Thursday, March 24, 2011

अब पीछे नहीं रहेगा बिहार


शिक्षा, सेहत व अन्य सुविधाओं में जब पिछड़े राज्यों की बात चलती है तब सबसे पहले बिहार का नाम लेने में कोई भी पीछे नहीं रहता। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि यदि हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट की मानें तो बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है जहां के 70,000 सरकारी प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में तमाम जानकारियां ऑनलाइन कर दी गई हैं। यह काम नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजूकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिशट्रेशन ऑन एलिमेंट्री एजूकेशन (एन.यू.ई.पी.ए.ई.ई.) के तहत चलाई गई परियोजना की सहायता से पूरा हुआ है। बिहार के तमाम गांव, जिलों आदि में चल रहे विभिन्न सरकारी स्कूलों के बारे में बुनियादी जानकारियां 'स्कूल रिपोर्ट कॉर्ड्स' नाम की वेबसाइट में देखी जा सकती हैं। इस साइट पर स्कूल से जुड़ी हर तरह की सूचना मिलेगी। मसलन कितने स्कूलों में बच्चों के लिए शौचालय, ब्लैक बोर्ड, अध्यापक, भवन आदि हैं। राज्य सरकार की इस कोशिश एवं प्रयत्न से अन्य राज्य सरकारों को सीख लेनी चाहिए कि वे भी अपने राज्यों में किस तरह से शिक्षा के अधिकार कानून को अमली जामा पहनाने में मदद कर सकते हैं। राज्य सरकार द्वारा संचालित 70,000 प्राथमिक एवं उच्च विद्यालयों के बारे में एक स्थान पर तमाम सूचनाएं उपलब्ध कराना कोई आसान काम नहीं है। उस पर भी वहां जहां पिछले कई सालों से शिक्षा दिन-प्रतिदिन बद से बदतर होती मानी जा रही थी लेकिन यह वही राज्य है जिसने साबित कर दिया कि यदि जज्बा हो तो पुरानी इमारत को दुरुस्त किया जा सकता है। लेकिन शर्त यह है कि हमें इसके लिए प्रतिबद्ध होना होगा वरना शिक्षा में न केवल बिहार, बल्कि अमूमन देश के अन्य राज्यों में भी गिरावट साफ देखी जा सकती है। गौरतलब है कि बिहार में स्थित नालंदा विश्वविद्यालय कभी विश्व प्रसिद्ध ज्ञान केंद्रों में गिना जाता था। लेकिन समय के साथ यह विश्वविद्यालय अपनी चमक खोता चला गया। अब, नोबल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन एवं राज्य व केंद्र सरकारों के अथक प्रयासों के चलते एक बार फिर नालंदा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित किया जा रहा है। इस काम में नेशनल नॉलेज कमीशन की भी भूमिका सराहनीय मानी जा सकती है। शिक्षा की दशा-दिशा किसी भी समाज, राज्य व देश की प्रगति को टटोलने में खासा मदद करती है। जिस भी समाज में लोग अधिक से अधिक शिक्षित होंगे वहां की जनचेतना उतनी ही विकसित और सृजनात्मक होगी। यह स्थापित बात है कि जनता शिक्षित हो तो वह अपने एवं समाज के विकास में बेहतर योगादान कर सकती है। कभी समय था जब बिहार शिक्षा के लिए जाना जाता था। लेकिन '80 के दशक से इसमें धीरे-धीरे गिरावट दर्ज की जाने लगी। शिक्षा की गिरती साख को बचाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति भी कमजोर पड़ती चली गई। हालांकि यदि सरकार चाहे तो किसी भी सूरत में शिक्षा ही नहीं, कानून-व्यवस्था तक को सुचारु रूप से चला सकती है लेकिन जब किसी राज्य की राजनीतिक इच्छाशक्ति सम्बंधित व्यक्ति की महज हैसियत बढ़ाने और समाज को विभिन्न मुद्दों पर बरगलाने में लगी हो तो ऐसी सरकार से किस तरह की प्रगति की उम्मीद की जा सकती है। बिहार में जगन्नाथ मिश्र, सत्येंद्र प्रसाद और भगवत झा आजाद के मुख्यमंत्रित्वकाल में शिक्षा की उतनी दयनीय स्थिति नहीं थी जितनी लालू प्रसाद व राबड़ी देवी के मुख्यमंत्रित्वकाल में हुई। '90 के दशक में बिहार का भाग्य नए ढंग से लिखा जाने लगा। इस काल में महज लूटपाट, चोरी-चमारी, घोटालों एवं रिश्वतखोरी को खूब हवा मिली। इन सरकारों का लक्ष्य केवल स्व उन्नति एवं स्वहित साधन तक ही केंद्रित था। इसके चलते समाज एवं वहां की जनता की बुनियादी जरूरतों को दरकिनार किया गया। बिहार में शिक्षा का मतलब 'नकल से उपजी प्रतिभा' जैसा कलंक हो गया और लोगों के माथे पर लगने लगा। उस दौर में यदि किसी ने 80 फीसद अंक प्राप्त किया तो उसे संदेह एवं शंका की नजर से देखा जाना बेहद ही आम बात थी। इससे चाहे बोलचाल में हो, या कार्यालयी स्तर पर, हर जगह बिहार से पढ़कर आने वाले छात्रों को भेदपूर्ण नजर का सामना करना पड़ता था। लेकिन पिछले पांच सालों में नीतीश सरकार की नजर शिक्षा को दुरुस्त करने पर गई और समय के साथ इस सरकार की कोशिश एवं प्रयासों के परिणाम सामने आने लगे। स्कूलों में बच्चियों को साइकिल बांटा जाना एक तरह से शिक्षा व स्कूल को घर के दरवाजे पर ला खड़ा करना ही था। गांव, कस्बे व छोटे शहरों में स्कूल जाने में लड़कियों को किस तरह की नजरों, अवरोधों का सामना करना पड़ता है।

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