Wednesday, June 29, 2011

अव्यावहारिक मानदंड


दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ कालेजों ने प्रवेश प्रक्रिया के पहले दौर में जिस तरह 12वीं की परीक्षा में केवल 99-100 प्रतिशत अंक पाने वाले छात्रों को ही दाखिले के योग्य माना उससे देश भर के लोगों का चकित होना स्वाभाविक है। इतनी ऊंची कट ऑफ लिस्ट के बाद यदि वे अभिभावक भी बेचैन हो उठे जो भविष्य में अपने बच्चों को दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने का सपना देख रहे हैं तो इसके लिए उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। इस पर आश्चर्य नहीं कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के साथ-साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति दिनेश सिंह ने इतनी ऊंची कट ऑफ लिस्ट पर अफसोस जाहिर किया, लेकिन इस समस्या के लिए केवल दिल्ली विश्वविद्यालय के कालेजों को कठघरे में खड़ा कर कर्तव्य की इतिश्री नहीं की जानी चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि इतनी ऊंची कट ऑफ लिस्ट छात्रों और अभिभावकों को हताश करने वाली है, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि 12वीं की परीक्षा में ज्यादा से ज्यादा प्रतिशत अंक पाने वाले छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह सही है कि सौ प्रतिशत अंक पाने वाले दो-चार छात्र ही होंगे, लेकिन नब्बे प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले छात्रों की गिनती करना मुश्किल है। एक तथ्य यह है कि जहां 90 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले छात्रों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है वहीं कालेजों की सीटें सीमित बनी हुई हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कालेजों में 54000 सीटें हैं, जबकि प्रवेश पाने वाले छात्रों की संख्या सवा लाख से अधिक होने का अनुमान है। इस स्थिति में कालेजों के लिए अपनी कट-ऑफ लिस्ट ऊंची रखना मजबूरी है। कालेज चाहकर भी सभी छात्रों को दाखिला नहीं दे सकते। इसमें संदेह नहीं कि प्रवेश के लिए 100 अथवा 99 प्रतिशत अंकों की अनिवार्यता अव्यावहारिक भी है और अनुचित भी, लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय की इस अव्यावहारिकता से एक लाभ यह हुआ कि उच्च शिक्षा की एक गंभीर समस्या सतह पर आ गई। इस समस्या का समाधान आश्चर्य अथवा अफसोस प्रकट कर नहीं किया जा सकता। यह सही समय है कि इस समस्या के मूल कारणों की पहचान कर उनका निवारण किया जाए। आज जैसी समस्या दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेने वाले छात्रों के समक्ष है वैसी ही देश के अन्य हिस्सों के छात्रों के सामने भी है और इसका मूल कारण यह है कि गुणवत्ता प्रधान उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थान गिने-चुने हैं। देश में कुछ राज्य तो ऐसे हैं जहां दिल्ली विश्वविद्यालय के स्तर का एक भी विश्वविद्यालय नहीं। परिणाम यह है कि एक बड़ी संख्या में छात्र बेहतर उच्च शिक्षा के लिए दिल्ली आने के लिए विवश होते हैं। हो सकता है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की चाह रखने वाले छात्रों को दिलासा देने में समर्थ हो जाएं, लेकिन उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि दिल्ली ही देश नहीं है। इसमें संदेह है कि केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय अथवा राज्य सरकारें छात्रों को गुणवत्ता प्रधान उच्च शिक्षा दिलाने के प्रति गंभीर हैं। निश्चित रूप से यह उनकी गंभीरता का सूचक नहीं माना जा सकता कि निजी क्षेत्र उच्च शिक्षा संस्थानों का निर्माण करने में लगा हुआ है। उच्च शिक्षा में निजी क्षेत्र का सहयोग लिया ही जाना चाहिए, लेकिन यदि केंद्र अथवा राज्य सरकारें यह सोच रही हैं कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के सहयोग मात्र से समस्या का समाधान हो जाएगा तो यह सही नहीं।

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