Monday, December 10, 2012

समग्र शिक्षा की आध्यत्मिक दृष्टि





आजादी के बाद देश में जो सबसे बड़ा प्रश्न खड़ा हुआ वह था-शिक्षा का। गांधी से लेकर नेहरू तक सभी इस खोज में जुटे थे कि देश की करोड़ों जनता की मानसिक शक्ति को दिशा देने वाली शिक्षा का स्वरूप क्या हो? जो देश की दिशा और दशा दोनों बदलने में सक्षम हो। प्रश्न जटिल था किन्तु समाधान काफी क्षीण; क्योंकि तब तक लॉर्ड मैकाले का प्रभाव देश के बुद्धिजीवियों के सिर चढ़कर बोलने लगा था। दूसरी ओर प्राचीन भारतीय मनोदृष्टि को लेकर कार्य करने वाले शिक्षाविद् देश के समक्ष भारतीय अवधारणा पर आधारित शिक्षा पद्धति का कोई ठोस मॉडल नहीं दे पा रहे थे। गांधी ने इस दिशा में प्रयास किया और अपनी शैक्षिक सोच को लेकर गंभीरता दिखाई पर वह शिक्षा नीति को प्रभावी ढंग से लागू नहीं कर सके। उस अवधारणा को हमारे शिक्षा विशेषज्ञों ने चरखे से बुनी खादी तक समेटकर रख दिया। जरूरत थी किसी ऐसे मॉडल की जिस पर न अति प्राचीन रूढ़ियों की जकड़नें हों और न ही वह आधुनिकता में इतना सराबोर हो कि समाज में नीरसता या शुष्कता पैदा हो जाए। देश के महानायकों ने इस दिशा में अनेक प्रयोग किए। अगर कहें तो आजादी से लेकर अब तक देश की शिक्षा व्यवस्था को लेकर अनगिनत प्रयोगों का दौर चला और आज भी वि के सबसे बड़े लोकतंत्रीय देश की शिक्षा नीति प्रयोग के दौर से ही गुजर रही है। इस कटु सत्य के प्रमाण भी हैं। एक लम्बी यात्रा के बाद जब सामाजिक कसौटी पर वर्तमान विद्यार्थी को कसते हैं और प्रतिफल संतोषजनक नहीं मिलते तो संपूर्ण शिक्षातंत्र पर प्रश्न खड़ा होने लगता है। आज की शिक्षा जीवन मूल्यों के प्रति उदासीन होने के कारण भौतिक जगत की खोज तक सिमट कर रह गई है। परिणामत: सामाजिक मूल्यों में भी छिछलापन देखने को मिलता है क्योंकि शिक्षा समाज की सचेतक है। मेगास्थनीज का कथन है कि जैसी शिक्षा होगी, वैसे ही सामाजिक मूल्य होंगे। उसने तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में शिक्षा के मूल्यों को आपस में गूंथा पाया था। उन्हीं के शब्दों में-‘सामाजिक स्थिति इतनी सशक्त थी कि चोरी जैसी घटनाएं भी यहां कभी नहीं देखी जाती थी।’
आज की उल्टी हुई परिस्थिति में सब कुछ सीधे से उल्टा हो गया है। देशी-विदेशी भाषा में दूसरों के विचारों को रटकर, किसी तरह अपने में इकट्ठा कर कुछ उपाधियों को पा लेने में ही गौरव समझा जाता है। आज शिक्षा का उद्देश्य जीवन निर्माण नहीं वरन मात्र जीवनयापन का माध्यम बनकर रह गया है। ऐसी शिक्षा को सार्थक नाम नहीं दिया जा सकता। प्रसिद्ध दार्शनिक कांट, शिक्षाशास्त्री रस्क, बी. रेमांट से लेकर गांधी, टैगोर, श्रीराम शर्मा आचार्य तक ने इस तथ्य से सरोकार व्यक्त करते हुए कहा है कि ‘शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तित्व को ऊंचा उठाना है। मानव जाति को इस योग्य बनाना कि समाज में परस्पर सद्भाव विकसित हो।’
वर्तमान समय में शिक्षा स्वाभाविक विकास क्रम न रहकर विविध जानकारियों को किसी तरह मस्तिष्क में जमा लेने को ही सार्थक माना जाने लगा है। यदि इसकी सार्थकता के औचित्य पर विचार करें तो इसकी भूलें स्पष्टता के साथ सामने आने लगती हैं। यद्यपि विवेकयुक्त बुद्धि का आश्रय लेने की आवश्यकता जीवन निर्वाह के लिए हर किसी को पड़ती है ताकि जीवन निर्माण, चरित्र निर्माण तथा मनुष्य निर्माण में सहायक विचारों को अनुभूत किया जा सके। नैतिक मूल्यों का किसी भी कट्टरवादिता से कोई सम्बन्ध नहीं। यह तो मानव के व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने वाले तत्व हैं। इनका समावेश आदिकाल से अध्यात्म दर्शन में रहा है और यह आज भी अपेक्षित है। ऐतिहासिक कालक्रम की दृष्टि से विचार करने पर इसकी महत्ता स्पष्ट होती है। प्राचीन भारत में आश्रमों एवं पाठशालाओं में नैतिक शिक्षा पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग भी। अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा नीति को नैतिक शिक्षा से बिल्कुल पृथक कर दिया। इसका एकमात्र कारण भारतीयों को शारीरिक ही नहीं, मानसिक रूप से भी गुलाम बनाना था। उन्होंने राज्यों द्वारा संचालित विद्यालयों में इस शिक्षा की अवहेलना की। स्वतंत्र भारत में शिक्षाविदें ने बाह्य स्वरूप में थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया। परन्तु मूल ढांचा वही बना रहा। यही कारण है कि शिक्षा अपने उद्देश्यों को पूरा करने में सफल नहीं हो सकी है। आज पढ़े-लिखे लोगों में निराशा, कुंठा, असंतोष, असुरक्षा की भावना उत्पन्न हो गई है। यह शिक्षा में नैतिक मूल्यों की, व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाले तत्वों की अनिवार्यता सिद्ध करता है। वास्तव में नैतिक मूल्य एवं शिक्षा अपने स्वाभाविक स्वरूप में एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं। इनमें से एक को हटा देने से उनका स्वरूप स्वाभाविक न रहकर विकृत हो जाता है। सीए बारटोल ने ‘दि न्यू डिक्शनरी ऑफ थाट्स’ में स्पष्ट किया है कि ‘कुछ लोग नैतिकता को धर्म से अलग करना चाहते हैं, पर धर्म के आधार के बिना नैतिकता का अंत हो जाएगा। इनके आंतरिक सम्बन्धों को स्पष्ट करते हुए प्रो.ए.एन. हृाइटहेड ने लिखा है-‘शिक्षा का सार तत्व यह है कि वह धार्मिक होती है। जिस प्रकार शिक्षा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार शिक्षा को नैतिकता से भी पृथक करना असंगत है। हरबर्ट का कहना है कि नैतिक शिक्षा, शिक्षा के समग्र स्वरूप से पृथक नहीं है।’
नि:संदेह समग्र शिक्षा और नैतिक मूल्य एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं। इसके अभाव में शिक्षा में विकृति आना स्वाभाविक है। आज छात्रों में व्याप्त रही चरित्रहीनता, अनुशासनहीनता, मर्यादाओं का अभाव इसी विकृति को दर्शाता है। नीतिमत्ता में किसी प्रकार की कट्टरता नहीं है। इसका तत्वदर्शन हर समय प्रत्येक के लिए लाभकारी है। महात्मा गांधी ने नैतिकता की अनिवार्यता स्वीकारते हुए कहा था,‘मेरे लिए नैतिकता, सदाचार और धर्म पर्यायवाची शब्द है। नैतिकता के आधारभूत सिद्धांत सभी धर्मों में समान हैं। इन्हें बालकों को निश्चित रूप से पढ़ाया जाना चाहिए।’
चिन्तन करने से यही स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिकता का अभाव और भौतिकता का बढ़ता प्रभाव ही इस स्थिति का मूल कारण है। इनके उपयुक्त समावेश से ही स्थिति फिर सुधर सकती है। आज शिक्षा शास्त्र के अनेकानेक विद्वान भी इसी बात पर जोर दे रहे हैं। हंटर आयोग से लेकर कोठारी आयोग व नई शिक्षा नीति से राममूर्ति आयोग तक नियुक्त किए जाने वाले सभी आयोगों और समितियों ने शिक्षा-संस्थानों में नैतिक शिक्षा प्रदान किए जाने का समर्थन किया है। वर्तमान आयोग की रिपोटरें में सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा के लिए सक्रिय और संगठित प्रयास पर बल दिया गया है। इतना होने पर भी नैतिकता का सही स्वरूप किसी को भी ज्ञात नहीं है। विमर्श/ डा. चिन्मय पण्ड्या
(लेखक देव संस्कृति विविद्यालय, हरिद्वार के प्रति कुलपति हैं।)

Rashtirya Sahara National Edition 9-12-2012 Page 10 शिक्षा

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