Monday, December 10, 2012

बच्चों को चाहिए सुयोग्य अभिभावक





परत दर परत राजकिशोर
एक दिलचस्प कार्टून की याद आती है। दो या तीन साल का एक बच्चा पीठ के बल पर लेटा हुआ एक किताब पढ़ रहा है। किताब का नाम है- बच्चों का पालन-पोषण कैसे करें। एक व्यक्ति बच्चे से पूछता है मुन्ना, तुम यह किताब क्यों पढ़ रहे हो? बच्चा जवाब देता है- ताकि मैं समझ सकूं कि मेरा पालन-पोषण ठीक से हो रहा है या नहीं। काश, सभी बच्चे ईर के यहां से यह बुद्धि और विवेक लेकर आते। लेकिन तब वे बच्चे ही क्यों कहलाते? शारीरिक और मानसिक विकास में एक खास उम्र तक समानुपातिक संबंध रहता है। उसके बाद शरीर का विकास रु क जाता है और मन का विकास होता जाता है- अगर इसे रोका न जाए। बच्चे का शारीरिक और मानसिक, दोनों तरह का विकास सीमित रहता है। वह जीवन की एकदम प्रारंभिक सीढ़ी पर अवस्थित होता है। वह नहीं समझता कि वह कौन है, उसके कुछ अधिकार भी हैं या नहीं, उसका पालन-पोषण जिस तरह हो रहा है वह ठीक है या नहीं। कह सकते हैं कि वह दुनिया का सबसे असहाय प्राणी होता है। वह अपने साथ होने वाले अन्याय को न ठीक से समझ सकता है, न उसका प्रतिकार कर सकता है। यह बात मैं बचपन से ही महसूस करता आ रहा हूं कि ज्यादातर मां-बाप, मां-बाप होने के योग्य ही नहीं हैं। वे खुद अपने जीवन को अच्छे ढंग से संचालित नहीं करते, तो अपने बच्चों का खयाल क्या खाक रखेंगे? मुझे खुद अपने माता-पिता से बहुत-सी शिकायतें थीं। ऐसा नहीं है कि मैं उनसे असंभव मांगें नहीं करता था। जाहिर है, इन मांगों को खारिज होना ही था। इससे मुझे चोट लगती थी। लेकिन ये मांगें क्यों असंभव हैं, यह बात मुझे ठीक से समझा दी गई होती, तो मुझे चोट लगने के बजाय समाज के ढांचे को समझने में मदद मिलती। यह काम बाद में मेरे गुरु बेचन शुक्ल ने किया। मेरे मां-बाप ने मुझे शारीरिक रूप से जन्म दिया, पर बेचन शुक्ल ने मेरा बौद्धिक जन्म संभव किया। इसके लिए मैं आजीवन उनका ऋणी रहूंगा। मैं अपने ऊपर गर्व नहीं करता, न इसकी कोई वजह है; लेकिन यह जरूर पूछना चाहता हूं कि बेचन शुक्ल जैसे व्यक्ति कितने लड़के- लड़कियों को मिल पाते हैं? शायद बेचन शुक्ल जैसे व्यक्तियों की उतनी जरूरत ही न पड़े, अगर माता-पिता योग्य हों और अपनी जिम्मेदारी का सम्यक निर्वाह करें। ठीक ही कहा गया है- परिवार मनुष्य की पहली पाठशाला है। इस पाठशाला में बच्चा जो कुछ सीखता है, उसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। इसलिए समाज द्वारा स्थापित स्कूल अच्छे हों अथवा नहीं, परिवार की पाठशाला को तो अच्छा होना ही पड़ेगा। इल सिलसिले में खलील जिब्रान की यह पंक्ति बेसाख्ता याद आती है कि बच्चे को तुम अपनी संपत्ति न समझो, तुम तो सिर्फ वह माध्यम हो जिसके द्वारा बच्चा इस संसार में आता है। वास्तव में किसी भी बच्चे का पैदा होना एक प्राकृतिक नियम के तहत संभव होता है। ज्यादातर स्त्री-पुरु षों की चाह यही होती है कि वे अपना जैविक उत्तराधिकारी छोड़ जाएं। स्वाभाविक है कि जैविक के साथ सांस्कृतिक भी जुड़ जाए। इसलिए अधिकतर मां-बाप अपने बच्चों के मानसिक और सांस्कृतिक विकास पर अपनी छाप छोड़ने की इच्छा रखते हैं और इसके लिए भरपूर प्रयास करते हैं। यह और बात है कि बच्चे सिर्फ अपने परिवार से नहीं सीखते, बल्कि समाज से भी सीखते हैं। मां-बाप के मोह का सबसे अच्छा उदाहरण है, धर्म। भगवान किसी को हिंदू या मुसलमान बनाकर नहीं भेजता, लेकिन पैदा होते ही मां-बाप बच्चे को एक धर्म पकड़ा देते हैं। हिंदू का बच्चा होगा, तो हिंदू होगा; मुसलमान का बच्चा होगा तो मुसलमान होगा। यह बच्चे को अपनी संपत्ति मानकर चलना है। आप बच्चे को यह आजादी क्यों नहीं दे सकते कि वह बड़ा होकर सभी धर्मो का अध्ययन करे और उसे जो धर्म सबसे अच्छा लगता हो, उसे चुने? अथवा, कोई भी धर्म उसे ठीक न लगे, तो वह कोई भी धर्म स्वीकार न करे। यही सब बातें यह सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि बच्चे का पालन-पोषण सिर्फ परिवार की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए, इस बारे में समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। आजकल राज्य ही समाज का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए राज्य को ही यह जिम्मा उठाना होगा कि किसी भी बच्चे का पालन-पोषण गलत ढंग से न हो। यह जरूर विवाद का विषय हो सकता है कि राज्य का हस्तक्षेप कितना हो और किस रूप में हो। प्रत्येक राज्य में तानाशाही का कुछ न कुछ तत्व अवश्य रहता है। इसलिए हमें इसका भी ध्यान रखना होगा कि परिवार की तानाशाही न चले, तो राज्य की तानाशाही भी न चले। नॉर्वे सरकार ने बच्चों के पालन-पोषण के कुछ नियम बना रखे हैं, जो बताते हैं कि मां-बाप को अपने बच्चों से किस तरह पेश आना चाहिए। जो दंपति इन नियमों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें पहले चेतावनी दी जाती है; फिर भी वे नहीं मानते तो बच्चा उनसे छीन लिया जाता है और प्रोफेशनल पालन गृहों में भेज दिया जाता है। मां-बाप को जेल भी भेजा जा सकता है। भारतीय मूल के दो दंपतियों को इस कड़े कानून का स्वाद चखना पड़ा, तो हमारे देश में प्रतिवाद की लहर-सी फूट पड़ी और पश्चिम के साम्राज्यवाद की निंदा की जाने लगी। यह विरोध अभी भी जारी है। मैं विरोध की इस लहर के साथ नहीं हूं। मैं नॉर्वे सरकार की प्रशंसा करता हूं जिसने इस तरह का कानून बनाने की हिम्मत की है जो बच्चों के मानवाधिकारों की रक्षा करता है। हां, यह जांच करने की जरूरत है कि कहीं नॉर्वे की सरकार अन्य देशों, खासकर गैर-यूरोपीय देशों की संस्कृति पर हमला तो नहीं कर रही है? नॉर्वे को इसका कोई हक नहीं है कि वह विदेशियों पर अपनी संस्कृति थोप दे। यह सांस्कृतिक तानाशाही है। अगर यूरोप मानव स्वतंत्रता का पक्षधर है, तो उसे इन अतियों से बाज आना होगा।
मैं बचपन से ही महसूस करता आ रहा हूं कि ज्यादातर मां-बाप, मां-बाप होने के योग्य ही नहीं हैं। वे खुद अपने जीवन को अच्छे ढंग से संचालित नहीं करते, तो अपने बच्चों का खयाल क्या खाक रखेंगे? परिवार मनुष्य की पहली पाठशाला है। इस पाठशाला में बच्चा जो कुछ सीखता है, उसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। इसलिए समाज द्वारा स्थापित स्कूल अच्छे हों अथवा नहीं, परिवार की पाठशाला को तो अच्छा होना ही पड़ेगा
Rashtirya Sahara National Edition 9-12-2012 Page 10(f’k{kk)

समग्र शिक्षा की आध्यत्मिक दृष्टि





आजादी के बाद देश में जो सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा हुआ वह था-शिक्षा का। गांधी से लेकर नेहरू तक सभी इस खोज में जुटे थे कि देश की करोड़ों जनता की मानसिक शक्ति को दिशा देने वाली शिक्षा का स्वरूप क्या हो? जो देश की दिशा और दशा दोनों बदलने में सक्षम हो। प्रश्न जटिल था किन्तु समाधान काफी क्षीण; क्योंकि तब तक लॉर्ड मैकाले का प्रभाव देश के बुद्धिजीवियों के सिर चढ़कर बोलने लगा था। दूसरी ओर प्राचीन भारतीय मनोदृष्टि को लेकर कार्य करने वाले शिक्षाविद् देश के समक्ष भारतीय अवधारणा पर आधारित शिक्षा पद्धति का कोई ठोस मॉडल नहीं दे पा रहे थे। गांधी ने इस दिशा में प्रयास किया और अपनी शैक्षिक सोच को लेकर गंभीरता दिखाई पर वह शिक्षा नीति को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर सके। उस अवधारणा को हमारे शिक्षा विशेषज्ञों ने चरखे से बुनी खादी तक समेटकर रख दिया। जरूरत थी किसी ऐसे मॉडल की जिस पर न अति प्राचीन रूढ़ियों की जकड़नें हों और न ही वह आधुनिकता में इतना सराबोर हो कि समाज में नीरसता या शुष्कता पैदा हो जाए। देश के महानायकों ने इस दिशा में अनेक प्रयोग किए। अगर कहें तो आजादी से लेकर अब तक देश की शिक्षा व्यवस्था को लेकर अनगिनत प्रयोगों का दौर चला और आज भी वि के सबसे बड़े लोकतंत्रीय देश की शिक्षा नीति प्रयोग के दौर से ही गुजर रही है। इस कटु सत्य के प्रमाण भी हैं। एक लम्बी यात्रा के बाद जब सामाजिक कसौटी पर वर्तमान विद्यार्थी को कसते हैं और प्रतिफल संतोषजनक नहीं मिलते तो संपूर्ण शिक्षातंत्र पर प्रश्न खड़ा होने लगता है। आज की शिक्षा जीवन मूल्यों के प्रति उदासीन होने के कारण भौतिक जगत की खोज तक सिमट कर रह गई है। परिणामत: सामाजिक मूल्यों में भी छिछलापन देखने को मिलता है क्योंकि शिक्षा समाज की सचेतक है। मेगास्थनीज का कथन है कि जैसी शिक्षा होगी, वैसे ही सामाजिक मूल्य होंगे। उसने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में शिक्षा के मूल्यों को आपस में गूंथा पाया था। उन्हीं के शब्दों में-‘सामाजिक स्थिति इतनी सशक्त थी कि चोरी जैसी घटनाएं भी यहां कभी नहीं देखी जाती थी।’
आज की उल्टी हुई परिस्थिति में सब कुछ सीधे से उल्टा हो गया है। देशी-विदेशी भाषा में दूसरों के विचारों को रटकर, किसी तरह अपने में इकट्ठा कर कुछ उपाधियों को पा लेने में ही गौरव समझा जाता है। आज शिक्षा का उद्देश्य जीवन निर्माण नहीं वरन मात्र जीवनयापन का माध्यम बनकर रह गया है। ऐसी शिक्षा को सार्थक नाम नहीं दिया जा सकता। प्रसिद्ध दार्शनिक कांट, शिक्षाशास्त्री रस्क, बी. रेमांट से लेकर गांधी, टैगोर, श्रीराम शर्मा आचार्य तक ने इस तथ्य से सरोकार व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व को ऊंचा उठाना है। मानव जाति को इस योग्य बनाना कि समाज में परस्पर सद्भाव विकसित हो।’
वर्तमान समय में शिक्षा स्वाभाविक विकास क्रम न रहकर विविध जानकारियों को किसी तरह मस्तिष्क में जमा लेने को ही सार्थक माना जाने लगा है। यदि इसकी सार्थकता के औचित्य पर विचार करें तो इसकी भूलें स्पष्टता के साथ सामने आने लगती हैं। यद्यपि विवेकयुक्त बुद्धि का आश्रय लेने की आवश्यकता जीवन निर्वाह के लिए हर किसी को पड़ती है ताकि जीवन निर्माण, चरित्र निर्माण तथा मनुष्य निर्माण में सहायक विचारों को अनुभूत किया जा सके। नैतिक मूल्यों का किसी भी कट्टरवादिता से कोई सम्बन्ध नहीं। यह तो मानव के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने वाले तत्व हैं। इनका समावेश आदिकाल से अध्यात्म दर्शन में रहा है और यह आज भी अपेक्षित है। ऐतिहासिक कालक्रम की दृष्टि से विचार करने पर इसकी महत्ता स्पष्ट होती है। प्राचीन भारत में आश्रमों एवं पाठशालाओं में नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग भी। अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा नीति को नैतिक शिक्षा से बिल्कुल पृथक कर दिया। इसका एकमात्र कारण भारतीयों को शारीरिक ही नहीं, मानसिक रूप से भी गुलाम बनाना था। उन्होंने राज्यों द्वारा संचालित विद्यालयों में इस शिक्षा की अवहेलना की। स्वतंत्र भारत में शिक्षाविदें ने बाह्य स्वरूप में थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया। परन्तु मूल ढांचा वही बना रहा। यही कारण है कि शिक्षा अपने उद्देश्यों को पूरा करने में सफल नहीं हो सकी है। आज पढ़े-लिखे लोगों में निराशा, कुंठा, असंतोष, असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो गई है। यह शिक्षा में नैतिक मूल्यों की, व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाले तत्वों की अनिवार्यता सिद्ध करता है। वास्तव में नैतिक मूल्य एवं शिक्षा अपने स्वाभाविक स्वरूप में एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं। इनमें से एक को हटा देने से उनका स्वरूप स्वाभाविक न रहकर विकृत हो जाता है। सीए बारटोल ने ‘दि न्यू डिक्शनरी ऑफ थाट्स’ में स्पष्ट किया है कि ‘कुछ लोग नैतिकता को धर्म से अलग करना चाहते हैं, पर धर्म के आधार के बिना नैतिकता का अंत हो जाएगा। इनके आंतरिक सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुए प्रो.ए.एन. हृाइटहेड ने लिखा है-‘शिक्षा का सार तत्व यह है कि वह धार्मिक होती है। जिस प्रकार शिक्षा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार शिक्षा को नैतिकता से भी पृथक करना असंगत है। हरबर्ट का कहना है कि नैतिक शिक्षा, शिक्षा के समग्र स्वरूप से पृथक नहीं है।’
नि:संदेह समग्र शिक्षा और नैतिक मूल्य एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं। इसके अभाव में शिक्षा में विकृति आना स्वाभाविक है। आज छात्रों में व्याप्त रही चरित्रहीनता, अनुशासनहीनता, मर्यादाओं का अभाव इसी विकृति को दर्शाता है। नीतिमत्ता में किसी प्रकार की कट्टरता नहीं है। इसका तत्वदर्शन हर समय प्रत्येक के लिए लाभकारी है। महात्मा गांधी ने नैतिकता की अनिवार्यता स्वीकारते हुए कहा था,‘मेरे लिए नैतिकता, सदाचार और धर्म पर्यायवाची शब्द है। नैतिकता के आधारभूत सिद्धांत सभी धर्मों में समान हैं। इन्हें बालकों को निश्चित रूप से पढ़ाया जाना चाहिए।’
चिन्तन करने से यही स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिकता का अभाव और भौतिकता का बढ़ता प्रभाव ही इस स्थिति का मूल कारण है। इनके उपयुक्त समावेश से ही स्थिति फिर सुधर सकती है। आज शिक्षा शास्त्र के अनेकानेक विद्वान भी इसी बात पर जोर दे रहे हैं। हंटर आयोग से लेकर कोठारी आयोग व नई शिक्षा नीति से राममूर्ति आयोग तक नियुक्त किए जाने वाले सभी आयोगों और समितियों ने शिक्षा-संस्थानों में नैतिक शिक्षा प्रदान किए जाने का समर्थन किया है। वर्तमान आयोग की रिपोटरें में सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा के लिए सक्रिय और संगठित प्रयास पर बल दिया गया है। इतना होने पर भी नैतिकता का सही स्वरूप किसी को भी ज्ञात नहीं है। विमर्श/ डा. चिन्मय पण्ड्या
(लेखक देव संस्कृति विविद्यालय, हरिद्वार के प्रति कुलपति हैं।)

Rashtirya Sahara National Edition 9-12-2012 Page 10 शिक्षा

हमारा दौर और मानवाधिकार की शिक्षा



मानवाधिकार दिवस
सरोज कुमार शुक्ल
मानवाधिकार शिक्षा के सामने तीन महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं - पहली, समकालीन सभ्यता की विभिन्न दुविधाओं का स्पष्टीकरण; दूसरी, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अनुभवों का हस्तांतरण; तीसरी, बदलाव की प्रक्रिया में तेजी समकालीन सभ्यता के सामने कई असमंजस हैं, जो अंतर्विरोधों से पैदा हुए हैं। निजी स्तर पर ये अंतर्विरोध निस्वार्थ बनाम स्वार्थ और संस्थागत स्तर पर यह राज्य की शक्ति बनाम प्रजातांत्रिक संस्कृति में निहित है
बीसवीं सदी एक ऐसी सदी के रूप में याद की जाएगी, जिसने मनुष्य की गरिमा और स्वतंत्रता में कई ऐसे उतार-चढ़ाव देखे, जो अभूतपूर्व हैं। यह एक ऐसी सदी थी, जिसने औपनिवेशिक दासता के शिकार लोगों की आजादी के लिए लड़ाई देखी। इसी सदी में रूसी-चीनी क्रांति भी हुई। इस सदी ने दो वियुद्धों की पीड़ा को भी सहा। इस दौरान जघन्य अपराध, सामूहिक नरसंहार, सामूहिक बलात्कार, आतंकवाद तथा फासिस्टों एवं नाजियों द्वारा क्रूर बल प्रयोग हुए। एटमी एवं रासायनिक हथियारों का कोप भी इस सदी ने भुगता। 21वीं सदी की यह बड़ी दरकार है कि मानवाधिकारवादी शिक्षा और सरोकारों पर जोर बढ़े ताकि मानवता को पिछली सदी में जो कीमत चुकानी पड़ी, वह आगे न चुकानी पड़े। मानवाधिकार शिक्षा की गुंजाइश तथा उसकी उम्मीद इस यकीन से उपजती है कि मनुष्य अपने समाज व साथियों के हित की चिंता करने में सक्षम है। इस विास की जड़ें अन्य मनुष्यों के लिए मनुष्य की स्वाभाविक सामान्य चिंता में निहित है। किंतु इससे भी कहीं अधिक प्रबल आधार कुछ मनुष्यों या समूहों द्वारा अपने समाज व साथियों के कल्याण के लिए किए जाने वाले त्याग में है। मानवीय स्वभाव का यह आयाम इस अर्थ में अधिक महत्वपूर्ण है कि इसने अपने ऐतिहासिक लक्ष्य- ‘एक मानवीय लोकतांत्रिक, शांतिपूर्ण तथा खुशहाल वि के निर्माण के लक्ष्य को पाने का दायित्व पूरा नहीं किया है।’ एक बेहतर दुनिया बनाने के इस सपने को यूनानियों तथा रोमन दासों द्वारा की गई कोशिशों में देखा जा सकता है। आगे ये कोशिशें आंदोलनात्मक परिणतियों को प्राप्त हुई। ब्रिटेन में 1215 में मैग्ना कार्टा, मनुष्य एवं नागरिकों के अधिकारों संबंधी फ्रांसीसी राष्ट्रीय सभा के घोषणा-पत्र ‘वर्जीनिया बिल ऑफ राइट्स’ तथा संयुक्त राज्य द्वारा इसे अंगीकृत किया जाना, ऐसे ही क्रांतिकारी फलित हैं। यह 17वीं तथा 18वीं शताब्दी की विरासत थी। तीसरी दुनिया के देशों में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में स्वतंत्रता आंदोलन के परिणामस्वरूप स्वायत्त प्रभुता संपन्न राष्ट्रों का उदय हुआ। इनमें से ज्यादातर देशों ने संघात्मक शासन पद्धति को अपनाया। कहने की जरूरत नहीं कि विधिसम्मत शासन को अंगीकार करना अपने आप में एक महत्वपूर्ण मानवीय उपलब्धि है। मानवाधिकारों के क्षेत्र में बीते छह दशकों का अनुभव गंभीर चिंतन का विषय बन गया है। सार्वभौम घोषणापत्र का पालन या औपनिवेशिक शासकों से स्थानीयजन तक सत्ता के हस्तांतरण या विभिन्न अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाओं के अंगीकरण से बुनियादी सचाई में कोई ठोस सकारात्मक बदलाव नहीं आया है। सचाई यही है कि मानवाधिकारों का व्यापक हनन हुआ है। 20वीं शताब्दी के अंत में मानवता ने पहले से कहीं अधिक हिंसक, निर्मम एवं अमानवीय दुनिया में कदम रखा। पर मनुष्य स्वभाव से आशावादी है। सब कुछ के बावजूद पीड़ित लोग अब भी पूरी दुनिया में उम्मीद का दामन थामे हुए हैं। यह जरूर है कि मनुष्य को दुनिया की सचाई को बदलने के लिए और अधिक सचेत एवं सतर्क पहल करने होंगे। इसके लिए मानवाधिकारों की शिक्षा पर खास तौर पर ध्यान देना होगा। मानवाधिकार शिक्षा के सामने तीन महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं-पहली, समकालीन सभ्यता की विभिन्न दुविधाओं का स्पष्टीकरण; दूसरी, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अनुभवों का हस्तांतरण; तीसरी, बदलाव की प्रक्रिया में तेजी लाना। समकालीन सभ्यता के सामने कई असमंजस हैं, जो अंतर्विरोधों से पैदा हुए हैं। व्यक्तिगत स्तर पर ये अंतर्विरोध निस्वार्थ बनाम स्वार्थ में निहित है और संस्थागत स्तर पर यह व्यक्तिगत बनाम सामूहिक, राज्य की शक्ति बनाम प्रजातांत्रिक संस्कृति में निहित है। हमारे सामने विकास के जो नमूने हैं, वे यह अपेक्षा रखते हैं कि स्वहित ही उत्पादक बलों के तीव्र विकास को आगे बढ़ा सकता है। समाजवादी वि के संकट ने इस आम धारणा को पुष्ट किया है। संकट के बाबजूद मानवीय स्वभाव में निहित श्रेष्ठता की संभावनाओं को पुन: तलाश करते हुए उसे महसूस भी करना होगा। इसके द्वारा सकारात्मक उपलब्धियों एवं ऊंचाइयों के बारे में ‘ऐतिहासिक स्मृति’ को पुनर्जीवित कर तथा उसका विवेचन कर भावी पीढ़ियों तक उसके हस्तांतरण को संभव बनाया जा सकता है। ऐसे क्षेत्रों में अतीत की उपलब्धियों के प्रति उदासीनता न केवल अतीत को नकारती है बल्कि सामाजिक जीवन के उच्चतर क्षेत्रों में प्रवेश करने की समाज की क्षमता को भी कमजोर करती है। अतीत के आलोचनात्मक चिंतन से सामाजिक चेतना में बढ़ोत्तरी होती है, जो न केवल लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था के लिए बल्कि लोकतांत्रिक ढंग से जीवन जीने के लिए आवश्यक माहौल तैयार करती है। इस प्रयास को व्यक्तिगत, सामूहिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर जारी रखने की आवश्यकता है। मानवाधिकार शिक्षा, इस प्रक्रिया में मील का पत्थर साबित होगी। मानवाधिकार शिक्षा के तीन अलग- अलग पहलू हो सकते हैं- विकासवादी, सुधारात्मक तथा रूपांतरकारी। ये सभी पहलू जरूरी तौर पर एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। फिर भी उनके अपने अलग-अलग महत्व हैं। विकासवादी शिक्षा, मानवाधिकार शिक्षा के प्रति सबसे अधिक सुग्राह्य दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को मानकर चलता है। इसे व्यापक रूप से संतुलन केंद्रित कहा जा सकता है। इसमें बदलाव की संभावना कम होती है। यह आमतौर पर सीखने वाले को सूचना को ऊर्जा में तब्दील करने की क्षमता नहीं देता है। यदि सीखने वाले बच्चे हैं तो उन्हें अधिकारों की सूची को रटने तथा उसे परीक्षा में उतारने की जरूरत होगी। ऐसे में अधिकांश प्रशिक्षु कक्षा में पढ़ाए गए मानवाधिकारों को परीक्षा हाल से बाहर याद रखने की जहमत नहीं उठाते। इससे यह पता चलता है कि मानवाधिकार शिक्षा को परीक्षा तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। सुधारात्मक दृष्टिकोण, विकासवादी दृष्टिकोण से कुछ कदम आगे है। सुधारवादी दृष्टिकोण प्रशिक्षु की जानकारी को प्रभावित करना चाहता है। यह दृष्टिकोण सूचना की आनुष्ठानिक उत्पत्ति के महव को कम करता है तथा इसमें अधिकारों के प्रश्न को इसके ऐतिहासिक संदर्भ में प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही यह दृष्टि अधिकारों के लिए जन आंदोलनों तथा उनके बलिदानों की चर्चा करते हुए प्रशिक्षुओं को ऐतिहासिक प्रक्रिया के प्रति संवेदनशील बनाने में सहायक होता है। ऐसे दृष्टिकोण को यूनेस्को जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का समर्थन व प्रोत्साहन भी मिलता है। मानवाधिकार शिक्षा पर यूनेस्को के दस्तावेज में कहा गया है, ‘समाज की अन्य एजेंसियों की तरह स्कूलों पर मानवाधिकारों के सिद्धांतों की समझ विकसित करने तथा उनके अनुसार भावी नागरिकों की रुझान एवं व्यवहार को आकार देने में पूर्ण एवं प्रभावी रूप से अपनी भूमिका निभाने का दायित्व है।’
तीसरा दृष्टिकोण जिसे हम रूपांतरकारी अथवा मानववादी कह सकते हैं, व्यक्ति, समूह, समाज, राज्य एवं वि की व्यवस्था को बदलने पर जोर देता है। इसके अनुसार यह बदलाव न केवल अतीत की आलोचनात्मक समझ से बल्कि समकालीन सामाजिक-आर्थिक संदर्भ प्रदान कर हासिल किया जा सकता है। साथ ही, यह अपना ध्यान अन्याय एवं अत्याचार पर केंद्रित करता है। इसका उद्देश्य प्रशिक्षु को आहत, पीड़ित अथवा दुखियारी लोगों के प्रति संवदनशील बनाते हुए यह भी देखना है कि मनुष्य की चेतना गहरी हो एवं उसकी जड़ें ठोस सचाई में स्थापित हों। यह दृष्टिकोण समानता, स्वतंत्रता, शांति, न्याय तथा सुख शांति जैसे मूल्यों पर जोर देता है। इससे प्रशिक्षु मानव स्वभाव की उदात्त क्षमताओं पर विचार करता है। इसमें वस्तुनिष्ठ एवं व्यक्तिनिष्ठ कारक शामिल हैं। इस प्रयास के परिणामस्वरूप स्वार्थ, शक्ति की तलाश, धन संग्रह, अंधविास, संकीर्ण सामाजिक संबंध आदि प्रवृत्तियों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाती है।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
Rashtirya sahara Natioanl Edition 10-12-2012 Page-10 f’k{kk)
हमारा दौर और मानवाधिकार की शिक्षा
http://www.rashtriyasahara.com/EpaperImages/10122012/D0278882263F101220123340796-small.jpg
http://www.rashtriyasahara.com/images/dnsenlarge.gif
मानवाधिकार दिवस
सरोज कुमार शुक्ल
मानवाधिकार शिक्षा के सामने तीन महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं - पहली, समकालीन सभ्यता की विभिन्न दुविधाओं का स्पष्टीकरण; दूसरी, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अनुभवों का हस्तांतरण; तीसरी, बदलाव की प्रक्रिया में तेजी समकालीन सभ्यता के सामने कई असमंजस हैं, जो अंतर्विरोधों से पैदा हुए हैं। निजी स्तर पर ये अंतर्विरोध निस्वार्थ बनाम स्वार्थ और संस्थागत स्तर पर यह राज्य की शक्ति बनाम प्रजातांत्रिक संस्कृति में निहित है
बीसवीं सदी एक ऐसी सदी के रूप में याद की जाएगी, जिसने मनुष्य की गरिमा और स्वतंत्रता में कई ऐसे उतार-चढ़ाव देखे, जो अभूतपूर्व हैं। यह एक ऐसी सदी थी, जिसने औपनिवेशिक दासता के शिकार लोगों की आजादी के लिए लड़ाई देखी। इसी सदी में रूसी-चीनी क्रांति भी हुई। इस सदी ने दो वियुद्धों की पीड़ा को भी सहा। इस दौरान जघन्य अपराध, सामूहिक नरसंहार, सामूहिक बलात्कार, आतंकवाद तथा फासिस्टों एवं नाजियों द्वारा क्रूर बल प्रयोग हुए। एटमी एवं रासायनिक हथियारों का कोप भी इस सदी ने भुगता। 21वीं सदी की यह बड़ी दरकार है कि मानवाधिकारवादी शिक्षा और सरोकारों पर जोर बढ़े ताकि मानवता को पिछली सदी में जो कीमत चुकानी पड़ी, वह आगे न चुकानी पड़े। मानवाधिकार शिक्षा की गुंजाइश तथा उसकी उम्मीद इस यकीन से उपजती है कि मनुष्य अपने समाज व साथियों के हित की चिंता करने में सक्षम है। इस विास की जड़ें अन्य मनुष्यों के लिए मनुष्य की स्वाभाविक सामान्य चिंता में निहित है। किंतु इससे भी कहीं अधिक प्रबल आधार कुछ मनुष्यों या समूहों द्वारा अपने समाज व साथियों के कल्याण के लिए किए जाने वाले त्याग में है। मानवीय स्वभाव का यह आयाम इस अर्थ में अधिक महत्वपूर्ण है कि इसने अपने ऐतिहासिक लक्ष्य- ‘एक मानवीय लोकतांत्रिक, शांतिपूर्ण तथा खुशहाल वि के निर्माण के लक्ष्य को पाने का दायित्व पूरा नहीं किया है।’ एक बेहतर दुनिया बनाने के इस सपने को यूनानियों तथा रोमन दासों द्वारा की गई कोशिशों में देखा जा सकता है। आगे ये कोशिशें आंदोलनात्मक परिणतियों को प्राप्त हुई। ब्रिटेन में 1215 में मैग्ना कार्टा, मनुष्य एवं नागरिकों के अधिकारों संबंधी फ्रांसीसी राष्ट्रीय सभा के घोषणा-पत्र ‘वर्जीनिया बिल ऑफ राइट्स’ तथा संयुक्त राज्य द्वारा इसे अंगीकृत किया जाना, ऐसे ही क्रांतिकारी फलित हैं। यह 17वीं तथा 18वीं शताब्दी की विरासत थी। तीसरी दुनिया के देशों में 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में स्वतंत्रता आंदोलन के परिणामस्वरूप स्वायत्त प्रभुता संपन्न राष्ट्रों का उदय हुआ। इनमें से ज्यादातर देशों ने संघात्मक शासन पद्धति को अपनाया। कहने की जरूरत नहीं कि विधिसम्मत शासन को अंगीकार करना अपने आप में एक महत्वपूर्ण मानवीय उपलब्धि है। मानवाधिकारों के क्षेत्र में बीते छह दशकों का अनुभव गंभीर चिंतन का विषय बन गया है। सार्वभौम घोषणापत्र का पालन या औपनिवेशिक शासकों से स्थानीयजन तक सत्ता के हस्तांतरण या विभिन्न अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाओं के अंगीकरण से बुनियादी सचाई में कोई ठोस सकारात्मक बदलाव नहीं आया है। सचाई यही है कि मानवाधिकारों का व्यापक हनन हुआ है। 20वीं शताब्दी के अंत में मानवता ने पहले से कहीं अधिक हिंसक, निर्मम एवं अमानवीय दुनिया में कदम रखा। पर मनुष्य स्वभाव से आशावादी है। सब कुछ के बावजूद पीड़ित लोग अब भी पूरी दुनिया में उम्मीद का दामन थामे हुए हैं। यह जरूर है कि मनुष्य को दुनिया की सचाई को बदलने के लिए और अधिक सचेत एवं सतर्क पहल करने होंगे। इसके लिए मानवाधिकारों की शिक्षा पर खास तौर पर ध्यान देना होगा। मानवाधिकार शिक्षा के सामने तीन महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं-पहली, समकालीन सभ्यता की विभिन्न दुविधाओं का स्पष्टीकरण; दूसरी, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक अनुभवों का हस्तांतरण; तीसरी, बदलाव की प्रक्रिया में तेजी लाना। समकालीन सभ्यता के सामने कई असमंजस हैं, जो अंतर्विरोधों से पैदा हुए हैं। व्यक्तिगत स्तर पर ये अंतर्विरोध निस्वार्थ बनाम स्वार्थ में निहित है और संस्थागत स्तर पर यह व्यक्तिगत बनाम सामूहिक, राज्य की शक्ति बनाम प्रजातांत्रिक संस्कृति में निहित है। हमारे सामने विकास के जो नमूने हैं, वे यह अपेक्षा रखते हैं कि स्वहित ही उत्पादक बलों के तीव्र विकास को आगे बढ़ा सकता है। समाजवादी वि के संकट ने इस आम धारणा को पुष्ट किया है। संकट के बाबजूद मानवीय स्वभाव में निहित श्रेष्ठता की संभावनाओं को पुन: तलाश करते हुए उसे महसूस भी करना होगा। इसके द्वारा सकारात्मक उपलब्धियों एवं ऊंचाइयों के बारे में ‘ऐतिहासिक स्मृति’ को पुनर्जीवित कर तथा उसका विवेचन कर भावी पीढ़ियों तक उसके हस्तांतरण को संभव बनाया जा सकता है। ऐसे क्षेत्रों में अतीत की उपलब्धियों के प्रति उदासीनता न केवल अतीत को नकारती है बल्कि सामाजिक जीवन के उच्चतर क्षेत्रों में प्रवेश करने की समाज की क्षमता को भी कमजोर करती है। अतीत के आलोचनात्मक चिंतन से सामाजिक चेतना में बढ़ोत्तरी होती है, जो न केवल लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था के लिए बल्कि लोकतांत्रिक ढंग से जीवन जीने के लिए आवश्यक माहौल तैयार करती है। इस प्रयास को व्यक्तिगत, सामूहिक, राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तरों पर जारी रखने की आवश्यकता है। मानवाधिकार शिक्षा, इस प्रक्रिया में मील का पत्थर साबित होगी। मानवाधिकार शिक्षा के तीन अलग- अलग पहलू हो सकते हैं- विकासवादी, सुधारात्मक तथा रूपांतरकारी। ये सभी पहलू जरूरी तौर पर एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। फिर भी उनके अपने अलग-अलग महत्व हैं। विकासवादी शिक्षा, मानवाधिकार शिक्षा के प्रति सबसे अधिक सुग्राह्य दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को मानकर चलता है। इसे व्यापक रूप से संतुलन केंद्रित कहा जा सकता है। इसमें बदलाव की संभावना कम होती है। यह आमतौर पर सीखने वाले को सूचना को ऊर्जा में तब्दील करने की क्षमता नहीं देता है। यदि सीखने वाले बच्चे हैं तो उन्हें अधिकारों की सूची को रटने तथा उसे परीक्षा में उतारने की जरूरत होगी। ऐसे में अधिकांश प्रशिक्षु कक्षा में पढ़ाए गए मानवाधिकारों को परीक्षा हाल से बाहर याद रखने की जहमत नहीं उठाते। इससे यह पता चलता है कि मानवाधिकार शिक्षा को परीक्षा तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। सुधारात्मक दृष्टिकोण, विकासवादी दृष्टिकोण से कुछ कदम आगे है। सुधारवादी दृष्टिकोण प्रशिक्षु की जानकारी को प्रभावित करना चाहता है। यह दृष्टिकोण सूचना की आनुष्ठानिक उत्पत्ति के महव को कम करता है तथा इसमें अधिकारों के प्रश्न को इसके ऐतिहासिक संदर्भ में प्रस्तुत किया जाता है। साथ ही यह दृष्टि अधिकारों के लिए जन आंदोलनों तथा उनके बलिदानों की चर्चा करते हुए प्रशिक्षुओं को ऐतिहासिक प्रक्रिया के प्रति संवेदनशील बनाने में सहायक होता है। ऐसे दृष्टिकोण को यूनेस्को जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का समर्थन व प्रोत्साहन भी मिलता है। मानवाधिकार शिक्षा पर यूनेस्को के दस्तावेज में कहा गया है, ‘समाज की अन्य एजेंसियों की तरह स्कूलों पर मानवाधिकारों के सिद्धांतों की समझ विकसित करने तथा उनके अनुसार भावी नागरिकों की रुझान एवं व्यवहार को आकार देने में पूर्ण एवं प्रभावी रूप से अपनी भूमिका निभाने का दायित्व है।’
तीसरा दृष्टिकोण जिसे हम रूपांतरकारी अथवा मानववादी कह सकते हैं, व्यक्ति, समूह, समाज, राज्य एवं वि की व्यवस्था को बदलने पर जोर देता है। इसके अनुसार यह बदलाव न केवल अतीत की आलोचनात्मक समझ से बल्कि समकालीन सामाजिक-आर्थिक संदर्भ प्रदान कर हासिल किया जा सकता है। साथ ही, यह अपना ध्यान अन्याय एवं अत्याचार पर केंद्रित करता है। इसका उद्देश्य प्रशिक्षु को आहत, पीड़ित अथवा दुखियारी लोगों के प्रति संवदनशील बनाते हुए यह भी देखना है कि मनुष्य की चेतना गहरी हो एवं उसकी जड़ें ठोस सचाई में स्थापित हों। यह दृष्टिकोण समानता, स्वतंत्रता, शांति, न्याय तथा सुख शांति जैसे मूल्यों पर जोर देता है। इससे प्रशिक्षु मानव स्वभाव की उदात्त क्षमताओं पर विचार करता है। इसमें वस्तुनिष्ठ एवं व्यक्तिनिष्ठ कारक शामिल हैं। इस प्रयास के परिणामस्वरूप स्वार्थ, शक्ति की तलाश, धन संग्रह, अंधविास, संकीर्ण सामाजिक संबंध आदि प्रवृत्तियों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाती है।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
Rashtirya sahara Natioanl Edition 10-12-2012 Page-10 f’k{kk)