

Sunday, March 27, 2011

डिग्री कालेज से महंगी नर्सरी की पढ़ाई


एक बच्चे को नर्सरी कराने से कहीं आसान है चार बच्चों को डिग्री दिलाना। सहज आपको भी यकीन नहीं आएगा, लेकिन यह सोलह आने सच है। नर्सरी में एक बच्चे का साल भर का खर्च 50 हजार से अधिक बैठ रहा है, जबकि मास्टर डिग्री का सिर्फ 11 हजार रुपये। आजकल राजधानी के स्कूलों में प्रवेश चल रहे हैं। फीस से लेकर तमाम मदों में दी जाने वाली राशि सुनकर किसी के भी होश उड़ सकते हैं। राजधानी में चार तरह के स्कूल हैं, इनमें दो-दो कमरों के घरों में चल रहे गली मोहल्ले के स्कूल, मध्यम स्तर के स्कूल, पुराने और प्रतिष्ठित कहे जाने वाले स्कूल तथा बड़ी कंपनियों के ब्रांडेड प्ले स्कूल। एलकेजी में प्रवेश के लिए इन स्कूलों में प्रवेश शुल्क, ट्यूशन फीस, सिक्यूरिटी मनी, विकास शुल्क, किताबें, यूनीफार्म आदि का सालाना खर्च 20 हजार से लेकर 80 हजार रुपये तक है। वही, केंद्रीय विवि, राज्य सरकार के विवि और डीम्ड विश्वविद्यालयों में सामान्य विषय में स्नातकोत्तर डिग्री करने के लिए सालाना खर्च सात हजार रुपये से लेकर 15 हजार रुपये के बीच है। इस बारे में बात करने पर महाविद्यालय के प्रवक्ता और शिक्षक नेता डॉ. डीके त्यागी ने कहा, निजी स्कूलों की मनमानी जगजाहिर है, लेकिन इनकी ओर देखने की हिम्मत न प्रशासन जुटा पा रहा है और न ही शिक्षा विभाग, ऐसे में आम आदमी को ही पिसना पड़ता है। यह हकीकत डरावनी है और आम आदमी को बेहतर शिक्षा के दावे की पोल खोलने के लिए भी काफी है।


Saturday, March 26, 2011

उच्च शिक्षा की स्थिति जानेगी सरकार


सिब्बल से टकराए सैम पित्रोदा


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह शिक्षा क्षेत्र में कामकाज को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल की तारीफ करने में भले ही न चूकते हों, लेकिन उनके एक सलाहकार सैम पित्रोदा ने उच्च शिक्षा में अब तक के प्रयासों पर सवाल उठा दिया है। पित्रोदा ने कहा कि सुधारों की बात सिर्फ बहस तक सीमित है, जबकि जरूरत उस पर अमल की है। उन्होंने उच्च शिक्षा की हकीकत जानने के लिए सर्वे की जरूरत को भी यह कहकर खारिज कर दिया कि इससे सुधारों में और देरी होगी। नवोन्वेषण, बुनियादी ढांचा और जन सूचना मामलों पर प्रधानमंत्री के सलाहकार सैम पित्रोदा शुक्रवार को यहां केंद्रीय व राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के सम्मेलन में मानव संसाधन विकास मंत्रालय के कामकाज पर बोल रहे थे। उन्होंने दो टूक कहा, उच्च शिक्षा की हकीकत जानने के लिए कतई सर्वेक्षण की जरूरत नहीं है। इससे सुधारों के अमल में और देरी होगी। मंत्रालय के इस फैसले से वह हैरान हैं। उन्होंने कहा कि देश में विचारों की कमी नहीं है। ज्यादा नहीं तो 80 फीसदी तो है ही और उस पर काम की जरूरत है। कार्रवाई न करना भी एक अपराध है। वक्त आ गया है कि काम हो। देश भर के विश्वविद्यालयों के कुलपति सम्मेलन में मौजूद हैं। उनकी राय यहां ली जा सकती है। पित्रोदा इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने कुलपतियों को खुद एक प्रश्नावली भी दी और कहा कि उस पर वे अपनी राय मंत्रालय को भेज सकते हैं। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष के रूप में पित्रोदा ने शिक्षा क्षेत्र में सुधारों के लिए 4-5 वर्ष पहले कई सिफारिशें की थीं। पित्रोदा ने कहा कि आयोग की इन कोशिशों के बाद भी अब तक कोई काम नहीं हो पाया है। सिर्फ विचार-विमर्श ही चल रहा है, जबकि जरूरत उस पर अमल की है। सम्मेलन की शुरुआत में कपिल सिब्बल ने कहा कि कुलपतियों व शिक्षकों के कामकाज भी मूल्यांकन होना चाहिए और यह काम छात्र कर सकते हैं। उन्होंने कुलपतियों की नियुक्ति में राजनीतिक दखलंदाजी का भी सवाल उठाया। कहा, इस रास्ते से भविष्य बेहतर नहीं बन सकता, इसलिए इसे हर हाल में बंद होना चाहिए। उन्होंने पाठ्यचर्या व शिक्षा की रूपरेखा को लेकर शिक्षकों के धरना-प्रदर्शन पर उतरने के लिए कड़ी नाराजगी जताई। कहा दुनिया के किसी भी देश में ऐसा नहीं होता। शिक्षकों को कोई दिक्कत हो तो उस पर बात करनी चाहिए|

Thursday, March 24, 2011

अब पीछे नहीं रहेगा बिहार


शिक्षा, सेहत व अन्य सुविधाओं में जब पिछड़े राज्यों की बात चलती है तब सबसे पहले बिहार का नाम लेने में कोई भी पीछे नहीं रहता। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि यदि हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट की मानें तो बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है जहां के 70,000 सरकारी प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में तमाम जानकारियां ऑनलाइन कर दी गई हैं। यह काम नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजूकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिशट्रेशन ऑन एलिमेंट्री एजूकेशन (एन.यू.ई.पी.ए.ई.ई.) के तहत चलाई गई परियोजना की सहायता से पूरा हुआ है। बिहार के तमाम गांव, जिलों आदि में चल रहे विभिन्न सरकारी स्कूलों के बारे में बुनियादी जानकारियां 'स्कूल रिपोर्ट कॉर्ड्स' नाम की वेबसाइट में देखी जा सकती हैं। इस साइट पर स्कूल से जुड़ी हर तरह की सूचना मिलेगी। मसलन कितने स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय, ब्लैक बोर्ड, अध्यापक, भवन आदि हैं। राज्य सरकार की इस कोशिश एवं प्रयत्न से अन्य राज्य सरकारों को सीख लेनी चाहिए कि वे भी अपने राज्यों में किस तरह से शिक्षा के अधिकार कानून को अमली जामा पहनाने में मदद कर सकते हैं। राज्य सरकार द्वारा संचालित 70,000 प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में एक स्थान पर तमाम सूचनाएं उपलब्ध कराना कोई आसान काम नहीं है। उस पर भी वहां जहां पिछले कई सालों से शिक्षा दिन-प्रतिदिन बद से बदतर होती मानी जा रही थी लेकिन यह वही राज्य है जिसने साबित कर दिया कि यदि जज्बा हो तो पुरानी इमारत को दुरुस्त किया जा सकता है। लेकिन शर्त यह है कि हमें इसके लिए प्रतिबद्ध होना होगा वरना शिक्षा में न केवल बिहार, बल्कि अमूमन देश के अन्य राज्यों में भी गिरावट साफ देखी जा सकती है। गौरतलब है कि बिहार में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय कभी विश्व प्रसिद्ध ज्ञान केंद्रों में गिना जाता था। लेकिन समय के साथ यह विश्वविद्यालय अपनी चमक खोता चला गया। अब, नोबल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन एवं राज्य व केंद्र सरकारों के अथक प्रयासों के चलते एक बार फिर नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित किया जा रहा है। इस काम में नेशनल नॉलेज कमीशन की भी भूमिका सराहनीय मानी जा सकती है। शिक्षा की दशा-दिशा किसी भी समाज, राज्य व देश की प्रगति को टटोलने में खासा मदद करती है। जिस भी समाज में लोग अधिक से अधिक शिक्षित होंगे वहां की जनचेतना उतनी ही विकसित और सृजनात्मक होगी। यह स्थापित बात है कि जनता शिक्षित हो तो वह अपने एवं समाज के विकास में बेहतर योगादान कर सकती है। कभी समय था जब बिहार शिक्षा के लिए जाना जाता था। लेकिन '80 के दशक से इसमें धीरे-धीरे गिरावट दर्ज की जाने लगी। शिक्षा की गिरती साख को बचाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति भी कमजोर पड़ती चली गई। हालांकि यदि सरकार चाहे तो किसी भी सूरत में शिक्षा ही नहीं, कानून-व्यवस्था तक को सुचारु रूप से चला सकती है लेकिन जब किसी राज्य की राजनीतिक इच्छाशक्ति सम्बंधित व्यक्ति की महज हैसियत बढ़ाने और समाज को विभिन्न मुद्दों पर बरगलाने में लगी हो तो ऐसी सरकार से किस तरह की प्रगति की उम्मीद की जा सकती है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र, सत्येंद्र प्रसाद और भगवत झा आजाद के मुख्यमंत्रित्वकाल में शिक्षा की उतनी दयनीय स्थिति नहीं थी जितनी लालू प्रसाद व राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्वकाल में हुई। '90 के दशक में बिहार का भाग्य नए ढंग से लिखा जाने लगा। इस काल में महज लूटपाट, चोरी-चमारी, घोटालों एवं रिश्वतखोरी को खूब हवा मिली। इन सरकारों का लक्ष्य केवल स्व उन्नति एवं स्वहित साधन तक ही केंद्रित था। इसके चलते समाज एवं वहां की जनता की बुनियादी जरूरतों को दरकिनार किया गया। बिहार में शिक्षा का मतलब 'नकल से उपजी प्रतिभा' जैसा कलंक हो गया और लोगों के माथे पर लगने लगा। उस दौर में यदि किसी ने 80 फीसद अंक प्राप्त किया तो उसे संदेह एवं शंका की नजर से देखा जाना बेहद ही आम बात थी। इससे चाहे बोलचाल में हो, या कार्यालयी स्तर पर, हर जगह बिहार से पढ़कर आने वाले छात्रों को भेदपूर्ण नजर का सामना करना पड़ता था। लेकिन पिछले पांच सालों में नीतीश सरकार की नजर शिक्षा को दुरुस्त करने पर गई और समय के साथ इस सरकार की कोशिश एवं प्रयासों के परिणाम सामने आने लगे। स्कूलों में बच्चियों को साइकिल बांटा जाना एक तरह से शिक्षा व स्कूल को घर के दरवाजे पर ला खड़ा करना ही था। गांव, कस्बे व छोटे शहरों में स्कूल जाने में लड़कियों को किस तरह की नजरों, अवरोधों का सामना करना पड़ता है।

Tuesday, March 22, 2011

शिक्षा व्यवस्था पर उठे सवाल


खुद की डिग्री दे सकेंगे जाने-माने कॉलेज


 बेहतरीन पढ़ाई और शोध के मामलों में उच्च शिक्षा में अपनी पहचान बना चुके संस्थानों का रुतबा और बुलंद हो सकता है। उन्हें अपने छात्रों को खुद डिग्री देने की छूट मिल सकती है। सरकार इसके लिए अलग से कानून बनाएगी। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक देश के उन जाने-माने कॉलेजों को अपने छात्रों को पढ़ाई पूरी करने के बाद खुद ही डिग्री देने की छूट के बारे में सैद्धांतिक रूप से फैसला हो चुका है। यह कैसे होगा? उसके लिए एक कमेटी भी बना दी गई है। बताते हैं कि इसके लिए उन कॉलेजों में पढ़ाई-लिखाई के इतिहास को उस रूप में परखा जाएगा कि शिक्षा के क्षेत्र में कई वर्षो का उनका रिकार्ड कैसा रहा है। साथ ही उन्हें नेशनल असेसमेंट एंड एक्रीडिटेशन कौंसिल में कम से कम ए श्रेणी में पंजीयन जरूरी होगा। ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट स्तर के कालेजों को उनकी काबिलियत के लिहाज से डिग्री देने की छूट होगी। उस स्थिति में उन्हें किसी विश्वविद्यालय से संबद्धता की जरूरत नहीं होगी। इसी तरह अनुसंधान के मामलों भी अपनी अलग पहचान रखने वाले संस्थानों को भी यह छूट दी जाएगी। उनके मामले में भी कई तरह की पड़ताल होगी और मानकों पर खरे होने पर उन्हें भी यह मौका दिया जा सकता है। अभी विश्वविद्यालयों या फिर डीम्ड विश्वविद्यालयों को ही डिग्री देने का अधिकार है। सूत्रों ने बताया कि इसके लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम में संशोधन करना होगा, जबकि जिन कॉलेजों की डिग्री की छूट होगी, उनके लिए अलग से विधेयक लाया जाएगा|

Tuesday, March 15, 2011

संयुक्त प्रवेश परीक्षा से एमसीआइ ने खड़े किए हाथ


मेडिकल में दाखिला पाने के इच्छुक छात्रों की मुश्किलें इस साल कम नहीं होगी। न ही पीजी में प्रवेश चाहने वाले एमबीबीएस डॉक्टरों की परेशानी में कोई कमी आएगी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआइ) ने एमबीबीएस और पीजी कोर्स के लिए इसी साल से संयुक्त प्रवेश परीक्षा शुरू करने से हाथ खड़े कर दिए हैं। एमसीआइ के संचालक मंडल की सदस्य सीता नायक ने दैनिक जागरण से बातचीत में साफ तौर पर माना कि इस संयुक्त प्रवेश सह पात्रता परीक्षा को इसी सत्र से शुरू नहीं किया जा सकता। काफी विचार-विमर्श के बाद यह पाया गया है कि व्यावहारिक रूप से यह मुमकिन नहीं होगा। मेडिकल के पीजी पाठ्यक्रमों के लिए पहले ही प्रवेश परीक्षा हो चुकी है। बैचलर कोर्स के लिए भी न सिर्फ तारीखों की घोषणा हो चुकी है, बल्कि छात्रों को प्रवेश पत्र तक जारी हो चुके हैं। अब इतनी जल्दबाजी में नई व्यवस्था लागू करना छात्रों के लिए परेशानी कम करने के बजाय बढ़ाने वाला होगा। अब एमसीआइ को अपनी असमर्थता सुप्रीम कोर्ट के सामने भी रखनी होगी। छात्रों और एमसीआइ की अपील पर ही सुप्रीम कोर्ट ने 7 मार्च को अपने फैसले में इसी साल से यह परीक्षा आयोजित करने की बात कही थी। इस बारे में पूछे जाने पर सीता नायक कहती हैं कि कोर्ट ने इसे लागू करने का आदेश नहीं दिया था, बल्कि कहा था कि इसे लागू किए जाने से रोका नहीं जा सकता। इस मामले में एमसीआइ की पैरवी कर रहे सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अमरेंद्र सरन कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट में अब एक मई को इस मामले की सुनवाई होनी है। तब हमें अदालत के सामने सारी स्थिति रखनी होगी। सूत्रों के मुताबिक इस मामले पर एमसीआइ के संचालक मंडल के सदस्यों के साथ स्वास्थ्य मंत्रालय की बैठक भी हो चुकी है। मंत्रालय ने भी इस बारे में यही राय रखी है। एमसीआइ ने इस परीक्षा का प्रस्ताव इसलिए किया था, ताकि न सिर्फ छात्रों को एक ही सत्र में एक दर्जन से ज्यादा अलग-अलग परीक्षा देने के झमेले से छुट्टी मिल सके, बल्कि दाखिले में होने वाले भारी फर्जीवाड़े पर भी काफी हद तक अंकुश लग सके। सुप्रीम कोर्ट ने कई राज्य सरकारों और निजी कॉलेजों के एतराज के बावजूद इसे मंजूरी दी है|

Monday, March 14, 2011

बुंदेलखंड के हर जिले में होगा सेंट्रल स्कूल


 केंद्र सरकार का प्रयास रंग लाया तो बंुदेलखंड के हर जिले में सेंट्रल स्कूल खुलेगा। इनके खुलने से बुंदेलखंड क्षेत्र के बच्चों को सस्ती व गुणवत्तापरक शिक्षा मिल सकेगी। इन विद्यालयों को सिविल क्षेत्र में खोलने के लिए जिलाधिकारियों से भूमि का प्रस्ताव मांगा गया है। सेंट्रल स्कूल की तीन श्रेणियां होती हैं। डिफेंस क्षेत्र, किसी बड़ी परियोजना परिसर या शहरी इलाकों में खुलने वाले सिविल श्रेणी के स्कूल। केंद्रीय विद्यालय के क्षेत्रीय कमिश्नर कार्यालय, अलीगंज के एक अधिकारी बताते हैं कि सर्व शिक्षा अभियान शुरु होने के बाद केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने सेंट्रल स्कूलों के विस्तार की योजना तैयार की है। इसके अनुसार बुंदेलखंड के हर जिले में सेंट्रल स्कूल खोले जाएंगे। जिलों में केंद्रीय कर्मचारियों की खासी संख्या है जिन्हें सेंट्रल स्कूल खुलने पर विशेष रूप से राहत मिलेगी। राज्य में इस वक्त 35 जिलों में केंद्रीय विद्यालय संचालित हो रहे हैं। जिन जिलों में केंद्रीय विद्यालय नहीं हैं वहां भी सिविल श्रेणी के केंद्रीय विद्यालय खोलने की योजना है। सिविल क्षेत्र के सेंट्रल स्कूल की प्रबंध समिति का अध्यक्ष जिलाधिकारी होता है। संबंधित जिलाधिकारियों को कम से कम दस एकड़ भूमि चिन्हित कर विद्यालय से जुड़ा प्रस्ताव भेजने को कहा गया है। सभी जिलों से प्रस्ताव मिलने के बाद इसे केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय भेज दिया जाएगा। यहां से निर्देश मिलने के बाद आगे की कार्रवाई शुरु होगी। इटावा व श्रावस्ती समेत कई जिलों में भी सेंट्रल स्कूल खोलने के लिए भूमि से जुड़ा जिलाधिकारी का प्रस्ताव प्राप्त हो चुका है। इन स्कूलों में प्रवेश केंद्रीय विद्यालयों के लिए बने मानकों के अनुसार ही होगा। गौरतलब है कि बुंदेलखंड का पिछड़ापन दूर करने के लिए कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने विशेष तौर पर सक्रियता दिखाई है। विकास परियोजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर केंद्र और राज्य सरकार में तनातनी भी देखी गई है। राज्य में अगले साल चुनाव को लेकर सभी दलों की सक्रियता भी बढ़ गई है। खासकर कांग्रेस ने हर इलाके में केंद्रीय योजनाओं पर खासा जोर देना शुरू कर दिया है|

Wednesday, March 9, 2011

शिक्षित विकलांगों का ब्राइट फ्यूचर


शिक्षित एवं उच्च शिक्षित विकलांगों के लिए कई प्रकार की निजी एवं सरकारी नौकरियां उपलब्ध हैं, जिनमें नौकरी पाकर वे अपना जीवन संवार सकते हैं
वित्त-लेखा एवं ऑडिट विभाग
इन विभागों में व्यावसायिक और वित्तीय विभाग के लेखा रजिस्टर एवं रिकॉर्ड आदि को तैयार करना और उनका रख-रखाव किया जाता है। निजी, सरकारी, अर्धसरकारी विभागों में विकलांग व्यक्ति एकाउंटेंट से लेकर फाइनेंस मैनेजर तक के पद पर कार्य कर सकते हैं। यहां उन्हें एक ओर अपने अधीनस्थ कर्मचारी, जैसे लेखा लिपिकों आदि के काम की देखरेख करनी होती है तो दूसरी ओर बिलों, प्राप्तियों, भुगतानों, कैश-बुक, लेजर, टैक्स, लाइंसेंस फीस आदि की जांच करनी पड़ती है। ऑडिट से सम्बद्ध अधिकारियों को निजी प्रतिष्ठानों, सरकारी व अर्ध सरकारी संस्थानों के लेखा संबंधी रिकॉर्ड जांचने होते हैं। इन पदों में प्रवेश के लिए वाणिज्य में स्नातक होना आवश्यक होता है और चार्टर्ड एकाउंटेंट या कास्ट एकाउंटेंट भी होना चाहिए। कई स्थानों पर एमबीए (फाइनेंस) की डिग्री से भी काम चल जाता है। इस प्रकार के पद सरकारी विभागों या सार्वजनिक क्षेत्रो में लिखित परीक्षा और साक्षात्कार द्वारा भरे जाते हैं। ऐसे पद बड़ी संख्या में हर वर्ष निकलते हैं और प्रत्याशियों को अपने विषयों के अलावा सामान्य ज्ञान तथा हिन्दी-अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान होना चाहिए। इस प्रकार की नौकरियां सरकारी विभागों व सार्वजनिक क्षेत्रों के अलावा बैंकों और बीमा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निकलती हैं। बैंक और बीमा क्षेत्र का अभी और अधिक विस्तार होना है। नौकरी मिलने के बाद पदोन्नति आदि की अच्छी गुंजाइश है। अत: विकलांग व्यक्तियों खासतौर से छात्रों को अपना लक्ष्य निर्धारित करके तैयारी पहले से ही प्रारंभ कर देनी चाहिए।