Wednesday, June 15, 2011

रोजगारपरक शिक्षा की दरकार


केंद्र सरकार द्वारा आठवीं तक मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का दायरा बढ़ाकर हाईस्कूल तक किया जाना एक अनावश्यक और गैर जरूरी कदम है। जब देश में पहले से ही राइट टू एजूकेशन कानून लागू है तो इस नए पहल की आवश्यकता ही क्या थी? शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार तो बना दिया गया, लेकिन बच्चों को किस तरह गुणवत्ता और उपयोगी मिले ताकि वे निजी स्कूलों से पढ़कर निकलने वाले बच्चों के बराबर न सही, लेकिन कुछ तो समान हो सकें। इसके लिए जिस तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर और सरकार के सहयोग की जरूरत थी वैसी फिलहाल तो नहीं ही मिल पा रही है। यही कारण है कि इस योजना के लागू हुए काफी समय बीत जाने के बावजूद परिणाम कोई संतोषजनक नहीं है। बेहतर हो कि हम इस कानून को सफल बनाने के लिए कर्मठता और ईमानदारी से कुछ प्रयास करें ताकि देश में गरीब और गांवों में रहने वाले बच्चों को आगे बढ़ने का मौका मिल सके। यदि आंकड़ों के तौर पर गिनाने के लिए ही सरकार प्रयास करना चाहती है तो इससे न तो शिक्षा का विकास होगा और न ही इसका विस्तार। यही तमाम कारण हैं कि सरकारी स्कूलों के प्रति थोड़े बहुत भी शिक्षित और समर्थ लोगों का रुझान घट रहा है। कपिल सिब्बल द्वारा मुफ्त शिक्षा का दायरा बढ़ाने की जो नीति बनाई गई है उसका अमलीकरण वर्ष 2013 से पहले शुरू नहीं हो सकता है। हमारे देश में अगला लोकसभा चुनाव वर्ष 2014 में होने हैं। इस तरह साफ है कि योजना का उद्देश्य गरीब बच्चों को शिक्षा देने की बजाय चुनावों में लाभ हासिल करने की तैयारी है। कुल मिलाकर यह एक चुनावी अभियान का हिस्सा है, जिसके भरोसे शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने और सभी को इसके लाभ से फलीभूत कराने की बात एक शिगूफा से ज्यादा कुछ नहीं है। आज हमारे देश में 10-12 लाख शिक्षकों की कमी है। इसके लिए शिक्षकों के पदस्थापन की प्रक्रिया शुरू करने की बजाय नित नई योजनाओं को शुरू करने मात्र से कुछ हासिल नहीं होने वाला है। आज निजी स्कूलों की संख्या देश में तेजी से बढ़ रही है, जहां बच्चों से फीस के तौर पर मोटा पैसा उगाहा जाता है। आज यह एक बिजनेस का रूप ले लिया है, लेकिन हमारी सरकार इन स्कूलों को टैक्स से मुक्त रखी है। यह गलत है। सरकार अभी भी मानती है कि यह स्कूल गैर लाभकारी और सामाजिक संस्थाएं हैं जिस कारण इनसे टैक्स की वसूली नहीं की जानी चाहिए। यदि दिल्ली सरकार की ही बात करें तो यहां पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत स्कूलों में 25 प्रतिशत बच्चों को प्रवेश देने की नीति है, लेकिन इसका व्यावहारिक क्रियान्वयन शायद ही किसी स्कूल में हो पाता है। इसके लिए इन स्कूलों के पास बहानों की भी कोई कमी नहीं होती। कई स्कूल तो ऐसे बच्चों के लिए अलग कक्षाएं संचालित करवाते हैं जिसमें न तो अच्छे शिक्षक होते हैं और न ही शिक्षा का कोई स्तर होता है। साफ है कि यह सब खानापूर्ति के लिए ही किया जाता है। यदि सरकार चाहे और दृढ़ता दिखाए तो इस स्थिति में बदलाव आ सकता है और ऐसे बच्चों के लिए अलग से कक्षाएं चलाए जाने की बजाय सामान्य कक्षाओं में बैठने की व्यवस्था कराई जा सकती है। शिक्षा के मामले में देश में जिस तरह की स्थिति है उसे देखते हुए हम यह नहीं कह सकते कि सरकार इसके प्रति तनिक भी प्रतिबद्ध है। शिक्षा का व्यवसायीकरण और माफियाकरण हो गया है। इसके लिए बाकायदा लॉबिइंग की जाती है और अधिक से अधिक लाभ पाने और कमाने के लिए हरसंभव उपाय अपनाए जाते हैं। बेहतर तो यह होगा कि नई योजनाओं को लागू करने से पहले पुरानी योजनाओं के क्रियान्वयन पर ध्यान दिया जाए और उन्हें ही बेहतर व सशक्त बनाया जाए। शिक्षा में आज अधिक पारदर्शिता की जरूरत है। इसके लिए न केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है बल्कि इसे अधिक पेशेवर ढंग से और जवाबदेही से चलाने के लिए ईमानदारी की भी आवश्यकता है। ऐसा लगता है कि हर कोई अपनी जिम्मेवारी की खानापूर्ति करने की जल्दी में है। शिक्षा के प्रति हमारी प्राथमिकता में आज बदलाव की आवश्यकता है। आज हमें रोजगारपरक, गुणवत्तापूर्ण और बेहतर शिक्षा की जरूरत है। इसके लिए दूरदर्शी नीतियों के निर्माण व क्रियान्वयन की आवश्यकता है। सिर्फ नई नीतियों अथवा योजनाओं को बना देने भर से कुछ खास नहीं हासिल होने वाला है। (लेखक एनसीआरटी के पूर्व निदेशक हैं)


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