Wednesday, June 1, 2011

शिक्षा व्यवस्था में सुधार जरूरी


मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा कानून की अब तक की सफलता के बाद सरकार अब इसका दायरा बढ़ाने के प्रति गंभीर हो गई है। अभी यह कानून सिर्फ आठवीं तक के बच्चों के लिए है। इस स्तर तक पूरे तो नहीं, पर कुछ हद तक तो इसके अच्छे परिणाम सामने आए ही हैं। अब इस कानून के दायरे में नौवीं और दसवीं कक्षाओं को भी ले आने का खाका तैयार किया जा चुका है। यह तैयारी अभी केंद्र के स्तर पर है और अमल में इसे तभी लाया जा सकेगा, जब राज्यों की सहमति मिल जाएगी। राज्यों के शिक्षा मंत्रियों का सम्मेलन और केंद्रीय शिक्षा सलाहकार परिषद (केब) की बैठक भी अगले ही हफ्ते होने वाली है। जाहिर है, विस्तार के इस प्रस्ताव पर केब की राय भी ली जाएगी। शिक्षा सबके लिए अनिवार्य होनी चाहिए, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। खास कर हमारे देश के पिछड़े तबकों में शिक्षा के प्रति जागरूकता की जैसी स्थिति है, उसे देखते हुए इसे कानूनन अनिवार्य बनाए बगैर बेहतर परिणाम हासिल करने की बात सोची ही नहीं जा सकती थी। देश की राजनीतिक व्यवस्था के संघीय ढांचे के कारण इसके लिए बिना किसी दबाव के राज्यों की सहमति हासिल करना भी जरूरी है। इसके बावजूद शिक्षा से जुड़े कुछ मसलों पर गंभीरता से विचार करना जरूरी है। इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता कि शिक्षा का मतलब सिर्फ अक्षर ज्ञान तक सीमित नहीं है। केवल साक्षर हो जाने, या कुछ विषयों के पाठ याद करके परीक्षाएं पास कर लेने भर से शिक्षा के प्रसार का वास्तविक उद्देश्य पूरा होने वाला नहीं है। हमारे देश के अधिकतर नौजवान अभी भी शिक्षा का कुल मतलब केवल डिग्री हासिल करने और डिग्री का अर्थ नौकरी पाने तक सीमित समझते हैं। इसी सोच का यह परिणाम है कि शिक्षित बेरोजगारों की संख्या पूरे देश में लगातार बढ़ती ही जा रही है और आज व्यवस्था के सामने जो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं, उनमें एक बेरोजगारी भी है। मुख्य रूप से शिक्षित युवाओं के सामने उनकी योग्यता के अनुरूप काम मिल पाना एक बहुत बड़ा संकट है। बेरोजगारी की समस्या के दिन-ब-दिन बढ़ते चले जाने के मूल में नौकरी पर लोगों की निर्भरता की सोच ही जिम्मेदार है। अधिकतर युवा शिक्षा हासिल कर लेने के बाद नौकरी के अलावा किसी और दिशा में सोचते ही नहीं हैं। आखिर क्यों? जिम्मेदार लोगों को इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। कहीं न कहीं इसकी वजह हमारी शिक्षा व्यवस्था में ही छिपी हुई है। असलियत यह है कि हमारी शिक्षा युवाओं को नौकरी के अलावा कोई और दिशा ही नहीं देती है। कोई चाहे कुछ भी और किसी भी स्तर तक की पढ़ाई कर ले, आम तौर पर बच्चों की सोच शुरू से ही नौकरी की बनाई जाती है। उद्यमिता आम जन की सोच से ही गायब हो गई है। इसे बढ़ावा देने के लिए कोई सार्थक और सकारात्मक प्रयास भी सरकार या शिक्षा व्यवस्था की ओर से नहीं की जा रही है। शिक्षा व्यवस्था से जुड़े लोगों को यह सोचना होगा कि यह कैसे किया जा सकता है। ऐसे कौन से तरीके अपनाए जाएं जिनसे शिक्षित युवाओं में उद्यमिता की सोच विकसित हो, यह तय करना आखिर किसकी जिम्मेदारी होगी? आमतौर पर सरकारी स्कूलों में जिस तरह की शिक्षा दी जा रही है, उसमें बच्चों को केवल कुछ विषयों के पाठ पढ़ा दिए जाते हैं। इन पाठों में भी अधिकतर ऐसे हैं जो बाद में किसी काम नहीं आते। उनके व्यक्तित्व के विकास के लिए सरकारी स्कूलों में कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। अधिकतर सरकारी स्कूलों की स्थिति तो यह है कि पढ़ाई भी ढंग से नहीं हो रही है। उन स्कूलों में शिक्षा की अनिवार्यता के कानून के तहत बच्चों को भेजने से भी क्या लाभ हासिल होने वाला है जहां न तो अनुशासन है और न ही पर्याप्त संसाधन। अच्छे अध्यापकों के होते हुए भी पढ़ाई का माहौल तक नहीं बन पाता। कहीं अध्यापक पूरे दिन दोपहर के भोजन की खानापूरी में लगे रहते हैं, तो कभी जनगणना, मतदाता पहचान पत्र, सर्वेक्षण आदि शिक्षणेतर कार्यो में लगे हुए हैं। जो स्कूलों में मौजूद हैं, उनके लिए भी विभिन्न कारणों से पढ़ाना मुश्किल हो गया है। नतीजा यह है कि शिक्षा को उच्च प्राथमिकता मानने वाला कोई भी जागरूक अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए तैयार नहीं है। अपनी आर्थिक स्थिति कमजोर और पढ़ाई बेहद महंगी होते हुए भी ऐसे अधिकतर अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। क्या यह देश की शिक्षा व्यवस्था के लिए शर्मनाक नहीं है? इस लिहाज से देखें तो सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि देश की शिक्षा व्यवस्था को जिम्मेदार और जवाबदेह बनाया जाए। इसके अलावा शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर भी पहले की तुलना में लगातार घटता दिख रहा है। हम छात्रों को सूचनाओं और तकनीकी ज्ञान से भले ही समृद्ध बना रहे हों, लेकिन उनके नैतिक विकास और सामाजिक-राजनीतिक जागरूकता पर या तो बिलकुल ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है, या अगर दिया भी जा रहा हो तो उसे वे अपने जीवन में उतार नहीं पा रहे हैं। आखिर इसकी वजह क्या है? जाहिर है, वे नैतिक सीखों को सिर्फ किताबी ज्ञान की तरह रटा देने भर से अमल में लाने वाले नहीं हैं। वे इसे अपने जीवन में उतार सकें, इसके लिए जरूरी है कि उनके सामने ऐसे रोल मॉडल हों। आज के युवाओं का शायद सबसे बड़ा संकट यह है कि वे अपने चारों तरफ जब नजर दौड़ाते हैं तो उन्हें इन नैतिक सीखों पर अमल करता कोई भी दिखाई नहीं देता है। अगर वे कुछ लोगों को इन बातों पर अमल करते देखते भी हैं तो उनकी भौतिक सफलता की स्थिति देखकर उन्हें बड़ी हताशा होती है। परिणाम यह हो रहा है कि वे राष्ट्रीय भावना को नहीं अपना पा रहे हैं। इन मसलों पर गौर करें तो पाते हैं कि आमजन को सुलभ हमारी शिक्षा व्यवस्था न तो रोजगार दे पा रही है और न बेहतर नागरिक ही बना पा रही है। यह केवल बेरोजगारों और गैर जिम्मेदार लोगों की फौज खड़ी कर रही है। हाल ही में आइआइटी और आइआइएम जैसे संस्थानों के संबंध में केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की टिप्पणी से भले ही लोग सहमत न हों और यहां तक कि खुद उन्हें ही अपनी बात वापस लेनी पड़ी, लेकिन यह सच्चाई है कि हमारी शिक्षा में गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। इस बात को टाला नहीं जाना चाहिए। सच तो यह है कि इसे उच्च प्राथमिकता का सवाल मानते हुए इस पर गंभीरता से गौर किया जाना चाहिए। सरकार को इस दिशा में भी सोचना होगा कि जिन लोगों की पहुंच शिक्षा तक नहीं हो पा रही है उन्हें तो शिक्षा दी ही जाए, लेकिन जो शिक्षा का मूल्य बढ़ने के कारण इससे दूर होने को विवश हैं उनके लिए भी कुछ इंतजाम बनाए जाएं। सरकारी शिक्षा को सिर्फ मुफ्त की शिक्षा बनाने के बजाय उसकी गुणवत्ता पर भी ध्यान दिया जाए। यह सुनिश्चित किया जाए कि जो नौजवान पढ़-लिखकर निकलें, वे सिर्फ साक्षर न हों, बल्कि उद्यमी और जिम्मेदार नागरिक भी बनें। (लेखक दैनिक जागरण हरियाणा, पंजाब व हिमाचल प्रदेश के स्थानीय संपादक हैं)


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