Saturday, June 4, 2011

संस्थानों पर सीमित बहस


लेखक आइआइटी-आइआइएम की गुणवत्ता पर जारी बहस में मूल मुद्दा हाशिए पर जाता देख रहे हैं ….
पिछले दिनों आइआइटी और आइआइएम को लेकर दिए गए पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के बयानों से उठे विवादों ने भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता पर नए सिरे से विचार करने के लिए मौका दे दिया है, लेकिन दुर्भाग्यवश पूरा विवाद और चर्चा बिल्कुल एकांगी हो रही है। बहस सिर्फ इस बात पर सिमट कर रह गई कि हमारे आइआइटी और आइआइएम विश्वस्तरीय हैं या नहीं? विवाद की शुरुआत रमेश की इस टिप्पणी से हुई कि आइआइटी और आइआइएम के विद्यार्थी तो विश्वस्तरीय हैं, लेकिन शिक्षक नहीं और यह कि आइआइटी और आइआइएम के शिक्षकों का शोध और शिक्षण में मौलिक योगदान नगण्य है। इस पूरे शोरगुल में एक ज्यादा बहुत महत्वपूर्ण बात जो जाने-अनजाने लोगों की आंखों से ओझल हो गई और जो इस देश के आम अवाम से जुडी हुई है वह थी इस बात का इशारा कि आहिस्ता-आहिस्ता सरकार उच्च शिक्षा से पांव खींचने वाली है। जयराम रमेश का यह कथन कि हम सरकारी क्षेत्र में एक विश्व स्तरीय अनुसंधान केंद्र की स्थापना नहीं कर सकते हैं, सरकारी सेट-अप युवा लोगों को कभी नहीं आकर्षित कर सकते हैं, बताता है कि हमें इस मसले पर नए सिरे से ध्यान देने की जरूरत है। रमेश ने इसके लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की वकालत की। इस पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप से कोई असहमति नहीं। देश की विशाल जनसंख्या और जरूरतों के मद्देनजर अब समय आ गया है कि विभिन्न सामाजिक विकास के कार्यक्रमों में निजी क्षेत्र आगे आएं, क्योंकि निजी क्षेत्र की कमाई और मुनाफे में अंतत: इस देश के संसाधनों का भी इस्तेमाल होता है। अत: शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विकास आदि सोशल सेक्टर से वे मुंह मोड़ नहीं सकते। यहां तक तो बात ठीक है, लेकिन सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र को एक तरह से खारिज करते हुए सीधे-सीधे यह कहना कि सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र के संगठन कभी भी श्रेष्ठ संस्थान या संगठन नहीं बन सकते, न केवल सही नहीं है, बल्कि खतरनाक भी है। दुनिया के अनेक देशों में सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र के संस्थानों ने अपना परचम लहराया है। अमेरिका के निजी क्षेत्र के विश्वविद्यालय हार्वर्ड, स्टेनफोर्ड या यूनिवर्सिटी ऑफ पेंसिल्वेनिया अगर विश्वस्तरीय हैं तो सार्वजनिक क्षेत्र के यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन या यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया आदि विश्वविद्यालय भी उसी टक्कर के हैं। फिर जिस चीन के छह संस्थान टॉप 200 में हैं, उनमें सभी सरकारी क्षेत्र के ही हैं। कुछ ऐसा ही फ्रांस, जर्मनी या स्कैंडिनेवियन देशों में भी है। अपने यहां भी देखें तो इसरो, डीआरडीओ आदि संगठन निश्चित रूप से श्रेष्ठ हैं, जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी देश के अंतरिक्ष अनुसंधान या मिसाइल कार्यक्रमों को बहुत कम लागत में और सफलतापूर्वक चलाया है। सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र को सिरे से खारिज कर देना ठीक नहीं। इसका यह कतई मतलब नहीं कि सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र के संस्थानों में सब कुछ ठीक है, बल्कि मेरा स्पष्ट मत है कि इन संस्थानों में काफी कुछ गड़बड़ है। सही हल तो यह होगा कि इन्हें दुरुस्त किया जाए। आज इन संस्थानों में आमूल-चूल बदलाव की जरूरत है। इस गड़बड़ी के लिए कोई अन्य नहीं, बल्कि सबसे पहले सरकारी तंत्र ही जिम्मेदार है। कठघरे में सभी राजनेता हैं। जिस तरह से नेताओं का सार्वजनिक संस्थानों में हस्तक्षेप है और सरकारी अधिकारीयों द्वारा विभिन्न अडं़गे लगाए जाते हैं वह सर्वविदित है। एक-दो उदहारण देखें। अपने देश में वाइस चांसलरों या निदेशकों की नियुक्ति में जिस कदर राजनीतिक हस्तक्षेप होता है वह किसी से छिपा नहीं। दूसरी तरफ इन वाइस चांसलरों या निदेशकों को किसी भी महत्वपूर्ण निर्णय लेने में सरकार या उच्च अधिकारियों का जिस तरह से मुंह ताकना पडता है वह कहीं से भी इन संस्थानों के हित में नहीं है। मैं अमेरिकी विश्वविद्यालयों के अपने अनुभव का साझा करना चाहूंगा। वहां वाइस चांसलर को प्रेसिडेंट कहा जाता है। मैंने देखा कि उनकी नियुक्ति में राजनीतिज्ञों का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं। संस्थान और शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति समर्पित। सार्वजनिक संस्थानों की समस्या का एक अन्य, लेकिन बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू आर्थिक अभाव है, जिसका कुपरिणाम है समुचित इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी। ऐसी स्थितियों में विश्वस्तरीय शिक्षकों या संस्थान की उम्मीद करना बेमानी होगा। अमेरिका या यूरोप के देशों की बात करें तो वहां शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च किया जाता है। कुछ देशों में तो यह और भी ज्यादा है, जबकि अपने यहां यह अभी भी 4 से 5 प्रतिशत के बीच ही है। उन देशों में उच्च शिक्षा के बिना भी उच्च गतिशीलता के अवसर मौजूद हैं, जबकि अपने यहां बहुसंख्यक जनता के पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं और यह वर्ग कम फीस वाले सार्वजनिक संस्थाओं में ही जा सकता है। समय आ गया है कि सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों को दुरुस्त किया जाए। (लेखक दिल्ली विवि में एसोसिएट प्रोफेसर हैं




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