Wednesday, June 29, 2011

देश के भविष्य से खिलवाड़


लेखक दाखिले के लिए शत-प्रतिशत अंकों की अनिवार्यता को शिक्षा क्षेत्र की बड़ी विसंगति के रूप में देख रहे हैं...
दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स ने इस वर्ष अपने यहां दाखिले की कट ऑफ सूची सौ फीसदी घोषित कर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। वैसे तो पिछले सात-आठ वर्षो से देश के विख्यात कॉलेजों की कट ऑफ सूची नब्बे प्रतिशत के आसपास चल रही है, लेकिन सौ फीसदी की अनिवार्यता घोषित कर इस कालेज ने शिक्षा क्षेत्र की विसंगतियां और उनके प्रति सरकार की उदासीनता उजागर कर दी। इसमें संदेह नहीं कि देश के प्रतिष्ठित कॉलेजों में मेधावी विद्यार्थी ही पहुंच पाते हैं और यदि कोई कॉलेज अपनी कट ऑफ सूची सौ फीसदी रखता है तो वह यही संदेश दे रहा होता है कि वही विद्यार्थी दाखिले के लिए आएं जो मेधावी हों, लेकिन क्या उन छात्रों को मेधावी नहीं माना जाएगा जो 70-80 प्रतिशत नंबर ला रहे हैं? आखिर यह एक तथ्य है कि आज से एक-डेढ़ दशक पहले 70-80 प्रतिशत नंबर लाने वाले विद्यार्थी न केवल मेधावी कहलाते थे, बल्कि विख्यात कॉलेजों में आसानी से दाखिला भी पाते थे। आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ है कि अब सीबीएसई या माध्यमिक शिक्षा के अन्य बोर्डो के विद्यार्थी बड़ी संख्या में 90 प्रतिशत या इससे अधिक नंबर ला रहे हैं? अब स्थिति यह है कि 95 प्रतिशत के नीचे नंबर पाने वाले विद्यार्थियों के अभिभावक परेशान हो उठते हैं, क्योंकि वे यह जानते हैं कि उनके बच्चों को विख्यात कॉलेजों में दाखिला लेने में मुश्किल आ सकती है। आखिर ऐसी स्थिति क्यों आई? क्या ऐसा कुछ है कि बच्चे अचानक अत्यधिक मेधावी हो गए हैं? कहीं ऐसी स्थिति इसलिए तो नहीं बनी कि सीबीएसई ने अपनी परीक्षा प्रणाली बदल दी है? इसमें एक हद तक सच्चाई दिखती है, क्योंकि परीक्षा के बदले पैटर्न के बाद से ही छात्रों में 90 प्रतिशत से अधिक अंक लाने की होड़ शुरू हो गई है। तमाम छात्र कोचिंग के जरिये शत-प्रतिशत अंक लाने की कोशिश करते हैं। ऐसे कोचिंग इंस्टीट्यूट की भी कमी नहीं जो विद्यार्थियों को शत-प्रतिशत नंबर लाने की कला में पारंगत बनाते हैं। सीबीएसई बोर्ड इसके लिए प्रयत्नशील दिखता है कि ज्यादा संख्या में छात्र अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हों। क्या राजनीतिक स्तर पर बोर्ड को इसके लिए प्रेरित किया गया है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि अब प्रश्न पत्र भी सरल बनने लगे हैं और परीक्षकों को भी अंक देने में उदारता बरतने की सलाह दी जाने लगी है। शायद यही कारण है कि जहां 2007 में सीबीएसई बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में 90 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले छात्रों की संख्या करीब आठ हजार थी वहीं इस वर्ष ऐसे छात्रों की संख्या 20 हजार से ज्यादा है। आज के विद्यार्थियों की पढ़ाई-लिखाई का सारा जोर ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने पर रहता है। इस तरीके की शिक्षा प्रणाली से विद्यार्थियों में संपूर्ण बौद्धिक विकास की संभावना क्षीण होती जा रही है, क्योंकि वे सवालों के जवाब रटने तक केंद्रित रहते हैं। समस्या यह भी है कि परीक्षाओं में घूम-फिर कर वही सवाल पूछे जा रहे हैं जो दो-चार वर्ष पहले आ चुके होते हैं। इन सवालों को हल करते समय बौद्धिक कौशल की परख मुश्किल से हो पाती है। बावजूद इसके कोई भी इस पर विचार करने वाला नहीं कि केवल ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने की होड़ में जुटे विद्यार्थियों का भविष्य सुरक्षित कैसे कहा जा सकता है? क्या यह कहा जा सकता है कि ज्यादा अंक लाने की होड़ में फंसे छात्र जीवन की दौड़ में सफलता के चरम पर पहुंच सकते हैं? क्या वे अपने जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान करने में सक्षम होंगे? इस समय शिक्षा का जैसा तंत्र चल रहा है उसमें छात्रों के बौद्धिक कौशल को निखारने और व्यक्तित्व का विकास करने पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। जब तक छात्रों के बौद्धिक कौशल को विकसित करने वाली शिक्षा एवं परीक्षा प्रणाली नहीं बनाई जाती तब तक ऐसी भावी पीढ़ी का निर्माण संभव नहीं जो देश के भविष्य को सुरक्षित रख सके। विडंबना यह है कि आज छात्रों, शिक्षकों और साथ ही स्कूलों का सारा जोर ज्यादा नंबर लाने पर केंद्रित है, क्योंकि इससे ही प्रतिष्ठा का निर्धारण होने लगा है। प्रतिष्ठित कॉलेजों की ऊंची होती कट ऑफ लिस्ट यह बताती है कि ऐसे कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय नाममात्र के हैं जहां दाखिले के लिए मारामारी मचती है। ऐसे शिक्षा संस्थान चंद बड़े शहरों तक ही सीमित हैं और उनमें सीटें भी करीब-करीब यथावत हैं। छोटे और मझोले स्तर के शहरों में ऐसे कॉलेज इक्का-दुक्का हैं जो मेधावी विद्यार्थियों को आकर्षित करते हों। चंद प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों या उनके तहत आने वाले कॉलेजों के शिक्षा स्तर के सामने सामान्य कॉलेजों का शिक्षा स्तर इतना गया बीता है कि अब यह अंतर एक खाई के रूप में नजर आता है। देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों और साथ ही उनके कॉलेजों में पढ़ाई पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। न तो छात्र पढ़ने पर ध्यान देते हैं और न ही शिक्षक पढ़ाने पर। यहां कभी छात्र हड़ताल के मूड में होते हैं तो कभी शिक्षक। रही-सही कसर स्तरहीन पाठ्यक्रम ने पूरी कर दी है। परिणाम यह है कि इन विश्वविद्यालयों से डिग्री धारकों की ऐसी फौज निकल रही है जो देश के लिए उपयोगी नहीं सिद्ध हो रही। चूंकि हमारे देश में गुणवत्ता प्रधान शिक्षा देने वाले कॉलेजों-विश्वविद्यालयों की संख्या बहुत कम है इसलिए उनकी कट ऑफ सूची लगातार ऊंची होना लाजिमी है। इसके चलते 60-70 अथवा 70-80 प्रतिशत अंक पाने वाले छात्रों का मनोबल टूट रहा है। बहुत संभव है कि 90 और 80 प्रतिशत अंक वाले छात्रों का बौद्धिक स्तर एक जैसा हो, लेकिन आज 80 प्रतिशत नंबर वाले छात्रों के लिए किसी प्रतिष्ठित कॉलेज में कोई स्थान नहीं। इन हालात में सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि प्रतिष्ठित कॉलेज अपने यहां दाखिले के लिए अलग से परीक्षा लें, जैसा कि मेडिकल और इंजीनियरिंग शिक्षा संस्थान करते हैं। इससे कम नंबर पाने वाले विद्यार्थियों को भी 90 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले सीबीएसई बोर्ड के छात्रों के साथ प्रतिष्ठित कॉलेजों में दाखिले का अवसर मिल सकेगा, लेकिन इतने भर से बात बनने वाली नहीं है। आज आवश्यकता इसकी भी है कि गुणवत्ता प्रधान शिक्षा वाले कालेजों जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स, सेंट स्टीफेंस आदि को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया जाए। इन्हें अन्य कॉलेजों के शिक्षा स्तर को सुधारने की जिम्मेदारी भी सौंपी जानी चाहिए। देश की शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए इस तरह के बहुत से सुझाव सामने आ चुके हैं, लेकिन किन्हीं कारणों से फिलहाल मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल शिक्षा सुधार के अपने एजेंडे पर आगे बढ़ते नहीं दिख रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र के प्रति यह उदासीनता भारत के विकास में एक बड़ी बाधा है। हमारे नीति-नियंताओं को यह आभास होना चाहिए कि वे शिक्षा क्षेत्र में आवश्यक हो चुके सुधारों की अनदेखी कर देश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।

शत-प्रतिशत अंकों का खौफ


कार्तिकेय दिल्ली के एक नामी-गिरामी स्कूल में ग्यारहवीं में पढ़ते हैं। मैंने 15 जून, 2011 को उनके चेहरे पर तनाव तथा निराशा के भाव देखे। पूछने पर पता चला कि जबसे उन्होंने दिल्ली के एक कॉलेज में प्रवेश के लिए कट-ऑफ लिस्ट देखी है तभी से चिंतित हैं। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज आफ कॉमर्स (एसआरसी) ने विज्ञान के विद्यार्थियों के प्रवेश की अर्हता कक्षा 12 में चार विषयों में शत-प्रतिशत अंकों की रखी है। इस संवेदनहीन घोषणा ने सारे देश में विद्यार्थियों तथा उनके माता-पिता के होश उड़ा दिए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने अवश्य इस प्रकार के निर्णय की अव्यावहारिकता तथा अस्वीकार्यता को पहचाना और उससे अपनी असहमति व्यक्त की। ग्रेडिंग लागू कर बच्चों को तनाव से मुक्त करने का जो प्रयास किया जा रहा है एसआरसी के इस निर्णय ने उस पर पानी फेर दिया है। मेरा विश्वास है कि इस प्रकार के निर्णय संस्था के सभी अध्यापकों को एक साथ मिल बैठकर करने चाहिए। उसके सभी संभावित पक्षों पर खुली चर्चा होनी चाहिए। कुछ कॉलेज अपनी श्रेष्ठता के लिए जाने जाते हैं। कुछ शायद अपने को इसीलिए श्रेष्ठ मान लेते हैं क्योंकि वहां प्रवेश पाने वालों का प्रतिशत प्रति वर्ष ऊंचा उठता जाता है। आजकल मीडिया, विशेषकर कुछ पाक्षिक तथा साप्ताहिक प्रकाशन कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों की श्रेष्ठता सूचियां बनाने लगे हैं। युवाओं पर इनका प्रभाव पड़ता है। यह अलग तथ्य है कि इन श्रेष्ठता सूचियों के पीछे कुछ और कारण भी होते हैं। जो विद्यार्थी स्नातक स्तर पर कॉमर्स पढ़ना चाहते हैं परंतु बारहवीं तक अन्य विषय पढ़कर आए हैं वे इस शत-प्रतिशत अर्हता के शिकार हुए हैं। इन दोनों वगरें के विद्यार्थी जब साथ-साथ पढ़ते हैं तब उनकी शैक्षिक उपलब्धियों में क्या कोई अंतर आता है? कोई भी श्रेष्ठ संस्थान अपने शोध तथा अध्ययन से इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर खोज सकता है और तदनुसार अगले वर्षो में प्रवेश के नियामक तय कर सकता है। यह भी ध्यान रखना होगा कि प्रवेश प्रणाली ऐसी न बन जाए कि विज्ञान के विद्यार्थी प्रवेश पा ही न सकें? दिल्ली में जब इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं तब सीबीएसई को आधारबिंदु मान लिया जाता है। अकसर भुला दिया जाता है कि देश में चालीस से अधिक स्कूल बोर्ड हैं। सबके अंक निर्धारण अलग-अलग स्तर पर होते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लगभग सीधे नियंत्रण में कार्यरत सीबीएसई लगातार अधिक से अधिक अंक प्रदान करने के लिए कुछ वषरें से विशेष रूप से प्रयत्नशील रहा है। आज से 15-20 वर्ष पहले अस्सी प्रतिशत अंक पाने वाला विद्यार्थी श्रेष्ठता की सर्वोच्च श्रेणी में माना जाता था। आज यह सम्मान 95-96 प्रतिशत पाने पर भी नहीं मिलता है। संभव है कि दिल्ली के एक कॉलेज ने अनजाने ही ऐसे अनेक पक्षों पर गहन चर्चा तथा गंभीर निर्णय लेने की आवश्यकता को उजागर कर दिया हो। सबसे पहले यह प्रश्न उठता है कि क्या केवल अधिक अंक ही प्रतिभा की श्रेष्ठता के द्योतक हैं या कुछ और पहलु भी व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास के लिए आवश्यक हैं? क्या निर्णय लेने की क्षमता, सर्जनात्मकता, कलाओं में अभिरुचि, खेलों में भागीदारी जैसे अन्य पक्ष शिक्षा के आवश्यक अंग नहीं हैं? अंकों का आधार प्रवेश प्रक्रिया को सरल बना देता है मगर उच्च शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करता। हर श्रेष्ठ कॉलेज का कर्तव्य है कि वह 4-5 अन्य कॉलेजों से कार्यकारी संबंध स्थापित करे, उनकी श्रेष्ठता में वृद्धि करने का बीड़ा उठाए तथा गुणवत्ता को बढ़ावा दे। यदि दो देशों के बीच की दो संस्थाओं में इंस्टीट्यूशनल नेटवर्किंग हो सकती है तो दिल्ली विश्वविद्यालय के 4-5 कॉलेजों के बीच क्यों नहीं हो सकती? विश्वविद्यालय को विभिन्न विकल्पों पर विचार करना होगा ताकि एक ही कॉलेज पर अनावश्यक दबाव न पड़े तथा केवल अंक ही मानक बनकर न रह जाएं। यदि अंकों पर जोर बढ़ता गया तो हमें न तो नए तेंदुलकर मिलेंगे और न धौनी। अंकों के आधार पर तो महात्मा गांधी और आइंस्टीन कभी आगे की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। साइना नेहवाल तथा सानिया मिर्जा जैसी प्रतिभा वाली कितनी ही बालिकाओं की प्रतिभा कोचिंग तथा ट्यूशन केंद्रों पर मिट्टी में मिल जाती। आज देश के पास अपना छह दशकों का शैक्षिक अनुभव है। राष्ट्रीय स्तर पर अनेक संस्थाएं शोध तथा अध्ययन के कार्य कर रही हैं। केंद्र सरकार अपने विशेषज्ञों को ट्रेनिंग के लिए अमेरिका तथा यूरोप भेजती रहती हैं। कक्षा दस में लागू की गई ग्रेडिंग प्रणाली से बच्चों को कुछ तनाव मुक्ति तथा राहत मिली है। यदि कक्षा बारह तथा प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में नवाचार नहीं किए गए तो तनाव से बचाने के सारे प्रयास व्यर्थ हो जाएंगे। विश्वविद्यालयों तथा स्कूल बोर्ड के बीच लगातार जीवंत संवाद बनाए रखने की कोई कारगर व्यवस्था बनानी होगी, तभी इस प्रकार की समस्याओं का समाधान संभव होगा। इसके साथ-साथ सरकार को भी नए कॉलेज खोलने होंगे। (लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)


अव्यावहारिक मानदंड


दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ कालेजों ने प्रवेश प्रक्रिया के पहले दौर में जिस तरह 12वीं की परीक्षा में केवल 99-100 प्रतिशत अंक पाने वाले छात्रों को ही दाखिले के योग्य माना उससे देश भर के लोगों का चकित होना स्वाभाविक है। इतनी ऊंची कट ऑफ लिस्ट के बाद यदि वे अभिभावक भी बेचैन हो उठे जो भविष्य में अपने बच्चों को दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने का सपना देख रहे हैं तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। इस पर आश्चर्य नहीं कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के साथ-साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति दिनेश सिंह ने इतनी ऊंची कट ऑफ लिस्ट पर अफसोस जाहिर किया, लेकिन इस समस्या के लिए केवल दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों को कठघरे में खड़ा कर कर्तव्य की इतिश्री नहीं की जानी चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि इतनी ऊंची कट ऑफ लिस्ट छात्रों और अभिभावकों को हताश करने वाली है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि 12वीं की परीक्षा में ज्यादा से ज्यादा प्रतिशत अंक पाने वाले छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह सही है कि सौ प्रतिशत अंक पाने वाले दो-चार छात्र ही होंगे, लेकिन नब्बे प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले छात्रों की गिनती करना मुश्किल है। एक तथ्य यह है कि जहां 90 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले छात्रों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है वहीं कालेजों की सीटें सीमित बनी हुई हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कालेजों में 54000 सीटें हैं, जबकि प्रवेश पाने वाले छात्रों की संख्या सवा लाख से अधिक होने का अनुमान है। इस स्थिति में कालेजों के लिए अपनी कट-ऑफ लिस्ट ऊंची रखना मजबूरी है। कालेज चाहकर भी सभी छात्रों को दाखिला नहीं दे सकते। इसमें संदेह नहीं कि प्रवेश के लिए 100 अथवा 99 प्रतिशत अंकों की अनिवार्यता अव्यावहारिक भी है और अनुचित भी, लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय की इस अव्यावहारिकता से एक लाभ यह हुआ कि उच्च शिक्षा की एक गंभीर समस्या सतह पर आ गई। इस समस्या का समाधान आश्चर्य अथवा अफसोस प्रकट कर नहीं किया जा सकता। यह सही समय है कि इस समस्या के मूल कारणों की पहचान कर उनका निवारण किया जाए। आज जैसी समस्या दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले छात्रों के समक्ष है वैसी ही देश के अन्य हिस्सों के छात्रों के सामने भी है और इसका मूल कारण यह है कि गुणवत्ता प्रधान उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थान गिने-चुने हैं। देश में कुछ राज्य तो ऐसे हैं जहां दिल्ली विश्वविद्यालय के स्तर का एक भी विश्वविद्यालय नहीं। परिणाम यह है कि एक बड़ी संख्या में छात्र बेहतर उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली आने के लिए विवश होते हैं। हो सकता है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की चाह रखने वाले छात्रों को दिलासा देने में समर्थ हो जाएं, लेकिन उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि दिल्ली ही देश नहीं है। इसमें संदेह है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय अथवा राज्य सरकारें छात्रों को गुणवत्ता प्रधान उच्च शिक्षा दिलाने के प्रति गंभीर हैं। निश्चित रूप से यह उनकी गंभीरता का सूचक नहीं माना जा सकता कि निजी क्षेत्र उच्च शिक्षा संस्थानों का निर्माण करने में लगा हुआ है। उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र का सहयोग लिया ही जाना चाहिए, लेकिन यदि केंद्र अथवा राज्य सरकारें यह सोच रही हैं कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के सहयोग मात्र से समस्या का समाधान हो जाएगा तो यह सही नहीं।

Friday, June 17, 2011

गांव में हैं बच्चों से बूढों तक सभी निरक्षर


कई कांग्रेस शासित राज्यों में लागू नहीं शिक्षा का अधिकार


छह से 14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) को लागू हुए एक साल से ज्यादा वक्त बीत चुका है मगर कई कांग्रेस शासित राज्यों में ही अब तक यह कानून का रूप नहीं ले सका है। 18 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों ने ही इस कानून को अधिसूचित किया है जबकि दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल, गोवा और असम जैसे कांग्रेस शासित राज्यों में इस पर अभी भी कानून नहीं बनाया जा सका है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार, आंध्रप्रदेश, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह, बिहार, चंडीगढ़, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, दादरा नगर हवेली, दमन दीव, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, लक्षद्वीप, मध्यप्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, उड़ीसा, राजस्थान, सिक्किम ने आरटीई कानून को अधिसूचित कर दिया है। दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मेघालय, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब, कर्नाटक ने अपने विधि विभाग को इस कानून का मसौदा विचार के लिए भेजा है। गुजरात, असम, केरल, मेघालय, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा ने इस कानून को मंजूरी के लिए कैबिनेट के समक्ष भेजने की बात कही है। निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून के तहत ही प्रदेशों में राज्य बाल अधिकार संरक्षण परिषद (एससीपीसीआर) गठित करने का प्रावधान किया गया है। हालांकि अब तक केवल 14 राज्यों में ही राज्य बाल अधिकार संरक्षण परिषद का गठन किया गया है। असम, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गोवा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम और उत्तराखंड ने एससीपीसीआर का गठन किया है। ताजा जनगणना के अनुसार पिछले 10 वर्ष में महिला साक्षरता दर 11.8 फीसदी और पुरुष साक्षरता दर 6.9 फीसदी की दर से बढ़ी है, हालांकि महत्वाकांक्षी सर्व शिक्षा अभियान के आंकड़ों पर गौर करें तो आरटीई लागू होने के एक वर्ष गुजरने के बाद देश में अभी भी 81 लाख 50 हजार 61च् बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर है, 41 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय नहीं है और 49 प्रतिशत स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है। प्राथमिक स्कूलों में दाखिल छात्रों की संख्या 13,34,05,581 है जबच् िउच्च प्राथमिक स्कूलों में नामांकन प्राप्त 5,44,67,415 है। साल 2020 तक सकल नामांकन दर को वर्तमान 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है लेकिन सर्व शिक्षा अभियान के 2009-10 के आंकड़ों के अनुसार, बड़ी संख्या में छात्रों को स्कूली शिक्षा के दायरे में लाने के लक्ष्य के बीच देश में अभी कुल 44,77,429 शिक्षक ही हैं। सर्व शिक्षा अभियान के आंकड़ों के अनुसार, शैक्षणिक वर्ष 2009-10 में प्राथमिक स्तर पर बालिका नामांकन दर 48.46 प्रतिशत और उच्च प्राथमिक स्तर पर बालिका नामांकन दर 48.12 प्रतिशत है। अनुसूचित जाति वर्ग के बच्चों की नामांकन दर 19.81 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति वर्ग च्े बच्चों की नामांकन दर महज 10.93 प्रतिशत दर्ज की गई है। देश में फिलहाल छात्र शिक्षक अनुपात 32:। है। वैसे 324 ऐसे जिले भी हैं जिनमें निर्धारित मानक के अनुरूप छात्र शिक्षक अनुपात 30:। से कम है। देश में 21 प्रतिशत ऐसे शिक्षक हैं जिनके पास पेशेवर डिग्री तक नहीं है।


Thursday, June 16, 2011

कई कांग्रेस शासित राज्यों में लागू नहीं शिक्षा का अधिकार


छह से 14 वर्ष के बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) को लागू हुए एक साल से ज्यादा वक्त बीत चुका है मगर कई कांग्रेस शासित राज्यों में ही अब तक यह कानून का रूप नहीं ले सका है। 18 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों ने ही इस कानून को अधिसूचित किया है जबकि दिल्ली, महाराष्ट्र, केरल, गोवा और असम जैसे कांग्रेस शासित राज्यों में इस पर अभी भी कानून नहीं बनाया जा सका है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार, आंध्रप्रदेश, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह, बिहार, चंडीगढ़, अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, दादरा नगर हवेली, दमन दीव, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, लक्षद्वीप, मध्यप्रदेश, मणिपुर, मिजोरम, नागालैंड, उड़ीसा, राजस्थान, सिक्किम ने आरटीई कानून को अधिसूचित कर दिया है। दिल्ली, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मेघालय, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब, कर्नाटक ने अपने विधि विभाग को इस कानून का मसौदा विचार के लिए भेजा है। गुजरात, असम, केरल, मेघालय, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा ने इस कानून को मंजूरी के लिए कैबिनेट के समक्ष भेजने की बात कही है। निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून के तहत ही प्रदेशों में राज्य बाल अधिकार संरक्षण परिषद (एससीपीसीआर) गठित करने का प्रावधान किया गया है। हालांकि अब तक केवल 14 राज्यों में ही राज्य बाल अधिकार संरक्षण परिषद का गठन किया गया है। असम, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, गोवा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, सिक्किम और उत्तराखंड ने एससीपीसीआर का गठन किया है। ताजा जनगणना के अनुसार पिछले 10 वर्ष में महिला साक्षरता दर 11.8 फीसदी और पुरुष साक्षरता दर 6.9 फीसदी की दर से बढ़ी है, हालांकि महत्वाकांक्षी सर्व शिक्षा अभियान के आंकड़ों पर गौर करें तो आरटीई लागू होने के एक वर्ष गुजरने के बाद देश में अभी भी 81 लाख 50 हजार 61च् बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर है, 41 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय नहीं है और 49 प्रतिशत स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है। प्राथमिक स्कूलों में दाखिल छात्रों की संख्या 13,34,05,581 है जबच् िउच्च प्राथमिक स्कूलों में नामांकन प्राप्त 5,44,67,415 है। साल 2020 तक सकल नामांकन दर को वर्तमान 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 30 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है लेकिन सर्व शिक्षा अभियान के 2009-10 के आंकड़ों के अनुसार, बड़ी संख्या में छात्रों को स्कूली शिक्षा के दायरे में लाने के लक्ष्य के बीच देश में अभी कुल 44,77,429 शिक्षक ही हैं। सर्व शिक्षा अभियान के आंकड़ों के अनुसार, शैक्षणिक वर्ष 2009-10 में प्राथमिक स्तर पर बालिका नामांकन दर 48.46 प्रतिशत और उच्च प्राथमिक स्तर पर बालिका नामांकन दर 48.12 प्रतिशत है। अनुसूचित जाति वर्ग के बच्चों की नामांकन दर 19.81 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति वर्ग च्े बच्चों की नामांकन दर महज 10.93 प्रतिशत दर्ज की गई है। देश में फिलहाल छात्र शिक्षक अनुपात 32:। है। वैसे 324 ऐसे जिले भी हैं जिनमें निर्धारित मानक के अनुरूप छात्र शिक्षक अनुपात 30:। से कम है। देश में 21 प्रतिशत ऐसे शिक्षक हैं जिनके पास पेशेवर डिग्री तक नहीं है।

Wednesday, June 15, 2011

रोजगारपरक शिक्षा की दरकार


केंद्र सरकार द्वारा आठवीं तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का दायरा बढ़ाकर हाईस्कूल तक किया जाना एक अनावश्यक और गैर जरूरी कदम है। जब देश में पहले से ही राइट टू एजूकेशन कानून लागू है तो इस नए पहल की आवश्यकता ही क्या थी? शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार तो बना दिया गया, लेकिन बच्चों को किस तरह गुणवत्ता और उपयोगी मिले ताकि वे निजी स्कूलों से पढ़कर निकलने वाले बच्चों के बराबर न सही, लेकिन कुछ तो समान हो सकें। इसके लिए जिस तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर और सरकार के सहयोग की जरूरत थी वैसी फिलहाल तो नहीं ही मिल पा रही है। यही कारण है कि इस योजना के लागू हुए काफी समय बीत जाने के बावजूद परिणाम कोई संतोषजनक नहीं है। बेहतर हो कि हम इस कानून को सफल बनाने के लिए कर्मठता और ईमानदारी से कुछ प्रयास करें ताकि देश में गरीब और गांवों में रहने वाले बच्चों को आगे बढ़ने का मौका मिल सके। यदि आंकड़ों के तौर पर गिनाने के लिए ही सरकार प्रयास करना चाहती है तो इससे न तो शिक्षा का विकास होगा और न ही इसका विस्तार। यही तमाम कारण हैं कि सरकारी स्कूलों के प्रति थोड़े बहुत भी शिक्षित और समर्थ लोगों का रुझान घट रहा है। कपिल सिब्बल द्वारा मुफ्त शिक्षा का दायरा बढ़ाने की जो नीति बनाई गई है उसका अमलीकरण वर्ष 2013 से पहले शुरू नहीं हो सकता है। हमारे देश में अगला लोकसभा चुनाव वर्ष 2014 में होने हैं। इस तरह साफ है कि योजना का उद्देश्य गरीब बच्चों को शिक्षा देने की बजाय चुनावों में लाभ हासिल करने की तैयारी है। कुल मिलाकर यह एक चुनावी अभियान का हिस्सा है, जिसके भरोसे शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने और सभी को इसके लाभ से फलीभूत कराने की बात एक शिगूफा से ज्यादा कुछ नहीं है। आज हमारे देश में 10-12 लाख शिक्षकों की कमी है। इसके लिए शिक्षकों के पदस्थापन की प्रक्रिया शुरू करने की बजाय नित नई योजनाओं को शुरू करने मात्र से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। आज निजी स्कूलों की संख्या देश में तेजी से बढ़ रही है, जहां बच्चों से फीस के तौर पर मोटा पैसा उगाहा जाता है। आज यह एक बिजनेस का रूप ले लिया है, लेकिन हमारी सरकार इन स्कूलों को टैक्स से मुक्त रखी है। यह गलत है। सरकार अभी भी मानती है कि यह स्कूल गैर लाभकारी और सामाजिक संस्थाएं हैं जिस कारण इनसे टैक्स की वसूली नहीं की जानी चाहिए। यदि दिल्ली सरकार की ही बात करें तो यहां पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत स्कूलों में 25 प्रतिशत बच्चों को प्रवेश देने की नीति है, लेकिन इसका व्यावहारिक क्रियान्वयन शायद ही किसी स्कूल में हो पाता है। इसके लिए इन स्कूलों के पास बहानों की भी कोई कमी नहीं होती। कई स्कूल तो ऐसे बच्चों के लिए अलग कक्षाएं संचालित करवाते हैं जिसमें न तो अच्छे शिक्षक होते हैं और न ही शिक्षा का कोई स्तर होता है। साफ है कि यह सब खानापूर्ति के लिए ही किया जाता है। यदि सरकार चाहे और दृढ़ता दिखाए तो इस स्थिति में बदलाव आ सकता है और ऐसे बच्चों के लिए अलग से कक्षाएं चलाए जाने की बजाय सामान्य कक्षाओं में बैठने की व्यवस्था कराई जा सकती है। शिक्षा के मामले में देश में जिस तरह की स्थिति है उसे देखते हुए हम यह नहीं कह सकते कि सरकार इसके प्रति तनिक भी प्रतिबद्ध है। शिक्षा का व्यवसायीकरण और माफियाकरण हो गया है। इसके लिए बाकायदा लॉबिइंग की जाती है और अधिक से अधिक लाभ पाने और कमाने के लिए हरसंभव उपाय अपनाए जाते हैं। बेहतर तो यह होगा कि नई योजनाओं को लागू करने से पहले पुरानी योजनाओं के क्रियान्वयन पर ध्यान दिया जाए और उन्हें ही बेहतर व सशक्त बनाया जाए। शिक्षा में आज अधिक पारदर्शिता की जरूरत है। इसके लिए न केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है बल्कि इसे अधिक पेशेवर ढंग से और जवाबदेही से चलाने के लिए ईमानदारी की भी आवश्यकता है। ऐसा लगता है कि हर कोई अपनी जिम्मेवारी की खानापूर्ति करने की जल्दी में है। शिक्षा के प्रति हमारी प्राथमिकता में आज बदलाव की आवश्यकता है। आज हमें रोजगारपरक, गुणवत्तापूर्ण और बेहतर शिक्षा की जरूरत है। इसके लिए दूरदर्शी नीतियों के निर्माण व क्रियान्वयन की आवश्यकता है। सिर्फ नई नीतियों अथवा योजनाओं को बना देने भर से कुछ खास नहीं हासिल होने वाला है। (लेखक एनसीआरटी के पूर्व निदेशक हैं)


क्या मुफ्त शिक्षा से पूरा होगा मकसद


कक्षा एक से आठवींतक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के बाद केंद्र सरकार ने इसका दायरा हाईस्कूल तक बढ़ाने का फैसला कर लिया है। मगर यह व्यवस्था कितनी कारगर होगी, यह अभी भी यक्ष प्रश्न बना हुआ है। इस फैसले से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सरकार की मंशा एक जागरूक और शिक्षित समाज का निर्माण करने की बजाय सियासी लाभ लेने की है। सरकारी स्कूलों में दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता, उसका स्तर किसी से छिपा नहीं है। निजी स्कूलों और सरकारी विद्यालयों में पढ़ाई के स्तर में जमीन-आसमान का अंतर है। ऐसे लोक-लुभावने कार्यक्रमों से यह तो प्रचारित होगा कि सरकार सभी को मुफ्त शिक्षा दे रही है, लेकिन इन स्कूलों से निकले बच्चे क्या उच्च शिक्षा और प्रतियोगी परीक्षाओं में निजी स्कूलों के बच्चों से प्रतिस्पद्र्धा कर पाएंगे? वास्तव में यह सोचना ही बेमानी होगा। सरकार यह समझती है कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का कानून बना देने से सौ फीसदी साक्षरता का लक्ष्य हासिल हो जाएगा तो यह हास्यापद है। हां, आंकडे़बाजी से ऐसा मुमकिन भी हो सकता है। लेकिन माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तर पर छात्र-छात्राओं के पढ़ाई छोड़ने की वजह सिर्फ आर्थिक तंगी नहीं है। गुणवत्तापूर्ण और रोजगारपरक शिक्षा के अभाव में ऐसा हो रहा है। अभिभावक और बच्चों को लगता है कि दस-पंद्रह साल कलम घिसने की बजाय कोई हुनर सीखकर ज्यादा पैसा कमाया जा सकता है। बीए-एमए कर रोजगार के लिए मारे-मारे फिर रहे युवकों का हश्र उनके सामने है। वह देख रहे हैं कि पोस्ट ग्रेजुएट करने के बावजूद कैसे युवक तीन-चार हजार रुपये की नौकरी को तरस रहे हैं। सवाल उठता है कि शिक्षा को तकनीकी और रोजगारपरक बनाने की बजाय मुफ्त शिक्षा का ढिंढोरा पीटकर सरकार क्या हासिल करना चाहती है। सर्वशिक्षा अभियान पर अरबों रुपये फूंककर सरकार यह तो दावा ठोक रही है कि हम गरीबों और पिछड़ों के सामाजिक उत्थान के प्रति गंभीर हैं, मगर यह ढकोसले से कम नहींहै। सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छिपी नहीं है। एक या दो कमरे के विद्यालयों में एक से लेकर पांच अलग-अलग कक्षाओं के बच्चों को रखा जा रहा है। वहां न बिजली है और न पर्याप्त संसाधन। अगर अध्यापक बच्चों को वाकई काबिल बनाने के लिए कक्षाओं में मेहनत करते तो इन सुविधाओं के बिना भी काम चल सकता था, लेकिन इन स्कूलों की जमीनी हकीकत देखकर लगता है कि सबकी मंशा बच्चों को स्कूली बाड़े में रोकने की है। सरकारी अध्यापकों और सर्वशिक्षा अभियान से जुड़े अधिकारी सिर्फ आंकड़ेबाजी कर वाहवाही लूट रहे हैं। सारी कवायद बच्चों को मिड-डे मील खिलाने, आंकड़ों की खानापूरी करने के लिए दर्जनों रजिस्टर तैयार करने तक सीमित रह गई है। हाल ही में एक गैर सरकारी संगठन की रिपोर्ट में सामने आया है कि इन प्राथमिक स्कूलों के कक्षा पांच तक के बच्चे सामान्य गुणा-भाग तक करना नहीं जानते। उन्हें पढ़ाने की बजाय अध्यापक एक दो घंटे हाजिरी लगाकर मौज लूट रहे हैं। सरकारी शिक्षा का स्तर हम बरसों से देख रहे हैं। ज्यादातर सरकारी और वित्तीय सहायता प्राप्त माध्यमिक स्कूलों में बच्चों की संख्या न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। वहां अध्यापक नहीं हैं और पढ़ाई से लेकर परीक्षा तक अनुशासन नाम की चीज नहीं है। राज्य सरकारों की भी मंशा इन स्कूलों को आगे संचालित करने की नहीं है। निजी प्रबंधन भी करोड़ों की जमीन पर चल रहे इन स्कूलों को बंद कर अपना उल्लू सीधा करने में जुटा हुआ है। इन स्कूलों में पहले ही एक या दो रुपये की सांकेतिक फीस ली जा रही है। ऐसे में मुफ्त शिक्षा देकर कौन-सा चमत्कार हो जाएगा। दूसरी ओर निजी स्कूल अगर महंगी फीस ले रहे हैं तो वह गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा भी दे रहे हैं। हिंदी और अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूलों के बच्चे ही परीक्षा परिणामों और प्रतियोगी परीक्षाओं में टॉप कर रहे हैं। अब यह माना जा चुका है कि सरकार अपने नियंत्रण में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे सकती। अन्य क्षेत्रों में निजीकरण की पहल इसी मंशा को प्रतिबिंबित करती है। नौकरशाही के लचर रवैये और सरकारी अध्यापकों की आरामतलबी के आगे सरकार बेबस है। फिर न जाने क्यों सरकार उसी रास्ते पर चलना चाहती है, जबकि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में वह पूर्ण निजीकरण या सरकारी निजी सहयोग के मॉडल पर काम कर रही है। सबको शिक्षा के अधिकार पर सरकार चालीस से पचास हजार करोड़ खर्च कर रही है, लेकिन नतीजा सिफर है। इन स्कूलों में मिलने वाली अधकचरी शिक्षा सामाजिक असंतोष को और बढ़ाएगी। शहरी स्कूलों से निकलने वाले बच्चे तो रोजगार और तरक्की हासिल कर पाएंगे, लेकिन गांवों और कस्बों के प्राइमरी स्कूलों के छात्र कुंठा और तनाव का शिकार होंगे। इससे वंचित वर्ग का शिक्षा से अलगाव और बढ़ेगा। सरकार को यह समझना होगा कि किसी भी कानून के जरिए किसी को पढ़ाई के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। आर्थिक प्रोत्साहन और प्रेरणा शिक्षा की ओर आकर्षित करती है। इसके बिना इंडिया और भारत का भेद कभी नहींमिटाया जा सकेगा। इसकी बजाय निजी स्कूलों में 25 फीसदी गरीब और आर्थिक रूप से पिछड़े बच्चों के दाखिले का फैसला ज्यादा मुफीद बैठता है। खुद विद्यालयों का संचालन कर और सरकारी अध्यापकों की फौज खड़ी कर सरकार वह हासिल नहीं कर पाएगी, जो पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) के इस मॉडल से पाया जा सकता है। आर्थिक तंगी के शिकार परिवार, जो अपने बच्चों को गुणवत्ताविहीन सरकारी स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर थे, उनके बच्चे भी इस तरह से गुणवत्तापूर्ण और प्रतिस्प‌र्द्धी शिक्षा पा सकते हैं। साथ ही रोजगार भी हासिल कर सकते हैं। दम तोड़ चुकी सरकारी प्रणाली में अरबों फूंकने की बजाय अगर ऐसे स्कूलों को सरकार सब्सिडी मुहैया कराएगी तो सामाजिक न्याय और समानता का लक्ष्य पाया जा सकता है। जरूरत प्रेरणा, प्रोत्साहन, बेहतर माहौल और गुणवत्ता की है, न कि उपहार के तौर पर मुफ्त शिक्षा देने की। सरकार को चाहिए कि प्राथमिक विद्यालयों का निर्माण कर उनका संचालन निजी हाथों में सौंप देना चाहिए। वित्तीय सहायता मुहैया कराकर ऐसे स्कूलों में अनुशासन का डंडा भी चलाया जा सकता है और शिक्षा का बजट भी कम किया जा सकता है। इन स्कूलों में शत प्रतिशत गरीब बच्चों को ही भर्ती करने की योजना भी तभी कारगर होगी। इससे सरकारी शिक्षा का भारी-भरकम बजट भी कम होगा और संसाधन जुटाने भी सरकार को मेहनत नहीं करनी होगी। ग्रामसभा स्तर पर इन स्कूलों की निगरानी मौजूदा व्यवस्था पहले की तरह कायम रह सकती है। ग्रामसभा स्तर के मेधावी युवकों को शिक्षक के तौर पर नियुक्ति देकर सरकार दोहरा लक्ष्य हासिल कर पाएगी। एक ओर अध्यापकों और छात्रों पर पढ़ाई का नैतिक दबाव होगा तो दूसरी ओर स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। लाख टके की बात है कि सरकार संचालक और कर्ता की भूमिका छोड़कर प्रोत्साहक और निगरानीकर्ता की भूमिका में रहे तो संसाधन भी कम खर्च होंगे और अनुशासन का डंडा भी चलाया जा सकेगा।