Friday, February 25, 2011

शिक्षा को बड़ी उम्मीद है बजट से


बजट के पहले आशाओं तथा आशंकाओं पर र्चचा स्वाभाविक ही नहीं, कई मायनों में आवश्यक भी है। शिक्षा के क्षेत्र में तो समाज के हर वर्ग की रुचि होती है और इसमें अपेक्षाएं भी सदा बढ़ती रहती हैं। बजट से घोषित नीतियों तथा कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में गतिशीलता तथा गुणवत्तापरक सुधार की आशा की जाती है। शिक्षा के मामले में सबसे पहले सबसे महत्वपूर्ण परियोजना लेंिशक्षा के मूल अधिकार विधेयक का एक अप्रैल 2010 से लागू होना। इसके लिए सबसे बड़ी परियोजना है सर्वशिक्षा अभियान यानी एसएसए। इसके अन्तर्गत प्रारंभिक शिक्षा के लिए पिछले चार वर्षो में 54371 करोड़ रुपये खर्च हुए। इसके सामने अनेक समस्याएं हैं। अध्यापकों की भारी कमी है, स्वीकृत पदों में 20 प्रतिशत से अधिक भरे नहीं गये हैं। स्वीकृत 10.8 लाख और भरे गये 8.8 लाख। यदि नये अधिनियम के अनुसार हर बच्चे को स्कूल लाना तथा वहां रखना है तो इससे कहीं अधिक अध्यापकों की जरूरत है। शिक्षा के जिला सूचना संकलन द्वारा उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 29 प्रतिशत स्कूलों के पास 2009-10 में पक्के भवन नहीं थे। अत: बजट से सबसे महत्वपूर्ण अपेक्षा यही है सभी राज्यों को इतने संसाधन उपलब्ध कराये जाएं कि सभी बच्चों को सही मायने में शिक्षा का मूल अधिकार कौशल प्रशिक्षण के साथ मिल सके। स्कूल पूर्व की शिक्षा व्यवस्था सरकारी स्कूलों में उपलब्ध कराने की व्यवस्था जरूरी है। इसके प्रावधान न होने के कारण सरकारी स्कूल के बच्चे कक्षा एक में आने के पहले ही पब्लिक स्कूलोंके बच्चों से काफी पीछे रह जाते हैं। इस असमानता को दूर करने के लिए आवश्यक संसाधनों का आवंटन राष्ट्र के कर्त्तव्य के रूप में लिया जाना चाहिए। पिछले वर्ष स्कूल ही नहीं विश्वविद्यालयों तथा अन्य उच्च संस्थाओं में गुणवत्ता की कमी पर र्चचा होती रही। अध्यापकों के प्रशिक्षण तथा पुनर्परीक्षण के लिए वर्तमान व्यवस्थाएं नाकाफी हैं। वर्तमान व्यवस्थाएं अपर्याप्त हैं, इसका सटीक प्रमाण है पिछले चार वर्षो में प्रशिक्षण के लिए आवंटित 4000 करोड़ रुपये की धनराशि में केवल 1444 करोड़ यानी 36 प्रतिशत ही खर्च किया जाना। जिस प्रकार जीने के अधिकार में शिक्षा का अधिकार सन्निहित माना गया, उसी तरह शिक्षा पाने के अधिकार में साधन सम्पन्न स्कूल में प्रशिक्षित योग्य शिक्षकों से शिक्षा पाना भी शामिल है। अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था के पुनरावलोकन तथा राज्यों में नियुक्ति प्रक्रिया प्रभावशाली बनाने के लिए भी संसाधनों का आवंटन आवश्यक है। गांवों में ही नहीं, दिल्ली जैसे शहर तक में सरकारी स्कूलों में संसाधनों की कमी पाई जाती है। इसे दूर करने के उपाय तथा समानुपातिक संसाधन भविष्य में आशाजनक परिणाम देंगे। नये स्कूल खुलने जरूरी हैं मगर जो चल रहे हैं उनके सुधार व सही स्वरूप में चलते रहने की व्यवस्था जरूरी है। प्राथमिक शालाओं में सरकारी स्कूलों में समाज के वंचित, दलित तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग से ही अधिकांश बच्चे आते हैं। इन्हें बराबरी के आधार पर खड़ा करने के लिए संसाधन कम नहीं पड़ने चाहिए। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत आवंटन का वादा हर सरकार करती है मगर उसे क्रियान्वित कोई नहीं करता है। राज्य तथा केन्द्र सरकार का शिक्षा पर मिलाजुला खर्च/आवंटन 2000-01 में 82879.2 करोड़ था जो जीडीपी का 3.94 प्रतिशत तथा कुल खर्च का 12.3 प्रतिशत था। 2008-09 में यह 198324.7 करोड़ था जो जीडीपी का 3.40 प्रतिशत तथा कुछ खर्च का 11.6 प्रतिशत था। शिक्षा के मूल अधिकार के क्रियान्वयन के लिए ताकि हर 6-14 वर्ष का बालक- बालिका स्कूल जा सके, एक अनुमान के अनुसार 1.82 लाख करोड़ रुपयों की आवश्यकता होगी। क्या नया बजट इसे ध्यान में रखेगा और जीडीपी के छ: प्रतिशत का लंबित वादा पूरा करने का साहस करेगा? यदि ऐसा नहीं होगा तो भारत के 70-80 प्रतिशत बच्चों को गुणवत्तापरक प्रारंभिक शिक्षा नहीं मिल पायेगी और जब शिक्षा की नींव कमजोर होगी तो समाज में अनेक विषमताएं उभरेंगी। प्रश्न है कि केन्द्रीय विद्यालयों/नवोदय विद्यालयों के संसाधन मानक देश के सभी सरकारी स्कूलों में क्यों नहीं लागू होने चाहिए। कभी न कभी यह समकक्षता लानी ही होगी। उच्च शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में अनेक दबाव बढ़ रहे हैं। इस स्तर पर युवाओं के लिए सीमित अवसर है अत: विदेश जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो अनेक प्रकार की समस्याओं तथा शोषण का आधार बनती है। नये संस्थान सरकार को स्वयं भी खोलने होंगे। इस स्तर पर कौशलों के उच्चस्तरीय प्रशिक्षण नये विभाग तथा गतिशील व्यवस्था पर खर्च करना आवश्यक है। शोध का स्तर चिन्ताजनक है, इस पर अधिक ध्यान देना आवश्यक है। उच्च शिक्षा में नामांकन अगले वर्ष में 14-15 प्रतिशत बढ़ाना ही चाहिए तथा अगली योजना में उसे 25 प्रतिशत तक ले जाने की आधारभूत व्यवस्था प्रारंभ हो जानी चाहिये। शिक्षा व्यवस्था में निर्मलता, कर्त्तव्यनिष्ठा, मूल्यबद्धता जैसे कारक हर तरफ हर व्यक्ति में दिखने चाहिए। मूल्यों की शिक्षा, नैतिकता के अध्ययन केन्द्र तथा आध्यात्मिक विश्वविद्यालय खोलने जैसे नवाचारों के लिये वित्तमंत्री आवश्यक आवंटन कर सकें तो यह सराहनीय कदम होगा।



गरीबों को मुफ्त सीट पर आंसू न बहाएं निजी स्कूल


सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि शिक्षा का अधिकार कानून के तहत निजी शिक्षण संस्थान आर्थिक रूप से कमजोर तकबे (ईडब्लूएस) के छात्रों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित रखने के सरकार के फैसले की शिकायत नहीं कर सकते क्योंकि यह देश के भविष्य की समृद्धि के लिए एक निवेश है। मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडि़या, न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन और स्वतंत्र कुमार की सदस्यता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि आर्थिक रूप से कमजोर तबके के छात्रों को निजी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित करने की सरकार की कोशिशों में कुछ भी गलत नहीं है। निजी शिक्षण संस्थाओं की ओर से दायर कई अपीलों पर सुनवाई के दौरान पीठ ने ये बातें कही। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर निजी स्कूल यह स्थापित करने में कामयाब हो जाएं कि शिक्षा का अधिकार कानून के लागू होने से संवैधानिक सिद्धातों का उल्लंघन हुआ है तो वह इस कानून को अमान्य कर देगा। पीठ ने सवाल किया, अगर निजी स्कूलों में बेहतर शिक्षा दी जाती है तो इसमें छात्रों को 25 फीसदी सीटें देने में गलत क्या है? आज आप देश के लिए एक निवेश कर रहे हैं। बच्चे ही इस देश के भविष्य हैं। क्या अदालत इसमें हस्तक्षेप कर इसे अतार्किक कह सकती है? सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल विकास सिंह की इन दलीलों को दरकिनार कर दिया कि शिक्षा का अधिकार कानून गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों के मौलिक अधिकारों पर प्रहार है। निजी स्कूलों की वकालत करते हुए सिंह ने कहा कि आर्थिक रूप से कमजोर तबके के छात्रों के लिए 25 फीसदी सीटें आरक्षित रखने से मध्य वर्ग एवं अमीर वर्ग के छात्रों को निजी शिक्षण संस्थानों में उनकी सीटों से वंचित होना पड़ा है।

Thursday, February 24, 2011

भेदभाव की चिकित्सा


केंद्र सरकार के अधीन संचालित एवं दिल्ली में स्थित वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज में पिछड़े वर्गो एवं अनुसूचित तबकों के छात्रों के साथ जारी भेदभाव पर संयुक्त समिति की रिपोर्ट में पुष्टि होने के बावजूद व्याप्त मौन पर अब तरह-तरह के सवाल उठने लगे हैं। मालूम हो कि चंद रोज पहले ही मीडिया के एक हिस्से में वीएमएमसी में पिछड़े वर्ग के साथ हो रहे भेदभाव के बारे में विस्तृत रिपोर्ट छपी थी। इसमें बताया गया था कि किस तरह फिजियोलॉजी विभाग में पिछड़े वर्ग के छात्रों को जानबूझकर कम अंक प्रदान किए गए हैं जिसकी वजह से इन छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है। गौरतलब है कि छात्रों की शिकायत पर एम्स एवं एलएनजेपी के विशेषज्ञों की संयुक्त समिति डॉ. एलआर मुरमु की अध्यक्षता में बनाई गई थी। इस समिति ने पाया कि बीते पांच साल में उपरोक्त विभाग में फेल होने वाले सभी छात्र पिछड़े वर्ग से संबंधित हैं। समिति की रिपोर्ट के मुताबिक एक छात्रा को एक अंक से एक-दो बार नहीं, बल्कि तीन बार फेल किया गया है। समिति के सदस्यों को यह देखकर हैरानी हुई कि पिछडे़ एवं अनुसूचित तबके के जिन छात्रों को फेल घोषित किया गया है उन्होंने अन्य विभागों की परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन किया है और मेडिकल प्रवेश परीक्षा में भी वे उच्च स्थान प्राप्त किए हैं। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि राजधानी से संचालित केंद्र सरकार के अधीन मेडिकल कॉलेज में अगर छात्रों के साथ जातिगत भेदभाव अपनाया जा सकता है और इसे लेकर कोई कार्रवाई भी नहीं होती है तो देश के दूसरे हिस्सों में कितनी खराब स्थिति होती होगी। वैसे सफदरजंग अस्पताल से संबद्ध यह कॉलेज दिल्ली के अन्य चिकित्सा संस्थानों से इस मायने में कोई अलग नहीं दिखता। वैसे यह बात सुनने में अटपटी लग सकती है। मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि मानव शरीर की बीमारियों के इलाज में अत्याधुनिक तरीके से इलाज करने में पूरी तरह सक्षम चिकित्सा संस्थानों की प्रबंधन टीम एवं उच्च अधिकारियों का एक हिस्सा उच्च स्तर पर टिके भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव पर भी अमल करता दिखता है। इस मानसिकता का प्रभाव ऐसे संस्थानों के संचालन में भी नजर आता है। कुछ साल पहले दिल्ली के ही गुरु तेग बहादुर अस्पताल में अनुसूचित जाति के छात्रों एवं गैर-अनुसूचित छात्रों के बीच चले तीखे विवाद का मसला अखबारों की सुर्खियां बना था जब यह देखा गया था कि इन वंचित तबकों के छात्रों के साथ जातिगत भेदभाव भी होता है। साझा मेस में इन तबकों के लिए टेबल भी रिजर्व रखे जाते हैं और उनके लिए सूडो नामक अपमानजनक संबोधन का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए शहर के अन्य जनतांत्रिक संगठनों के साथ मिलकर अनुसूचित जाति के छात्रों को लंबा संघर्ष करना पड़ा। विडंबना यही थी कि प्रशासन के एक हिस्से से भी वर्चस्वशाली तबके के छात्रों को शह मिली हुई थी। इस संबंध में हम दिल्ली में ही स्थित तथा केंद्र सरकार द्वारा संचालित एम्स अर्थात ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के अनुभव की बात कर सकते हैं। यह कहना प्रासंगिक होगा कि विगत लगभग पांच वर्षो से उपरोक्त संस्थान में आरक्षित तबकों के साथ अध्ययन के दौरान तथा नई भर्ती के संदर्भ में विभिन्न स्तरों पर बरते जा रहे भेदभाव का मसला उठता ही रहा है। राष्ट्रपति को सौंपे अपने ज्ञापन में मेडिकोज फोरम फॉर इक्वल अपारचुनिटीज की तरफ से इस अग्रणी संस्थान की आंतरिक हालात से अवगत कराते हुए कहा गया था कि किस तरह उपरोक्त संस्थानों में ही नहीं, बल्कि दिल्ली के अन्य मेडिकल कॉलेजों में भी ऐसी स्थितियां व्याप्त हैं। यह अकारण नहीं था कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के चेयरमैन सुखदेव थोराट की अगुआई में एक समिति भी बनाई गई थी जिसने आरक्षित तबकों के छात्रों की शिकायतों की पुष्टि की थी। हालांकि इस समिति ने इसके लिए जिम्मेदार पदाधिकारियों को दोषी करार देने और किसी किस्म की सजा देने की कोई सिफारिश नहीं की थी। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने जब अपनी पहली पारी में शिक्षा संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने का एलान किया था, जिसे मंडल- 2 नाम से संबोधित किया गया था तब उपरोक्त संस्थान का प्रांगण ही आरक्षण विरोधी आंदोलन का केंद्र बना था। जाहिर है कि संस्थान के प्रबंधन के एक हिस्से की मौन सहमति के बिना इस तरह का विरोध कार्य मुमकिन नहीं था। इस संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि वर्ष 2003 में उपरोक्त संस्थान में 164 सहायक प्राध्यापकों की गई नियुक्ति का मामला अदालत में आज भी लंबित है। इस नियुक्ति प्रक्रिया में उचाधिकारियों द्वारा आरक्षण संबंधी नियमों की खुलेआम अवहेलना की गई थी। अदालत में मामला विचाराधीन होने के बावजूद उन्हीं में से कई एक को प्रोन्नति दी गई, जबकि खुद केंद्र सरकार एवं संस्थान की तरफ से न्यायालय में दिए गए अपने शपथ पत्रों में इस तथ्य को स्वीकार किया गया था कि इन नियुक्तियों में संबंधित नियमों का पालन नहीं किया गया था। पिछले दिनों स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने संसद को बताया कि सफदरजंग अस्पताल, राममनोहर लोहिया अस्पताल एवं लेडीज हार्डिंग अस्पताल में आरक्षित श्रेणी के तहत आने वाले 498 पद मृत्यु, सेवानिवृत्ति, इस्तीफा और योग्य प्रत्याशियों की अनुपलब्धता के कारण खाली पड़े हैं। दिल्ली के इन तीन अग्रणी अस्पतालों में आरक्षित पदों में से लगभग 500 डॉक्टरों के पदों का खाली रह जाना किसी भी तरह की सरगर्मी पैदा करने में असफल रहा। एक ऐसे वक्त में जबकि उच्च अदालत द्वारा दिए गए निर्देशों के बावजूद निजी अस्पताल अमीरों या पैसे वालों के लिए सीमित हो रहे हैं तथा सरकारी अस्पतालों में लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है तब उस वक्त इतनी बड़ी तादाद में सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की अनुपलब्धता निश्चित ही चिंता का विषय बनना चाहिए था। आम आदमी के स्वास्थ्य संबंधी न्यूनतम अधिकारों के इस खिलवाड़ के प्रति मंत्री महोदय द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण भी औपचारिक मालूम पड़ रहा था कि उपयुक्त प्रत्याशी नहीं मिल पा रहे थे। वैसे आरक्षित पदों को लेकर योग्य प्रत्याशियों की अनुपलब्धता का तर्क हर उस जगह दोहराया जाता है जहां संविधानप्रदत्त जिम्मेदारियों के निर्वहन में कमी नजर आती है। हालांकि मामला कहीं अलग होता है। अगर अस्पतालों के संदर्भ में देखें तो इसका एक सिरा चिकित्सा संस्थानों के प्रबंधन में आरक्षित तबकों के अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता की कमी से जुड़ा है तो कहीं-कहीं इसे लेकर जबरदस्त विरोध के रूप में भी देखा जा सकता है। इस मानसिकता का एक सिरा नव उदारवाद के प्रभाव में गढ़ी गई आर्थिक नीतियों में ढूंढ़ा जा सकता है जिसके तहत सार्वजनिक कल्याण के क्षेत्रों को भी रफ्ता रफ्ता तेजी से बाजार शक्तियों के हवाले किया जा रहा है और इसी के चलते संसाधनों की कमी का रोना रोते हुए स्थाई पदों को भरने में सरकारों द्वारा अलग-अलग बहाने बनाकर आनाकानी की जाती है और डॉक्टरों को मामूली तनख्वाह पर ठेके पर रखने का सिलसिला चलता रहता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

नव नालंदा में झलकेगा प्राचीन विश्वविद्यालय का गौरव


प्राचीन काल में विश्व के लिए शिक्षा का केंद्र रहे नालंदा विश्वविद्यालय की जगह बन रहे नव नालंदा को पुराने गौरव से जोड़ने के लिए माथापच्ची शुरू हो गई है। संस्कृति मंत्रालय के सचिव व अधिकारियों के साथ हुई बैठक में मेंटर ग्रुप के अध्यक्ष अम‌र्त्य सेन व दूसरे सदस्यों ने माना कि तालमेल के साथ विश्वविद्यालय की पुरानी उपलब्धियों को प्रमुखता से उभारना जरूरी होगा। ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिससे पुस्तकालय से लेकर दूसरी चीजों में भी पुराने गौरव का अहसास हो। साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि नए निर्माण से पुराने निर्माण पर कोई असर न पड़े। नालंदा को लेकर हो रही कवायद के बीच बुधवार को मेंटर ग्रुप के कुछ सदस्यों ने संस्कृति मंत्रालय के साथ भी बैठक की। बताते हैं कि एक घंटे से ज्यादा चली बैठक में पुराने गौरव को जीवित करने के मुद्दे पर चर्चा हुई। यह माना गया कि पुराने गौरव और उपलब्धियों को फिर से जीवित करना होगा और उसके साथ तालमेल बिठाकर ही नव नालंदा को परवान चढ़ाना होगा। इसमें एक बड़ी जिम्मेदारी एएसआई को निभानी होगी। प्रो0 सौगत बोस ने कहा कि एएसआई की भूमिका पर चर्चा हुई। माना गया कि एएसआई को नालंदा पर प्रकाशित पुस्तकों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। गौरतलब है कि एएसआई अपनी स्थापना का 150वां साल मना रहा है। इस लिहाज से भी एएसआई के लिए यह सार्थक काम होगा। विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में भी एएसआई को भूमिका निभानी होगी। ध्यान रहे कि नालंदा का विराट पुस्तकालय विश्वप्रसिद्ध रहा है। इसके बारे में कई तथ्य व कहानियां प्रचलित रही हैं। नए विश्वविद्यालय के पुस्तकालय के बारे में भी एएसआई को भूमिका निभानी होगी ताकि पुराने के साथ कुछ तालमेल दिखे। यूं तो नया निर्माण अवशेष से काफी दूर हो रहा है, लेकिन चिंता बरकरार है। लिहाजा एएसआई यह भी ध्यान रखेगा कि उस पर कोई असर न हो। बुधवार की बैठक में अम‌र्त्य के साथ साथ प्रो0 सौगत बोस, प्रो0 गोपा सबरवाल, तानसेन सेन, संस्कृति सचिव जवाहर सरकार व एएसआई के महानिदेशक गौतमसेन सेनगुप्ता शामिल थे

Wednesday, February 23, 2011

पंजाब में क, ख, ग भी नहीं जानते 7वीं के बच्चे


केंद्र और राज्य सरकार द्वारा सालाना करोड़ों रुपये खर्च करने के बावजूद पंजाब में प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था की बदहाली कम नहीं हो रही है। सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सातवीं के बच्चों को क, , ग तक की पहचान नहीं है। वे ज और ल जोड़कर जल भी नहीं बता पाते। शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने हाल ही में अमृतसर के सरकारी स्कूलों का दौरा किया तो यह हकीकत सामने आई। निरीक्षण दल ने उच्चाधिकारियों को भेजी रिपोर्ट में कहा है कि स्कूलों में मुआयना करने के दौरान छात्रों का अक्षर ज्ञान शून्य मिला। सरकारी हाई स्कूल मल्लूनंगल पहुंच कर सातवीं के विद्यार्थियों से मातृभाषा पंजाबी की वर्णमाला पूछी तो अधिकतर बच्चों ने चुप्पी साधे रखी। कई बार बच्चों की नजरें अक्षरों की पहचान करने में फेल हो गईं। सातवीं कक्षा के बच्चों को जब कुछ संधि के सवाल पूछे तो बच्चे संधियों के नाम बताना तो दूर छोटे-छोटे शब्दों की संधि तक नहीं बना पाए। अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में बाकायदा लिखा है कि उन्हें हैरानगी है कि ये छात्र आखिर सातवीं कक्षा तक पहुंच कैसे गए हैं जब उनके ज्ञान को देखा जाए तो वह प्राइमरी के लायक भी नहीं हैं। इसी रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही हाल है। अफसरों ने खुलासा किया है कि जगदेव कलां स्थित सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल पहुंची और यहां प्लस टू के विद्यार्थियों से अंग्रेजी भाषा में सेल्फ इंट्रोडक्शन (आत्म परिचय) देने के लिए कहा, लेकिन 35-40 विद्यार्थी अपना खाता न खोल सके। कोई भी अपना परिचय अंग्रेजी में नहीं दे सका। अफसरों ने खुद ही छात्रों से उनके परिचय से संबंधित सवाल पूछे तो भी कोई छात्र जवाब नहीं दे सका। इतना ही नहीं पाठ्यक्रम से संबंधित सवाल पूछने पर भी विद्यार्थी बगले झांकते नजर आए। मात्र एक विद्यार्थी ने हौसला कर चार-पांच लाइनें सुना कर क्लास टीचर और विद्यार्थियों की इज्जत पर बट्टा लगने से बचाया। निरीक्षण दल के मुखिया कैलाश शर्मा ने बताया कि वह स्कूलों के पढ़ाई के स्तर की रिपोर्ट डीजीएसई कार्यालय को भेज रहे हैं। इन स्कूलों के खिलाफ डीजीएसई कार्यालय द्वारा कार्रवाई की जाएगी। हालांकि उन्होंने विद्यार्थियों में अक्षर ज्ञान न होने और आत्मविश्वास की कमी को दुर्भाग्यपूर्ण बताया।


जामिया मिलिया को मिला अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा


जामिया मिलिया इस्लामिया ने अपने नब्बे साल के इतिहास में भले ही कभी अपना अल्पसंख्यक स्वरूप न छोड़ा हो, लेकिन आधिकारिक रूप से इसे तय होने में कई दशक लग गए। मंगलवार को अंतत: यह तय हो गया कि जामिया मिलिया इस्लामिया केंद्रीय विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थान है। अब वहां न सिर्फ मुस्लिम बच्चों को दाखिले में 50 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा, बल्कि पहले से चला आ रहा अनुसूचित जाति व जनजाति के छात्रों को 22.5 प्रतिशत और जामिया से ही स्कूली पढ़ाई शुरू करने वालों का 25 प्रतिशत का कोटा भी खत्म हो जाएगा। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग ने जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक स्वरूप के बारे में यह एतिहासिक फैसला देकर उसकी नई मंजिल की राह तय कर दी है। फैसला सुनाने के बाद आयोग के चेयरमैन जस्टिस (सेवानिवृत्त) एमएसए. सिद्दीकी ने कहा, हमने कानूनी पहलुओं के आधार पर जामिया को अल्पसंख्यक दर्जे का शिक्षण संस्थान (विश्वविद्यालय) घोषित किया है। संविधान के अनुच्छेद 30 (1) एवं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान आयोग अधिनियम की धारा 2 (जी) में अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान परिभाषित हैं। उस रोशनी में देखें तो अपनी स्थापना के बाद से अब तक कभी भी जामिया अपने अल्पसंख्यक स्वरूप के दायरे से बाहर नहीं रहा है। गौरतलब है कि संप्रग की पिछली सरकार में उच्च शिक्षण संस्थानों के दाखिले में पिछड़े वर्ग के छात्रों को 27 प्रतिशत आरक्षण के कानून के साथ ही जामिया में उसके अमल को लेकर विरोध शुरू हो गया था। जामिया टीचर्स एसोसिएशन की ओर से उसके तत्कालीन सचिव प्रो. तबरेज आलम और जामिया ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन और जामिया स्टूडेंड यूनियन ने 2006 में न सिर्फ इस आरक्षण का विरोध किया, बल्कि विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे के लिए आयोग में वाद भी दायर कर दिया। वादकारियों ने इसमें जामिया के कुलपति, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और अल्पसंख्यक कार्य मंत्रालय को पक्षकार बनाया था। इस बीच, एक अहम बात यह भी रही कि खुद विश्वविद्यालय प्रशासन (रजिस्ट्रार एसएम अफजल) ने 2006 में आयोग में शपथ पत्र देकर जामिया को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने का विरोध किया था। हालांकि विश्वविद्यालय ने बाद में नरम रुख अख्तियार कर लिया। जबकि मानव संसाधन विकास मंत्रालय चाहता था कि सुप्रीम कोर्ट में लंबित इसी तरह के अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के बारे में फैसला आने के बाद ही आयोग इस पर निर्णय करे। आयोग के इस फैसले पर जामिया टीचर्स एसोसिएशन के सचिव डॉ. रिजवान कैसर ने कहा कि विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे के बावजूद उसके धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर कोई असर नहीं पड़ेगा। बस दाखिले में सिर्फ दो श्रेणी रह जाएंगी, जिसमें मुस्लिम समुदाय के बच्चों को 50 प्रतिशत और बाकी में सभी दूसरे समुदाय को पढ़ाई का मौका मिलेगा।


Monday, February 21, 2011

महिला शिक्षकों की मौजूदगी के मायने


मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एजेंसी न्यूपा के ताजा सर्वेक्षण के अनुसार प्राथमिक विद्यालयों में महिला शिक्षकों की संख्या बढ़ रही है। देश में पहली से 8वीं कक्षा तक के लगभग 58 लाख शिक्षक हंै, जिनमें 45 फीसदी महिलाएं हंै। कुल जनसंख्या में भी महिलाओं की हिस्सेदारी 48 प्रतिशत है। सर्वेक्षण के मुताबिक 12 राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में महिला शिक्षकों का प्रतिशत आधे से अधिक है। सबसे अधिक 83 फीसदी चंडीगढ़ में, 78 फीसदी गोवा में, 77 फीसदी तमिलनाडु में, 74 फीसदी दिल्ली में, 65 फीसदी पंजाब में, 55 फीसदी कर्नाटक में। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में महिला शिक्षकों का प्रतिशत 50 से कम है। इस सर्वेक्षण रिपोर्ट से पहले ही हम सहजबोध के आधार पर यह अंदाजा लगा सकते थे कि इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अच्छी-खासी है। यदि निजी स्कूलों की भागीदारी जोड़ लें तो और आगे हो सकता है, क्योंकि सरकारी स्कूलों में फिर भी पुरुषों की नियुक्ति हो जाती है, लेकिन प्राइवेट स्कूलों में उनकी संख्या काफी कम होती है। बड़ी कक्षा में जाकर विज्ञान, गणित या स्पो‌र्ट्स आदि के क्षेत्र में पुरुष शिक्षकों को फिर भी स्थान मिल जाता है, लेकिन संख्या कम होती है। इस संदर्भ में एक बात तो यह कही जा सकती है कि वजह चाहे जो हो, लेकिन कम से कम प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र ने महिलाओं को सार्वजनिक दायरे में और परिवार में कमाने वाले सदस्य का स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शिक्षिका बनने के लिए घर-परिवार तथा समाज से ज्यादा प्रतिरोध का सामना भी नहीं करना पड़ता है। हमारे समाज में प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र एक तरह से परिवार का ही एक्स्टेंशन माना जाता है। चूंकि घर के अंदर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी औरत की मानी जाती है और दाखिले के समय भी बच्चे छोटे ही होते हंै, लिहाजा यह स्वाभाविक मान लिया गया कि महिलाएं इसे बेहतर ढंग से निभा सकती हंै। कम उम्र के बच्चों की पढ़ाई में ज्ञान कम और भावनात्मक रूप से बच्चों की देखरेख करने की जरूरत को सभी समझते हैं। यह काम जेंडर स्टीरियोटाइप सोच के तहत माना गया कि महिलाएं अच्छा करेंगी। संभव है कि वाकई वे अच्छा करती हों, लेकिन उसका कारण यह नहीं कि वही अच्छा कर सकती हैं और पुरुष नहीं कर सकते, बल्कि यह काम वही करती आई हैं और पुरुषों ने इसे अपना काम समझा ही नहीं। सवाल यह है कि यदि प्राथमिक स्तर पर वे इस जिम्मेदारी को संभाल रही हंै और आगे हैं तो उच्च स्तर की शिक्षा में क्यों पीछे हैं? क्या उच्चस्तरीय ज्ञान हासिल करने और फिर यह सेवा देने में वे अक्षम साबित हुई हैं? ऐसी कोई भी अध्ययन रिपोर्ट नहीं आई है, बल्कि समाज में उनके लिए अवसर उपलब्ध नहीं कराया गया है। हाल में विज्ञान के क्षेत्र में महिला वैज्ञानिकों की कम होती संख्या पर चिंता व्यक्त की गई है। खुद इंडियन काउंसिल फॉर साइंस एंड रिसर्च ने अपनी अगली 11वीं कांग्रेस को महिलाओं को समर्पित किया है। सर्वेक्षण में यह स्थिति रोजगार के दूसरे क्षेत्रों में भी है, जहां स्त्री-पुरुष अनुपात में अभी भारी अंतर है। उच्च पदों पर महिलाओं की नियुक्तियों में क्या अवरोध आ रहा है, इसे समझने तथा उसे दूर करने के गंभीर प्रयासों की जरूरत भी नहीं समझी जा रही है। सेना जैसे क्षेत्र में तो उन्हें नियुक्ति के बराबर नियम के लिए कानूनी जंग लड़नी पड़ती है। स्थायी कमिशन का विकल्प अभी भी सेना में हर स्तर पर महिलाओं को नहीं मिला है। भारत में महिलाओं की उच्च पदों पर अनुपस्थिति या कुछ अहम क्षेत्रों में उनकी घटती संख्या बरबस दो साल पहले आई अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट की याद ताजा करती है। 2008 में प्रकाशित उपरोक्त रिपोर्ट में बताया गया था कि महिलाओं के लिए गरिमामय काम की कमी है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 10 सालों में कामकाजी महिलाओं की संख्या 20 करोड़ बढ़ी है। इसके बाद भी 2007 तक काम करने वाली महिलाओं की संख्या 120 करोड़ थी, जबकि काम करने वाले पुरुष 180 करोड़ थे। कार्यक्षेत्र में भेदभावपूर्ण स्थिति के साथ ही अवैतनिक काम का अधिक हिस्सा उन्हीं के जिम्मे होता है। जैसे, गृहकार्य या अनुत्पादक कार्य। विशेष तौर पर गरीब इलाके की गरीब महिलाओंे के कार्यक्षेत्र में असुरक्षा बढ़ी है। रिपोर्ट में यह बताया गया था कि अभी भी महिलाओं की श्रमशक्ति में तब्दील होने की संभावना बची है। उन्हें काम का गरिमामय अवसर उपलब्ध करा कर समाज में भी जेंडर गैरबराबरी को कम किया जा सकता है। रिपोर्ट में आंकड़ा प्रस्तुत किया गया था कि दुनिया में पुरुषों की बेरोजगारी दर 5.7 प्रतिशत थी, जबकि महिलाओं का 6.4 प्रतिशत था। अक्सर उनका रोजगार कम उत्पादकता वाला, कम आय वाला तथा अधिक असुरक्षित होता है। यह भी बताया गया है कि विश्व के श्रम बाजार में 100 पुरुषों पर 70 कामगार महिलाएं है। दक्षिण एशिया में काम करने वाली उम्र की महिलाओं का 59 प्रतिशत श्रम बाजार में है, जबकि कामकाजी उम्र के पुरुष 82.8 प्रतिशत श्रम बाजार में हैं। इस अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट को सामने रखकर अगर हम अपने देश की स्थिति को समझें तो क्या चित्र दिखता है। अपने यहां आज भी कुशल श्रमिक के रूप में महिलाएं कुल श्रमशक्ति में बराबर की हिस्सेदार नहीं बन पाई हैं। श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट इस बात का खुलासा करती है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार महिला श्रमिकों की संख्या 12 करोड़ 72 लाख है, जो उनकी कुल संख्या 49 करोड़ 60 लाख का चौथा (25.60 प्रतिशत) हिस्सा ही हुआ। इनमें भी अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्र में हैं और उनका प्रतिशत ऊपर दी हुई कुल महिला श्रमिकों की संख्या का तीन हिस्से से भी ज्यादा (87 प्रतिशत) कृषि संबंधी रोजगार में हैं। रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्र के रोजगार में तीन हिस्से से भी ज्यादा (80 प्रतिशत) महिला श्रमिक घरेलू उद्योग, लघु व्यवसाय सेवा तथा भवन निर्माण में लगी हैं। कहा गया है कि सरकार ने महिला श्रमिकों के काम की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा उनकी स्थिति बेहतर बनाने के लिए कई कानून बनाए हंै, लेकिन व्यवहार में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है। देश में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश को छोड़कर जहां क्रमश: महिला श्रमिकों की संख्या 11.90, 10.34 और 10.07 है, बाकी अधिकतर राज्यों में कुल श्रमिकों की तुलना में महिला श्रमिक एक फीसदी से भी कम हैं। निश्चित ही एक बड़ी चुनौती हमारे समक्ष खड़ी है। सामाजिक बराबरी स्त्री और पुरुष के बीच तभी संभव है, जब अवसर भी बराबर का उपलब्ध हो। इसके लिए जरूरी है कि एक तो सरकार द्वारा कानूनन हर क्षेत्र में बराबर का अवसर दिया जाए तथा दूसरे सामाजिक स्तर पर ऐसे प्रयास हों तथा अभियान चले कि महिलाएं अधिक से अधिक सार्वजनिक दायरे में प्रवेश कर कुशल कामगार का दर्जा हासिल करें। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

Saturday, February 19, 2011

जैन शिक्षण संस्थानों में दखल नहीं दे सकती हरियाणा सरकार


पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने शुक्रवार को अपने एक आदेश में कहा कि सरकार को अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाओं के आंतरिक प्रबंधन में दखल देने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने कहा कि क्योंकि हरियाणा में जैन अल्पसंख्यक हैं, इसीलिए प्रदेश सरकार जैन समाज द्वारा संचालित शिक्षण संस्थाओं के प्रबंधन में दखल नहीं दे सकती। भले ही सरकार इन संस्थाओं को 95 प्रतिशत आर्थिक सहायता देती हो। हाईकोर्ट ने इस संबंध में प्रदेश सरकार की उस अपील को खारिज कर दिया जिसमें हाईकोर्ट के एकल जज के फैसले को चुनौती दी गई थी। यह आदेश हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की खंडपीठ ने दिया। हरियाणा सरकार ने कोर्ट में कहा था कि सरकार अंबाला के आत्मानंद जैन कॉलेज को 95 प्रतिशत आर्थिक सहायता देती है, इसलिए वह इस कॉलेज को उचित प्रबंधन के लिए दिशा-निर्देश जारी कर सकती है। हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील सत्यपाल जैन एवं धीरज जैन ने जैन कॉलेज की ओर से बहस करते हुए कहा कि हरियाणा में जैन समाज अल्पसंख्यक है। सरकार उनके संस्थान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। सरकार का ऐसा कोई भी आदेश संविधान के अनुच्छेद 29 एवं 30 का उल्लंघन होगा। खंडपीठ ने कहा कि इस बात में कोई विवाद नहीं है कि हरियाणा में जैन समाज अल्पसंख्यक है। इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई निर्णयों में कहा है कि जिन शिक्षण संस्थाओं को संविधान के अनुच्छेद 29 एवं 30 के अंतर्गत अल्पसंख्यक समाज स्थापित करता है, सरकारें उनके आंतरिक प्रबंधन में दखल नहीं दे सकती। खंडपीठ ने प्रबंध समिति के आकार तय करने तथा प्रबंध समिति के निर्णयों पर समीक्षा करने के हरियाणा सरकार के निर्णय को कानूनी रूप से अवैध बताया है। उन्होंने कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा अब तक के निर्णयों के विपरीत है।