Friday, February 4, 2011

दलितों के दायरे में लाएं स्कूल


आज भी भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार पर निगरानी करने के लिए एक मुकम्मल प्राधिकार की कमी है जो समावेशी और समानता आधारित शिक्षा के प्रोत्साहन में बड़ी बाधा है। लिहाजा, एक्ट के रूप में वैधानिक ढांचा तैयार कर उसे लागू किया जाए ताकि भेदभाव की समस्या उठाई जा सके। साथ ही शिक्षा-पण्राली के अंतर्गत शिकायत निबटारे के लिए एक तंत्र सुनिश्चित किया जाए जिससे दलित बच्चे और अभिभावक किसी भी प्रकार के बदले या प्रतिशोध के भय के अपने मसले उठा सकें
दलितों में बढ़ती साक्षरता दर से जाहिर होता है कि इस समुदाय ने शिक्षा को विकास, सम्मान तथा सामाजिक-आर्थिक बढ़ोतरी का महत्वपूर्ण हथियार माना है। हालांकि इसके लिए उन्हें कड़े संघर्षों से गुजरना पड़ा है। लिहाजा, शिक्षा को गैर-बराबरी मिटाने और मानव संसाधन विकास के प्रोत्साहन के महत्वपूर्ण औजार के रूप में देखा जाना चाहिए। ग्यारहवीं योजना में सच ही चिह्नित है कि शिक्षा और स्वास्थ्य का बेहतर स्तर दीर्घकालीन विकास की पूर्वपीठिका है। स्कूलों में दाखिले की दर में बढ़ोतरी हो रही है लेकिन यह भी सच है कि स्कूल छोड़ने की दर, विशेषकर युवाओं में लगातार उठान पर है। जाहिर है, इसके चलते उनकी भागीदारी, कौशल- संवर्धन और रोजगार में अवरोध पैदा होता है। उच्च शिक्षा में सकल दाखिला दर 72.8 प्रतिशत थी जबकि अनुसूचित जाति के मामले में यह महज 0.5 प्रतिशत है। इसकी कई वजहें हैं, जिनमें मैला ढोने समेत देवदासी, बंधुआ मजदूरी, बाल मजदूरी जैसी प्रथाओं के कारण दलित बच्चों पर बहुत बुरा असर पड़ता है। उन्हें मजबूरन स्कूल छोड़ श्रम बाजार और सड़कों पर उतरना पड़ता है। इतना ही नहीं, स्कूल पूर्व शिक्षा से लेकर उत्कृष्ट संस्थानों तक में जाति और जेंडर आधारित भेदभाव व्याप्त है। दलित समुदाय के छात्र, जो इन संस्थानों में बराबरी और समानता के व्यवहार की उम्मीद करते हैं, को अकसर भारी कीमत चुकानी पड़ती है। कई बार तो जान तक गंवा देनी पड़ती है। स्कूलों तथा प्रोफेशनल कॉलेजों से इससे मुताल्लिक खबरें आती रही हैं। कुछ ही महीने पहले दिल्ली विवि के सत्यवती (सांध्य) कॉलेज में ऐसा ही एक हादसा हुआ था। प्रावधानों और हकदारी का अपर्याप्त और संवेदनहीन कार्यान्वयन कई दलित बच्चों और युवाओं के सम्मान को आघात पहुंचाता है और उनके व्यक्तित्व विकास पर नकारात्मक असर डालता है। दलित हलकों में खराब इंफ्रास्ट्रक्चर तथा सुविधाओं के मामले में राज्य के असमान प्रावधान के चलते दलित बच्चों और युवाओं के लिए स्कूल पूर्व से लेकर उच्च शिक्षा तक अवरोध पैदा होते हैं। उपलब्ध संसाधनों के बारे में सूचना, मार्गदर्शन तथा सहयोग की कमी के चलते भी इनके लिए अवसर और पसंद सीमित हो जाते हैं। सरकारी क्षेत्र में रोजगार के घटते अवसर और निजी क्षेत्र में उनके लिए रोजगार को प्रोत्साहन न मिलने तथा उद्यमशीलता के अभाव के चलते इन परिवारों का उच्च शिक्षा के प्रति रुझान नहीं बन पाता है। बारहवीं योजना के तहत सरकार को चाहिए कि दलित शिक्षा संबंधी उक्त समस्याओं केंद्र में रखे। यानी स्कूल पूर्व से लेकर उच्च शिक्षा तक एक समेकित शिक्षा पण्राली हो बजाय इसके कि प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर अलग-अलग ध्यान दिया जाए। स्कूल पूर्व से लेकर स्कूल, तकनीकी तथा उच्च शिक्षा पर दलितों की समान और न्यायसंगत पहुंच होनी चाहिए। दलित बच्चों की शिक्षा के रास्ते में जाति और जेंडर आधारित भेदभाव बड़ी रुकावट है। हालांकि बहुत सारी नीतियां अस्पृश्यता और जाति आधरित भेदभाव के उन्मूलन की बात कहती है, फिर भी शिक्षकों, शैक्षणिक प्रशासकों तथा वृहत्तर नागर समाज में आज भी पारंपरिक जातिवादी मानसिकता व्याप्त है। भारत ने भी संयुक्तराष्ट्र के शुरुआती कंवेन्शनों में से एक यूएन कंवेन्शन अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन इन एजुकेशन पर दस्तखत किये हैं। लिहाजा भेदभाव हीनता को शिक्षा के सभी स्तरों पर वस्तुनिष्ठ तथा निगरानी योग्य सूचक के तौर पर शामिल किया जाना चाहिए। इसके कार्यान्वयन के सूचकों तथा मानकों को स्कूल रिपरेटिंग के स्वरूप में शामिल किया जाना चाहिए। हर स्तर पर शिक्षकों तथा प्रबंधनों को जागरूक बनाया जाना चाहिए कि वे भेदभावहीनता की कसौटियों तथा स्तरों को जानें, संवेदनशील बनें। आज भी भेदभाव, सामाजिक वहिष्कार पर निगरानी के लिए एक मुकम्मल प्राधिकार की कमी है जो समावेशी और समानता आधरित शिक्षा के प्रोत्साहन में बड़ी बाधा है। लिहाजा एक्ट के रूप में वैधानिक ढांचा तैयार कर उसे लागू किया जाए ताकि शिक्षा के क्षेत्र में भेदभाव की समस्या उठाई जा सके। साथ ही शिक्षा-पण्राली के अंतर्गत शिकायत निबटारे के लिए एक तंत्र सुनिश्चित किया जाए ताकि दलित बच्चे और अभिभावक किसी भी प्रकार के बदले या प्रतिशोध के भय के अपने मसले उठा सकें। दलित छात्र बहुत से प्रावधानों के हकदार हैं- मसलन, पूर्व और उत्तर मैट्रिक छात्रवृत्ति, छात्रावास, मुफ्त किताबें, अतिरिक्त ट्यूशन वगैरह जबकि इनका कार्यान्वयन अपर्याप्त और हतोत्साही है। योजना को चाहिए कि वह इनकी पहुंच, कीमत, समतुल्यता, सामयिकता, गुणवत्ता, तथा छात्रों के सम्मान के प्रति इनकी संवेदनशीलता, इत्यादि की दृष्टि से इन प्रावधानों की समीक्षा करे। दूर-दराज में सूचनाओं से बेखबर दलित अभिभावक शिक्षा के बेहतरीन स्वरूपों तथा हकदारी के बारे में नहीं जानते हैं। उनके आजू-बाजू ब्लॉक स्तर पर उत्कृष्ट संस्थानों, स्कूल-पूर्व तथा स्कूली शिक्षा की शुरुआत की जाए तथा इन केंद्रों से उनका परिचय कराया जाए ताकि वे उन केंद्रों और स्कूलों में प्रदान की जाने वाली सुविधाओं और उनके स्तर की निगरानी कर सकें जिनमें उनके बच्चे जाते हैं। दलित प्रतिनिधियों के लिए भी ऐसे अवसर सृजित हों, उन्हें स्कूल कमेटियों में स्थान मिले ताकि निगरानी के साथ बेहतर स्तर तय कर सकें। दलित समुदायों के अंदर भी कुछ तबकों को अपने पेशों या अन्य पारंपरिक कामों के कारण अतिरिक्त भेदभाव झेलना पड़ता है। मैला ढोने का काम करने वाले, देवदासी तथा बंधुआ मजदूरों के बच्चे इसी श्रेणी में आते हैं। कुछ समुदाय राज्य या इलाके के परिप्रेक्ष्य में विशेष रूप से वंचित हैं। लिहाजा बारहवीं योजना के अंतर्गत शिक्षा पण्राली में ऐसा कोई तरीका विकसित होना चाहिए जो ऐसे बच्चों को खास तौर से चिह्नित करे और सुनिश्चित करे कि उन्हें शिक्षा का न्यायसंगत अवसर और लाभ मिले। दलितों को भारत में आबादी के लाभांश के वृहत्तर तबके के तौर पर मान्यता मिलनी चाहिए। यह उच्च शिक्षा और कौशल विकास की दृष्टि से दलित युवकों में समुचित निवेश के मार्फत मुमकिन हो सकता है। आज जहां निजी शिक्षा की भूमिका बढ़ रही है, तकनीकी और प्रोफेशनल शिक्षा के मामले में दलित युवाओं की और अधिक पहुंच सुनिश्चित करनी होगी। और इसके लिए ऐसी शिक्षा में आरक्षण का प्रावधान जरूरी होगा। शिक्षा के क्षेत्र में प्राइवेट-पब्लिक-कम्युनिटि-पार्टनरशीप (पीपीसीपी) मॉडल के रूप में दलितों के प्रति निष्पक्षता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ताकि योग्यताधारी दलित शिक्षा-प्रदाता बन सकें। दलितों की शिक्षा और उनके विकास की राह में कार्यान्वयन में कोताही बड़ी समस्या है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय में उच्चस्थ स्तर पर निगरानी की एक पद्धति शुरू की जानी चाहिए। दलित समुदाय को समुदाय स्तर से लेकर राज्य और देश तक सभी स्तरों पर तमाम निगरानी पण्राली एवं प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए। असली मसलों के प्रतिनिधित्व को लेकर बहुत सारे अवरोध हैं, लिहाजा उच्चस्थ स्तर पर निगरानी पण्राली के अंतर्गत खास तौर से अवसर और मंच सृजित किए जाने चाहिए ताकि समस्याओं और अवरोधों के बारे में र्चचा की जा सके। इन प्रयासों के बिना दलितों को शिक्षा की मुख्यधारा में शामिल कर पाने का सपना पूरा नहीं हो सकेगा।



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