Saturday, December 10, 2011

उठाना होगा गरीब छात्रों की पढ़ाई का खर्च


उत्तर प्रदेश में दो लाख सालाना आय वाले परिवारों के बच्चे मुफ्त पोस्ट मैट्रिक शिक्षा पाएंगे। यानी इन छात्रों की दसवीं के बाद व्यावसायिक शिक्षा तक पूरी पढ़ाई का खर्च राज्य सरकार को उठाना होगा। चाहें पढ़ाई सरकारी कालेज में हो या निजी कालेजों में। शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की याचिका खारिज कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने फीस कटौती का आदेश निरस्त करने के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी है। हालांकि कोर्ट के अंतरिम आदेश के कारण राज्य में अभी भी यह नीति लागू है। न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी व न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की पीठ ने राज्य सरकार की याचिका खारिज करते हुए कहा कि यह एक अच्छी नीति है और इसे जारी रहना चाहिए। मालूम हो कि उत्तर प्रदेश में गरीब बच्चों की पोस्ट मैट्रिक पढ़ाई का खर्च उठाने की नीति 2003 से लागू है पहले यह नीति सिर्फ अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए ही थी। लेकिन बाद में इसमें सामान्य वर्ग व पिछड़ा वर्ग के गरीब छात्र भी शामिल कर लिए गए। 2010 के पहले परिवार की आय सीमा एक लाख रुपये सालाना थी। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार ने 28 मार्च 2010 को जारी आदेश में परिवार की सालाना आय सीमा दो लाख कर दी है। मालूम हो कि 2008 में उत्तर प्रदेश सरकार ने पोस्ट मैट्रिक मुफ्त शिक्षा नीति में बदलाव किया। यह घोषणा की गई कि राज्य सरकार सिर्फ सरकारी कालेजों की फीस के बराबर ही निजी कालेजों की फीस देगी। उससे ज्यादा की फीस छात्र को स्वयं देनी होगी। एनजीओ मेधा ने फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी। हाईकोर्ट ने मेधा की याचिका स्वीकार करते हुए सरकार के फीस कटौती के आदेश को निरस्त कर दिया था। सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। राज्य सरकार की दलील थी कि भारी आर्थिक बोझ के चलते मूलरूप में योजना लागू करना संभव नहीं है इसलिए फीस कटौती का निर्णय लिया गया है। यह सरकार का नीतिगत फैसला है।

Thursday, November 24, 2011

जौहर विश्वविद्यालय पर सरकार का सियासी जवाब अधूरा


सत्ता में आने के बाद बसपा ने जिस जोश से राजधानी में अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की स्थापना करने की घोषणा की थी, वह पिछड़ती दिखाई दे रही है। बसपा सरकार ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को जवाब देने का जो मंसूबा पाला था, वह पूरा होता नहीं दिख रहा। तीसरी बार प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने के बाद मुख्यमंत्री मायावती ने 13 अक्टूबर 2008 को राजधानी में अरबी-फारसी विश्वविद्यालय की स्थापना का एलान किया था। उनकी यह घोषणा दरअसल सपा को बसपा सरकार का सियासी जवाब था। मुख्यमंत्री की घोषणा को पर शुरुआत में तेजी से काम हुआ। शासन की मंशा थी कि विगत 15 जनवरी को मुख्यमंत्री मायावती के जन्मदिन पर उनके हाथों उर्दू, अरबी-फारसी विश्वविद्यालय का लोकार्पण कराया जाए और जुलाई 2011 से यहां पढ़ाई भी शुरू हो जाए पर न तो अब तक लोकार्पण हो सका है और न ही पढ़ाई शुरू हो पाई। विश्वविद्यालय प्रशासन ने 13 विषयों में 199 शिक्षकों के पद सृजन का प्रस्ताव शासन को भेजा था। शासन ने इसे ज्यादा बताते हुए कम विषयों में पढ़ाई शुरू कराने के लिए कहा। इस पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने 74 शिक्षकों के पद सृजन का प्रस्ताव शासन को भेजा, पर अब तक कोई निर्णय नहीं हो सका है। विवि के पहले चरण के निर्माण को अब तक 188 करोड़ आवंटित हो चुके हैं जिसमें 171 करोड़ खर्च किए जा चुके हैं। पढ़ाई शुरू कराने के लिए अब अगले सत्र का इंतजार करना होगा।

Wednesday, November 9, 2011

कॉरपोरेट शैली में काम करेगा शिक्षा विभाग


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार फिल्म (वेल्डन अब्बा) दिखाकर नौकरशाहों को जन समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनाने की कोशिश कर रहे हैं, तो मानव संसाधन विभाग ने कार्यप्रणाली दुरुस्त करने और योजनाओं के प्रभावी अनुपालन के लिए कॉरपोरेट अंदाज में काम करने का फैसला किया है। नई व्यवस्था के तहत, शिक्षा विभाग में सचिव से लेकर क्षेत्रीय स्तर तक के अफसर की न सिर्फ जिम्मेदारी तय होगी बल्कि कॉरपोरेट अंदाज में उसका हर तिमाही मूल्यांकन भी होगा। हर काम के अंक तय हैं, सेल्फ अप्रेजल व विभागीय समीक्षा के आधार पर उनकी ग्रेडिंग (ए, बी,सी व डी) होगी। काहिल अफसरों की छुट्टी की भी व्यवस्था है। मानव संसाधन विभाग के नए फार्मूले के तहत, जिलों में शैक्षणिक स्तर व वातावरण में सुधार के लिए जिला शिक्षा अधिकारी को लीडर की भूमिका अदा करते हुए मातहतों से अपेक्षित काम लेना और कार्यक्रमों को अमलीजामा पहनाना है। हर काम के लिए अंक तय हैं। कार्यक्रम संचालन में योगदान पर 10 अंक मिलेंगे, जबकि एससी-एसटी, अल्पसंख्यक व अन्य वर्ग की बालिकाओं की शिक्षा में योगदान देने पर 4, आम लोगों एवं शिक्षकों की अफसरों के प्रति धारणा 2, अधीनस्थ कर्मियों और शिक्षकों के प्रति व्यवहार के लिए 2, उच्चाधिकारियों को भेजे जाने वाले प्रतिवेदन की स्थिति पर 2, विभागीय निर्देशों के अनुपालन की स्थिति के लिए 2, विभागीय नियम-अधिनियम की जानकारी रखने पर 5 तथा अन्य विशेष उल्लेखनीय कार्य करने पर 3 अंक मिलेंगे। इन्हीं अंकों के आधार ग्रेडिंग तय होगी। जो अधिकारी काम नहीं करते उन्हें विदा किए जाने की भी व्यवस्था है। विभागीय मुख्यालय में प्रधान सचिव, क्षेत्र में क्षेत्रीय शिक्षा उपनिदेशक, जिला में जिला शिक्षा अधिकारी के स्तर पर मासिक समीक्षा की जायेगी। माध्यमिक, उच्च माध्यमिक तथा प्रखंड स्तर पर प्राथमिक व मध्य विद्यालयों के प्रधानाचार्यो के साथ भी मासिक अथवा त्रैमासिक बैठक का प्रावधान किया गया है। विभिन्न स्तरों पर होने वाली समीक्षा बैठक का अनुश्रवण मुख्यालय स्थित सीएमडी सेंटर करेगा। प्रधान सचिव अंजनी कुमार सिंह ने बताया कि विभाग ने बढ़ते कार्यो और कार्यक्रमों की भरमार के मद्देनजर चार माह पूर्व शैक्षणिक प्रशासन की संरचना का पुनर्गठन किया था। नये सिरे से पद निर्धारित कर मुख्यालय से क्षेत्रीय कार्यालयों तक में अफसरों की तैनाती हुई थी। कार्यक्रमों का प्रभावी कार्यान्वयन हो, इसी लिए प्रगति की विभिन्न स्तरों पर समीक्षा व अनुश्रवण की व्यवस्था हो रही है। साथ ही परफार्मेस इंडिकेटर्स के आधार पर क्षेत्रीय अफसरों की ग्रेडिंग भी होगी।

पीपीपी मॉडल स्कूलों में तैनात होंगे इमोशन गुरु


सरकारी व निजी क्षेत्र की भागीदारी वाले पीपीपी मॉडल के स्कूलों में बच्चों के विकास से जुड़ी शैक्षिक, भावनात्मक व व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए इमोशन गुरु तैनात करने की तैयारी है। कंप्यूटर, इंटरनेट व दूसरी तमाम सुविधाओं से लैस ये स्कूल वाकई सबसे अलग होंगे। स्वास्थ्य शिक्षा के साथ ही छात्रों की सेहत की नियमित जांच-पड़ताल की व्यवस्था भी इन विद्यालयों में होगी। सूत्रों के मुताबिक ढाई हजार गैर पिछड़े ब्लाकों में खुलने वाले पीपीपी मॉडल के इन स्कूलों का मसौदा तैयार है। उसे बस केंद्रीय कैबिनेट की हरी झंडी मिलने की देर है। उम्मीद है यह भी हफ्ते भर में हो जाएगा। बताते हैं कि कक्षा छह से 12 तक के इन स्कूलों में विज्ञान, गणित और अंग्रेजी की पढ़ाई पर खास जोर होगा। ज्यादा बेहतरीन पढ़ाई के मद्देनजर शिक्षक-छात्र अनुपात 1:25 का रखा गया है। यानि प्रत्येक कक्षा में एक शिक्षक पर सिर्फ 25 छात्रों को पढ़ाने का जिम्मा होगा। जबकि किसी भी कीमत पर एक शिक्षक पर 40 छात्रों से अधिक को पढ़ाने का दायित्व नहीं होगा। राष्ट्रीय आदर्श विद्यालय के नाम से खुलने वाले इन स्कूलों में दाखिले के लिए एक टेस्ट होगा। एक स्कूल में 2500 से अधिक छात्र नहीं होंगे। सरकार व निजी क्षेत्र के बीच कोटे की सीटों का बंटवारा 50:50 का होगा। हालांकि निजी क्षेत्र के आर्थिक पहलू के मद्देनजर उन्हें 60 प्रतिशत तक सीटें दी जा सकती हैं। उस स्थिति में 40 प्रतिशत सीटें सरकारी कोटे में होंगी। सरकारी कोटे की सीटों में अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग का आरक्षण लागू होगा। जबकि लिए 30 प्रतिशत सीटें लड़कियों के होंगी। कक्षा छह से आठ तक बच्चों से कोई फीस नहीं ली जाएगी। कक्षा नौ से 12 के तक सरकारी कोटे से दाखिल अनुसूचित जाति, जनजाति, लड़कियों व गरीबी रेखा के नीचे के परिवारों के छात्रों से 25 रुपये और बाकी चयनित छात्रों से 50 रुपये फीस लिया जाना प्रस्तावित है। जबकि, निजी क्षेत्र को अपने प्रबंधन कोटे के छात्रों से समुचित फीस वसूलने की छूट होगी। ब्लाक मुख्यालयों पर खुलने वाले पीपीपी मॉडल इन स्कूलों के लिए सरकार व निजी क्षेत्र के बीच पहला करार दस साल का होगा। जो बाद में बढ़ाया जा सकेगा। अलबत्ता, स्कूल संचालन में आने वाले खर्चे में सरकार हाथ बंटाएगी। उसी क्रम में वह सरकारी कोटे के छात्रों पर आने वाले खर्च (केंद्रीय विद्यालय के छात्र पर आने वाले खर्च के आधार पर) का छह महीने का एडवांस भुगतान कर देगी। अपने कोटे के छात्रों पर हर महीने आने वाले कुल खर्च के 25 प्रतिशत का भुगतान भी संसाधनों के मद में सरकार अलग से करेगी। बुनियादी सुविधाओं की पूरी जिम्मेदारी निजी क्षेत्र की होगी। जमीन का इंतजाम भी निजी क्षेत्र को ही करना होगा।

Monday, November 7, 2011

बिहार में वेटनरी यूनिवर्सिटी को मिली हरी झंडी

 पटना कृषि कैबिनेट ने रविवार को प्रदेश में वेटनरी यूनिवर्सिटी खोलने, तीन वर्ष में जमीन का सर्वे व बंदोबस्ती तथा पांच साल में चकबंदी का काम पूरा करने के प्रस्ताव को मंजूरी प्रदान कर दी। ्रप्रस्ताव के अनुसार अत्याधुनिक तरीके से जमीन का नक्शा तैयार करने के लिए हवाई जहाज (एरियल सर्वे) का सहारा लिया जाएगा। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अध्यक्षता में हुई बैठक में 5.11 लाख हेक्टेयर से जल-निकासी कर भूमि को कृषि योग्य बनाने के प्रस्ताव पर भी सहमति प्रदान कर दी। बैठक के बाद कृषि उत्पादन आयुक्त अशोक कुमार सिन्हा ने संवाददाताओं को बताया कि 14 समितियों के प्रतिवेदन के आधार बैठक में प्रस्तुतिकरण किया गया। इसके आधार पर ही कई बिंदुओं पर सहमति जताई गई। इससे पूर्व कृषि कैबिनेट की 26 अप्रैल व दूसरी बैठक 12 अगस्त को हुई थी, जिसमें कुछ विभागों के प्रतिवेदन पर सहमति जताई गई थी। कृषि कैबिनेट की एक और बैठक होगी। सिन्हा के अनुसार कृषि विभाग की मांग के आधार जल संसाधन विभाग ने गर्मा फसल मौसम में 44.90 लाख हेक्टेयर में सिंचाई सुनिश्चित करने का प्रतिवेदन दिया। इस पर कृषि कैबिनेट ने अपनी सहमति प्रदान की है। 5.11 लाख हेक्टेयर से जलनिकासी कर कृषि योग्य बनाया जाएगा। 70 मीटर गहराई के 12.14 लाख नलकूप लगाए जाएंगे। दक्षिण बिहार में 25400 अधिक गहराई के नए नलकूप लगेंगे। दस वषरें में 5 हजार आहर, पइन का जीर्णोद्धार होगा। कृषि क्षेत्र को पृथक फीडर से बिजली मिलेगी। पारम्परिक ऊर्जा स्रोत से 90 प्रतिशत व अपारम्परिक स्रोत से 10 प्रतिशत बिजली की व्यवस्था होगी। डीजल चालित निजी नलकूपों को बिजली से चलाया जाएगा। इससे सिंचाई लागत में कमी आएगी। चावल की भूसी से 100 मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा। बैठक में ऐसा महसूस किया गया कि जमीन का रिकार्ड अद्यतन नहीं होने के कारण कृषि संबंधित योजनाओं का लाभ प्राप्त करने में कठिनाई होती है। इसके लिए तीन वषरें में राज्य के सभी जिलों की भूमि का सर्वे व बंदोबस्ती कार्य को पूरा किया जाएगा। इसमें आधुनिक तरीके को अपनाया जाएगा। हवाई जहाज से नक्शा तैयार होगा। इस कार्य में वषरें समय लगता है। इसी प्रकार पांच वषरें में चकबंदी कार्य को पूरा किया जाएगा। इससे पैदावार में वृद्धि होगी। किसानों द्वारा नलकूप व कृषि यंत्रों का उपयोग हो सकेगा। दस वर्ष में ट्री कवरेज 15 प्रतिशत होगा। तटबंधों के किनारे 10 हजार किलोमीटर में बांस लगाए जाएंगे। इससे नदियों से हो रहे कटाव को रोका जा सकेगा। सम्प्रति ग्रीन कवरेज 7 प्रतिशत है। पीपीपी मोड (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) पर तीन मेगा फूड पार्क स्थापित होंगे। सरकार 20 प्रतिशत अनुदान देगी। इससे फल, सब्जियों की बर्बादी को रोका जा सकेगा। चीनी में रिकवरी उन्नत प्रभेद के गन्ना व मिलों के आधुनिकीकरण से बढ़ाकर 13 प्रतिशत किया जायेगा जो 9 प्रतिशत है। कृषि कैबिनेट की बैठक में मुख्यमंत्री के अलावा उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह, राजस्व व भूमि सुधार मंत्री रमई राम, जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी, ग्रामीण विकास मंत्री डा.भीम सिंह, पशुपालन मंत्री गिरिराज सिंह, ग्रामीण कार्य मंत्री नीतीश मिश्र व सहकारिता मंत्री रामाधार सिंह के अलावा मुख्य सचिव नवीन कुमार, कृषि उत्पादन आयुक्त एके सिन्हा, मुख्यमंत्री के कृषि सलाहकार डा. मंगला राय आदि उपस्थित थे।

Monday, October 31, 2011

कब बहुरेंगे दिन विविद्यालयों के

उच्च शिक्षा को प्राथमिकता देने में हम कितने पीछे हैं यह क्यूएस टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग के परिणामों से साफ है। इस रैंकिंग में वि के शीर्ष 200 विविद्यालयों में एक भी भारतीय विविद्यालय या शिक्षण संस्थान नहीं है। रैंकिंग के परिणामों के मुताबिक टॉप 500 की सूची में 218वें नंबर पर आईआईटी-दिल्ली, 225वें स्थान पर आईआईटी-मुंबई और 281वें स्थान पर आईआईटी-मद्रास का नंबर आता है। गौरतलब है कि इन तीनों संस्थानों की रैकिंग पिछले साल क्रमश: 202, 187 और 262 थी। जाहिर है कि हम डाउनफॉल की हालत का सामना कर रहे हैं। यह सूची यह बताने के लिए काफी है कि क्यों नस्ली हमले सहकर भी लोग ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में पढ़ते हैं और क्यों हमारे शिक्षा संस्थानों से कोई वेंकटरमण रामकृष्णन नहीं निकलता। बात यहीं खत्म नहीं होती। एशिया के शीषर्स्थ 200 विविद्यालयों में भारत का स्थान पांचवां है। सूची के करीब आधे विविद्यालय केवल दो देश चीन और दक्षिण कोरिया के हैं। ये दोनों देश इस मोच्रे पर दो दशक पहले भारत जैसे ही थे। साफ है कि उदारीकरण के बाद इन दोनों देशों ने अपनी शिक्षानीति में आमूलचूल बदलाए किए और हम केवल बातें ही बनाते रह गए। पिछले कुछ सालों का परिदृश्य देखें तो हमारे यहां केवल दोयम दज्रे के निजी विविद्यालय खुले हैं। विविद्यालयों की गुणवत्ता को लेकर अकसर यह तर्क सामने आता है कि गुणवत्ता का आधार दूसरे देश का कोई संस्थान नहीं हो सकता। ऐसा तर्क देने वालों का कहना है कि जब हमारे शिक्षण संस्थान देशी छात्रों और यहां की इंडस्ट्री की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं तो रैंकिंग देने वाले हमें जहां भी रखें, क्या फर्क पड़ता है। जाहिर है ये तर्क वैीकरण के इस माहौल में बेजा ही कहे जा सकते हैं। आज हमारी अर्थव्यवस्था तमाम संकटों के बावजूद करीब 8 प्रतिशत की विकास दर से आगे बढ़ रही है। इस दर को स्थायी बनाना एक शक्ति केंद्र के रूप में देश को विकसित करना है तो यह ग्लोबल तौर-तरीकों की शिक्षा केंद्रों की स्थापना के बगैर पूरा नहीं हो सकता। बगैर आधुनिक शिक्षण संस्थानों के हम प्रतिभाशाली जनशक्ति हासिल नहीं कर सकते। ऐसा नहीं कि हमारे पास यह जनशक्ति नहीं है लेकिन उसे हमेशा कुछ बेहतर करने के लिए ऑक्सफोर्ड, येल और कैब्रिज आदि विविद्यालयों का रास्ता नापना होता है। आज हमारे शीर्ष केंद्रीय विविद्यालयों में भी डिग्री केंद्रित शिक्षा अर्जन का काम चल रहा है। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान भी मेधावी छात्रों के लिए बस अच्छी नौकरी पाने का जरिया बन गए हैं। हमारे यहां जो मुट्ठी भर छात्र रिसर्च कायरे में लगे हैं, वे भी मौका मिलते ही विदेश चले जाते हैं। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय हमारे शिक्षण संस्थानों की बेहतरी के लिए जो कुछ कर रहा है उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। 11वीं पंचवर्षीय योजना में केंद्र सरकार ने 30 नए केंद्रीय विविद्यालय, आठ नए आईआईटी, सात नए आईआईएम, 37 अन्य तकनीकी संस्थान और जिला स्तर पर 373 नए कॉलेज स्थापित करने के लिए करीब 80,000 करोड़ रुपये का आबंटन किया था। औपचारिक रूप से शुरू की गई इनमें से ज्यादातर संस्थान विस्तरीय नहीं कहे जा सकते और न ही यहां हमारी जमीनी जरूरतों का लेकर कोई शोध ही किया जा रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय कितना ध्यान शोध पर दे रहा वह कुछ ही महीने पहले जारी इस फरमान से स्पष्ट हो जाता है कि जिसमें उसने शैक्षणिक संस्थानों को रिसर्च से जुड़े उपकरणों और रसायन आदि की खरीद की जिम्मेदारी लेने और विदेशों में रिसर्च पेपर पढ़ने के लिए स्पांसरशिप भी खुद ढूंढ़ने को कहा है। मंत्रालय संस्थानों को स्वाबलंबी बनाने के तर्क दे यह भूल रहा है कि टॉप 200 शिक्षण संस्थानों में अधिकांश सरकारी पैसे से चलते हैं। हां, यह जरूर है कि कई देशों में ऐसा ढ़ांचा विकसित किया गया है कि निजी कंपनियां भी बगैर किसी तरह के हस्तक्षेप के शिक्षण संस्थानों को पैसे डोनेट करती हैं। मंत्रालय इस तरह का ढ़ांचा विकसित करने में नहीं बल्कि सरकारी संस्थानों को कमजोर और निजी संस्थानों को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। विदेशी संस्थानों के भारत आने का भी रास्ता खोला जा रहा है लेकिन सवाल है कि ये विदेशी संस्थान या निजी संस्थान रिसर्च जैसे क्षेत्र में क्यों पैसा लगाना चाहेंगी? वे तो सीधे-सीधे लाभ के लिए काम करेंगी और सभी को मालूम है कि रिसर्च जैसे कार्य में पैसा लगाना उनके लिए लाभप्रद सौदा किसी कीमत पर नहीं हो सकता। सरकार की तरफ से शोधपरक कायरें के लिए पैसे की कमी नहीं होनी चाहिए। प्राइवेट सेक्टर से ठीक वैसी ही मदद ली जानी चाहिए जैसे विदेशों में ली जाती है। उन्हें शिक्षण संस्थाओं को गोद लेने को कहा जा सकता है या फिर जो प्राइवेट कंपनी शिक्षण संस्थाओं को आर्थिक मदद प्रदान करे उन्हें टैक्स में राहत दी जा सकती है। दरअसल सरकार के पास उच्च शिक्षा के लिये पैसा लाने के लिए विकल्पों की कमी नहीं है लेकिन सवाल है कि आप चाहते क्या हैं? हमें अगले 20 सालों में कम से कम 50 विस्तरीय संस्थान खड़ा करने के लक्ष्य पर काम करना चाहिए।

Saturday, October 15, 2011

शिक्षा के नाम पर कारोबार की अनुमति नहीं : सिब्बल


वैश्विक स्तर पर शैक्षणिक गठजोड़ की वकालत करते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि शिक्षा के नाम पर कारोबार की अनुमति नहीं दी जाएगी। उन्होंने यह बात शुक्रवार को यहां एक दिवसीय भारत-अमेरिका शिक्षा शिखर सम्मेलन के समापन पर कही। उन्होंने कहा कि वैश्विक स्तर पर शैक्षणिक गठजोड़ के लिए विदेशी शिक्षा प्रदाता विधेयक लाया जा रहा है। विदेशी संस्थाओं पर भी वही कानून लागू होंगे जो भारत के निजी शैक्षणिक संस्थानों पर लागू होते हैं। उन्होंने कहा, इस संदर्भ में कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं किया जाएगा। सभी को समान अवसर प्रदान किए जाएंगे। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच वार्ता प्रक्रिया से अमेरिका स्थित सरकारी कालेजों को भारत में अपने पैर जमाने और साझीदार तलाशने में मदद मिलेगी, लेकिन इसका मकसद केवल लाभ कमाना नहीं हो सकता है। सिब्बल ने कहा कि शुरुआत में भारतीय और अमेरिकी शिक्षण संस्थानों के बीच सहयोग संयुक्त डिग्री, प्रमाणपत्र और डिप्लोमा पाठ्यक्रम के संबंध में होगा। सिब्बल ने कहा, मैं नहीं समझता कि प्रतिष्ठित हार्वर्ड, याले या प्रिंस्टन विश्वविद्यालय भारत में अपने कैंपस स्थापित करेंगे। मुझे इसमें काफी संदेह है। उन्होंने कहा कि अमेरिकी शिक्षण संस्थानों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह पहले भारतीय माहौल और अन्य आयामों के बारे में जानकारी हासिल कर लें।

Tuesday, October 11, 2011

अभी बेरंग ही है मुफ्त शिक्षा की मुहिम


हाल में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून से संबंधित विशेषज्ञों की एक टीम ने कानून पर प्रभावी रूप से अमल करने के लिए सुझाव दिया है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक गवर्निंग बॉडी बनाई जानी चाहिए। भारत में 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून का मुद्दा आजादी से पहले भी रहा है। शिक्षा में एक वर्ग विशेष के स्वघोषित एकाधिकार को तोड़ने के लिए, 24 जनवरी 1917 को छत्रपति शाहू जी महाराज ने अपने शासन क्षेत्र में 6-14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू किया था। संविधान का प्रारूप तैयार करते समय डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी चाहते थे कि मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के विषय को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जाए। लेकिन अनेक नेताओं के विरोध के कारण उक्त अधिकार को नीति निर्देशक सिद्धान्तों में डालना पड़ा, जिसमें निर्देशित है कि राज्य 1960 तक उक्त कानून बनाएगा। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते 50 वर्षो के बाद एक अप्रैल 2010 को बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार मिल पाया है। जो हाल-फिलहाल बेरंग ही नजर आ रहा है। उक्त कानून पर अमल करने में कई समस्याएं सामने आ रही हैं। पहली बड़ी समस्या है कि तमाम प्रचार अभियानों के बावजूद करीब 20 प्रतिशत लोगों को ही इस कानून की जानकारी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 31 मार्च 2011 तक 15 राज्यों ने ही उक्त कानून को लागू करने की अधिसूचना जारी की है। गत जुलाई में उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अधिसूचना जारी कर दी है। राज्यों में उक्त कानून के अमलीकरण की जिम्मेदारी बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सौंपी गयी है। लेकिन अब तक करीब 15 राज्यों द्वारा ही बाल अधिकार संरक्षण आयोग गठित किए गए हैं। देश में 6-14 वर्ष की आयु के लगभग 22 करोड़ बच्चे हैं। जिनमें से करीब 19 करोड़ स्कूलों में दाखिल हैं, शेष 3 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो स्कूल नहीं जाते। इनमें करीब सवा करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। इस हिसाब से शेष पौने दो करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित होने चाहिए। पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार करीब 81 लाख 50 हजार बच्चे ही स्कूलों से वंचित हैं। सवाल है कि ऐसे 93 लाख 50 हजार बच्चे कहां हैं और क्या कर रहे हैं जो न तो स्कूल जाते हैं और न ही बाल श्रमिक हैं। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (न्यूपा) की रिपोर्ट के अनुसार स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या बढ़ने के बजाय घट रही है। वर्ष 2008-09 के दौरान देश में पहली से पांचवी कक्षा में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या 13 करोड़ 43 लाख थी, जो वर्ष 2009- 10 में घटकर 13 करोड़ 34 लाख रह गयी। बच्चों में मिडडे-मील योजना का आकषर्ण कम होने लगा है। दोपहर का भोजन खाते ही अधिकांश बच्चे स्कूलों की दीवार फांदकर भाग जाते हैं। बड़ा सवाल है कि मुफ्त में वर्दी, किताबें, खाना और अनेक योजनाओं का पैसा मिलने के बावजूद बच्चे शिक्षा से दूर क्यों भाग रहे हैं ? अब 6-14 वर्ष की आयु का कोई भी बच्चा वर्ष में कभी भी नजदीक के सरकारी स्कूल में दाखिला ले सकेगा। अब किसी बच्चे का स्कूल से नाम भी नहीं कट सकेगा। बच्चों को पास- फेल होने के झंझटों से भी छुटकारा मिल गया है। आठवीं तक के सभी बच्चों का अगली कक्षा के लिए प्रोन्नत होना सुनिश्चित कर दिया गया है। देश में करीब 40 फीसद शिक्षक ठेके पर काम कर रहे हैं, फिर भी आठवीं तक के स्कूलों में शिक्षकों के करीब सात लाख पद खाली पड़े हैं। उक्त कानून को लागू करने के लिए करीब पांच लाख शिक्षकों की और जरूरत पड़ेगी। इसके अलावा करीब 14 लाख कक्षाओं का निर्माण करना होगा। एक शिक्षक पर छात्रों का राष्ट्रीय अनुपात 32 है। लेकिन करीब 15 राज्यों में शिक्षक-छात्र अनुपात राष्ट्रीय अनुपात से अधिक है। देश की राजधानी दिल्ली के स्कूलों में सैकड़ों कक्षाएं ऐसी हैं, जिनमें 70 से 90 बच्चे हैं। अनुपात के मामले में पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति बेहतर है। आरटीई एक्ट में कहा गया है कि देश में प्रति एक वर्ग किमी के दायरे में एक विद्यालय होना चाहिये पर देश में प्रति पांच किमी के दायरे में एक स्कूल है। एक्ट के तहत प्रत्येक स्कूल के पास एक खेल का मैदान होना चाहिए पर देश के करीब 45 फीसद स्कूलों में खेल के मैदान नहीं हैं। खेल का मैदान कितना बड़ा हो, यह तय करने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी गयी है। मसलन, दिल्ली में खेल के मैदान के लिए 900 वर्ग गज का दायरा तय किया गया है। दूसरी तरफ दिल्ली में ही शिक्षा की दुकानों के रूप में चल रहे सैकड़ों स्कूल ऐसे हैं, जिनके पास खेल का मैदान तो क्या, ढंग के शौचालय तक नहीं हैं। न्यूपाकी वर्ष 2009-10 की रिपोर्ट के अनुसार प्रति दस वर्ग किमी के दायरे में दिल्ली में 29, पुडुचेरी में 12, चंडीगढ़ में 12, पश्चिम बंगाल में 9, बिहार में 7, उत्तर प्रदेश में 6 और झारखंड में 5 स्कूल हैं। देश में वर्ष 2008- 2009 में आठवीं तक के स्कूलों की संख्या 13 लाख थी। वर्ष 2009-10 के दौरान करीब एक लाख 91 हजार नए स्कूल खोले गये। जिनमें से सबसे ज्यादा करीब 43 हजार स्कूल उत्तर प्रदेश में खोले गये। हाल ही में यूपी में 11 हजार 418 नए स्कूल खोलने की मंजूरी मिल गयी है। इस अवधि में बिहार में करीब 16 हजार पांच सौ स्कूल, झारखंड में 18 हजार और उत्तराखंड में करीब 2 हजार 800 स्कूल खोले गये। आमतौर पर शिक्षा के मामले में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों को अधिक पिछड़ा माना जाता है। पर जनगणना 2011 के आंकड़े कुछ और ही बयां कर रहे हैं। पिछले एक दशक में देश की साक्षरता दर में 9.2 फीसद की वृद्धि हुई है। इस दौरान शहरी क्षेत्रों में साक्षरता दर में मात्र 5.05 फीसद की वृद्धि हुई जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में वृद्धि दर दो गुनी से भी अधिक यानी 10.18 फीसद दर्ज की गयी। ग्रामीण क्षेत्रों में पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का रुझान भी बढ़ रहा है। आरटीई एक्ट सामाजिक कल्याण के साथ- साथ राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। देश का भविष्य माने जाने वाले बच्चे राष्ट्र निर्माण की अहम कड़ी हैं। गरीबों के लिए सरकारी और अमीरों के लिए पब्लिक स्कूल की दोहरी शिक्षा नीति से राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया कमजोर हो रही है। देश के अधिकांश सरकारी स्कूल राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं और पब्लिक स्कूलों का प्रबंधन इस उधेड़बुन में लगा रहता है, कि शिक्षा को ऊंची कीमत पर कैसे बेचा जाय। जिस शिक्षा का उद्देश्य कभी समाज सेवा होता था, आज वही शिक्षा बाजार का रूप ले चुकी है। शिक्षा को बाजार से मुक्त कराने के लिए जरूरी है कि सरकारी स्कूलों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराते हुए देश में समान शिक्षा नीति लागू की जाए।