Wednesday, May 11, 2011

इंजीनियरिंग कालेजों में होगी मेट्रो रेल की पढ़ाई


अब इंजीनियरिंग के छात्र पढ़ाई के दौरान मेट्रो रेल की तकनीक को जानने में भी महारथ हासिल कर सकते हैं। चंद दिनों में औपचारिकताएं पूरी हो गई तो देशभर के तकरीबन सभी नामीगिरामी इंजीनियरिंग कालेज में मेट्रो रेल इंजीनियरिंग की पढ़ाई पाठ्यक्रम में शामिल हो जाएगा। इस बाबत डीएमआरसी के प्रबंध निदेशक ई श्रीधरन ने मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को पत्र लिखा है। मकसद यह है कि जिस तरह दिल्ली समेत देश के अन्य महानगरों में मेट्रो नेटवर्क का विस्तार हो रहा है, मेट्रो के बारे में जानकारी रखने वाले इंजीनियरों की कमी न हो। तीसरे चरण के तहत दिल्ली व एनसीआर में ही 140 किलोमीटर नए मेट्रो लाइन का विस्तार होने वाला है। इसके अलावा मुंबई, बंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद तथा जयपुर जैसे शहरों में मेट्रो ट्रेन चलाने के प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है। ऐसे में आगामी चार से पांच साल में हजारों की संख्या में ऐसे इंजीनियरों की अचानक से जरूरत होगी, जिन्हें मेट्रो रेल इंजीनियरिंग की समझ हो। इसे देखते हुए ही गत सप्ताह ई श्रीधरन ने मानव संसाधन एवं विकास मंत्री कपिल सिब्बल को पत्र भेज कर देश के प्रमुख इंजीनियरिंग कालेजों में मेट्रो रेल इंजीनियरिंग की पढ़ाई विशेष रूप से शुरू कराने का सुझाव दिया है। उन्होंने शुरूआत में पहले सभी आईआईटी कालेज में मेट्रो इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरु करने की बात कही है। श्रीधरन द्वारा मानव संसाधन विकास मंत्री को पत्र भेजने की पुष्टि उनके ओएसडी (विशेष कार्याधिकारी) एकेपी उन्नी ने की, और कहा कि वहां से संतोषजनक जवाब भी मिला है। सूत्रों की मानें तो मंत्रालय ने आईआईटी के अलावा देश के अन्य इंजीनियरिंग कालेजों में मेट्रो रेल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कैसे छात्रों को दी जाए, इस बारे में ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्नीकल एजुकेशन (एआईसीटीई) से खाका तैयार करने को कहा है। चूंकि अभी डीएमआरसी के पास मेट्रो ट्रेन के लिए जो प्रशिक्षित इंजीनियर हैं, उन्हें भी आईआईटी दिल्ली और चेन्नई की शाखा में मेट्रो मॉडल के बारे में जानकारी देने के लिए एक साल का विशेष प्रशिक्षण दिया गया था। जिसके बाद वह सफल तरीके से काम कर रहे हैं। उनका मानना है कि अगर मंत्रालय सभी इंजीनियरिंग कालेजों में मेट्रो रेल इंजीनियरिंग से संबंधित चार वर्षीय पाठ्यक्रम की पढ़ाई शुरू करे तो इसके बेहतर नतीजे सामने आएंगे।


Monday, May 9, 2011

..ताकि हासिल हो सके सौ फीसदी साक्षरता


देश में बढ़ती साक्षरता दर को नई ऊंचाई देने के लिए सरकार 12वीं पंचवर्षीय योजना में उच्च साक्षरता दर वाले राज्यों में सौ फीसदी साक्षरता दर हासिल करने के लिए प्रोत्साहित करने पर विचार कर रही है। इस प्रोत्साहन के तहत इन राज्यों पर अतिरिक्त अनुदान दिया जाएगा। 2011 की जनगणना के अनुसार, वर्तमान साक्षरता दर 74 प्रतिशत है। इस दिशा में एक समूह का गठन किया गया है जो पंचवर्षीय योजना के दौरान प्राथमिक शिक्षा और साक्षरता के संबंध में योजनाओं की रूपरेखा तैयार करेगा। समूह से ऐसे उपाए सुझाने को कहा गया है जिसमें उच्च साक्षरता दर से पूर्ण साक्षरता प्राप्त करने वाले राज्यों को प्रोत्साहित किया जा सके। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार, अतिरिक्त अनुदान योजना खासकर उन राज्यों के लिए तैयार की गई हैं जहां साक्षरता दर 85 प्रतिशत से अधिक है। इनमें केरल 93.91 फीसदी के साथ पहले और लक्षद्वीप 92.28 फीसदी के साथ दूसरे स्थान पर है। इनके अलावा मिजोरम, त्रिपुरा, गोवा, दमन दीव, पुडुचेरी, दिल्ली, अंडमान निकोबार द्वीप समूह में भी साक्षरता दर 85 फीसदी से ऊपर निकल चुकी है। 12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत 2012 से 2017 के बीच साक्षरता कार्यक्रमों को नए सिरे से आगे बढ़ाने के दौरान राज्य सरकारों को और अधिक सक्रियता से शामिल किया जाएगा। सरकार द्वारा गठित समूह ने यह भी सलाह दी है कि देश में निरक्षरता को कम करने के लिए लिंग, क्षेत्र और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर भी शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए। समूह इस संबंध में 30 सितंबर तक अपनी अंतिम रिपोर्ट पेश कर सकता है। एक अप्रैल को जारी जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार, भारत की साक्षरता पिछले दस साल में 9.21 फीसदी बढ़कर 74.04 हो गई है।


Thursday, May 5, 2011

नकल पर टिकी परीक्षाओं का हश्र


 एक मई को जब पूरा देश स्वेद बूंदों की अहमियत को याद कर रहा था, तब कुछ लोग श्रम और प्रतिभा का मजाक उड़ाकर माल काटने में जुटे हुए थे। ऑल इंडिया इंजीनियरिंग एंट्रेंस एग्जाम यानी अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के पर्चे ऐन परीक्षा के पहले लीक हो गए। खबर तो यह है कि उत्तर प्रदेश में कुछ जगहों पर पर्चे छह-छह लाख रुपये तक में बिक रहे थे। केंद्र सरकार की अधीनस्थ संस्था केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद यानी सीबीएसई पर इस प्रवेश परीक्षा को आयोजित कराने की जिम्मेदारी है, लेकिन प्रश्नपत्रों के लीक हो जाने से साफ है कि परिषद की व्यवस्था में खामियां तो हैं ही, उसके कर्मचारी भी बेईमान हैं। इसी साल मार्च से लेकर अब तक सीबीएसई की दो परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों के लीक होने से साफ है कि सीबीएसई की सफाई की जरूरत है। इसी साल मार्च में होने वाली दसवीं और बारहवीं की परीक्षा के जो प्रश्नपत्र अंडमान और निकोबार पहुंचे थे, उनकी सील टूटी हुई थी। यानी साफ था कि उन पर्चो के साथ छेड़छाड़ की गई थी। सीबीएसई में किस तरह दलालों और अधिकारियों की मिलीभगत है और उसमें समाज के रसूखदार लोग शामिल हैं, इसकी जानकारी सीबीएसई बोर्ड के दफ्तर में घुसते ही मिल जाएगी। कुछ साल पहले तक जब इंटरनेट का चलन नहीं था, तब सीबीएसई की परीक्षाओं के नतीजे अखबारों में प्रकाशित होते थे। उस समय सीबीएसई के पास नतीजों को प्रकाशित करने के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं होती थी। लिहाजा, नतीजे हासिल करने के लिए अखबारों तक को अधिकारियों की जेब भरनी पड़ती थी। जाहिर है कि जो अखबार पहले और ज्यादा जेब भर पाता था, कामयाबी उसे ही हाथ लगती थी। जेब भरना अखबारों की मजबूरी थी, क्योंकि परीक्षा के नतीजे नहीं छाप पाने की स्थिति में उन्हें अपनी सबसे बड़ी पूंजी यानी अपने पाठकों को खोने का खतरा रहता था। स्पष्ट नीति न होना सीबीएसई की ढिलाई नहीं थी, बल्कि ऐसा जानबूझकर किया गया था, ताकि कमाई की राह बनी रहे। सीबीएसई में कितना भ्रष्टाचार है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कई स्कूलों को बनाने में मानकों का ध्यान नहीं रखा गया है, लेकिन उन्हें स्कूल चलाने की मान्यता दे दी गई है। सीबीएसई के मानकों के मुताबिक स्कूलों में बेसमेंट नहीं होना चाहिए, बच्चों के सुरक्षा के लिहाज से ऐसा होना जरूरी है। लेकिन गुड़गांव में एक नामी स्कूल बेसमेंट होने के बाद इसलिए चल रहा है, क्योंकि उसके संचालकों ने सीबीएसई अधिकारियों को मोटी रकम देकर पढ़ाई जारी रखने की मान्यता हासिल कर ली है। फरीदाबाद के एक नामी स्कूल को किसी बड़ी कंपनी ने खरीद लिया, जबकि स्कूल नियमावली के मुताबिक सीबीएसई से मान्यता प्राप्त स्कूल की खरीद-बिक्री नहीं हो सकती। हां, एक तरह के सामाजिक कार्यो वाली संस्था किसी संस्था से स्कूल न चला पाने की स्थिति में स्कूल के संचालन की जिम्मेदारी हासिल कर सकती है, लेकिन फरीदाबाद का वह स्कूल करोड़ों में बिका है। मजे की बात है कि यह जानकारी आम लोगों तक में चर्चा में है। लेकिन सीबीएसई के कानों पर जूं नहीं रेंगती। उस स्कूल में नौंवी से लेकर बारहवीं तक की मान्यता नहीं है, लेकिन मोटी रकम पर हर साल वहां छात्रों का दाखिला होता है और उन छात्रों को दसवीं-बारहवीं की परीक्षाएं कहीं और से दिलवाई जाती हैं। जब राजधानी दिल्ली की नाक के नीचे ऐसा हो रहा है तो देश के सुदूरवर्ती इलाकों में जाहिर बदइंतजामियों का अंदाजा लगाना आसान हो जाता है। जाहिर है, जिस संस्था में भ्रष्टाचारी अधिकारियों की बन आई हो, वहां से पाक-पवित्र परीक्षाओं की उम्मीद कैसे की जा सकती है। जिस तरह से शिक्षा व्यवस्था खासतौर पर निजी हाथों में समाजसेवा से ज्यादा कमाई का साधन बनी है, उद्योग का दर्जा हासिल की है, उसमें सीबीएसई और दूसरे विभागों के अधिकारियों के भ्रष्ट आचरण का भी योगदान है। सीबीएसई के अंदर जारी भ्रष्टाचार की ये कुछ बानगी हैं। परीक्षाओं की जरूरत पर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं। दसवीं से बोर्ड की परीक्षाएं खत्म होनी शुरू भी हो गई हैं। कुछ शिक्षाशास्त्री इसके पक्ष में हैं तो कुछ इसके विरोध में। मौजूदा परीक्षा व्यस्था की आलोचना इसलिए की जाती है, क्योंकि वह समझ से ज्यादा रटंत की प्रक्रिया को बढ़ावा देती है, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर हजारों में से कौन बेहतर है और कौन कमतर, इसकी जांच का तरीका क्या हो। आधारभूत ज्ञान को जांचने का तरीका क्या हो, इसे लेकर दुनियाभर के शिक्षाशास्त्री अभी तक किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाएं हैं। ऐसी हालत में मौजूदा ढर्रे की परीक्षाओं की जरूरत बनी रहेगी। चूंकि राज्यों के विभागों और संस्थानों की साख की तुलना में केंद्र सरकार के संस्थानों की साख ज्यादा है, लिहाजा उन पर भरोसा किया जाता रहा है। अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के आयोजन की जिम्मेदारी सीबीएसई को इस साख के लिए ही दी गई, लेकिन वह अपनी साख को बचाने में कामयाब नहीं रही है। भ्रष्ट आचरण और शिक्षा को उद्योग बनाते जाने की प्रवृत्ति के चलते अधिकाधिकों को परीक्षाओं में भी कमाई नजर आने लगी है और इस पवित्र पेशे को भी वे बदहाल बनाने पर जुटे हुए हैं। चूंकि उदारीकरण के दौर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई की मांग बढ़ गई है, लिहाजा प्रवेशार्थियों का दबाव भी बढ़ा है। कोचिंग केंद्रों की बाढ़ भी इसी दबाव और दबाव के बीच कमाई की उम्मीद का नतीजा है। अब कोचिंग सेंटरों में अधिक से अधिक छात्र बुलाने की प्रतिद्वंद्विता भी बढ़ी है, क्योंकि कोचिंग कोई सस्ता सौदा नहीं रहा। कोचिंग संस्थानों की साख तभी बढ़ सकती है, जब उनके यहां प्रवेश लेने वाले अधिकाधिक छात्र प्रवेश परीक्षा में कामयाब हों। इसके लिए कोचिंग संस्थान प्रश्नपत्र बनाने वाले संभावित अध्यापकों को भी अपने यहां बुलाते हैं। जब इस पर भी बात नहीं बनती तो वे पर्चे लीक कराने की कोशिश भी करते हैं और इसमें साथ देते हैं सीबीएसई के बेईमान कर्मचारी और अधिकारी। एक मई को होने वाली अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा के प्रश्न पत्र लीक कांड की जांच कर रही उत्तर प्रदेश की एसटीएफ के एसपी विजय प्रकाश का कहना है कि उत्तर प्रदेश में छह-छह लाख में पर्चे बेचे जा रहे थे। इतनी मोटी रकम देकर जाहिर है कि प्रश्नपत्र खरीदने वाले छात्र कम ही होंगे। इससे साफ है कि कोचिंग सेंटरों के संचालकों का हाथ इस लीक में था और वे ही इसे खरीद रहे होंगे। इन सेंटरों की पहुंच और उनके साथ फलते-फूलते इस बेईमान धंधे का नेटवर्क गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश तक में हैं। उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने एक व्यक्ति को इस सिलसिले में गिरफ्तार भी किया है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि इस नेटवर्क को ही तोड़ा जाए और उसमें शामिल सीबीएसई के अधिकारियों तक को बेनकाब किया जाए। इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों और नेटवर्क के रसूखदार लोगों को कड़ी सजा नहीं दी जाएगी तो परीक्षा की पवित्रता को काली कमाई से गंदा करने की कोशिशें जारी रहेंगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

शिक्षा की खरीद-फरोख्त


शिक्षा के बाजारीकरण पर लेखक की टिप्पणी
देश के प्रमुख इंजीनियरिंग कॉलेजों की संयुक्त प्रवेश परीक्षा एआइईईई का प्रश्नपत्र लीक होने से लगभग 14 लाख परीक्षार्थियों को गहरा सदमा लगा है। लखनऊ में यह प्रश्नपत्र छह लाख रुपये में बिक रहा था। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि प्रश्नपत्र की खरीद-फरोख्त ने शिक्षा को मजाक बना कर रख दिया है। प्रश्नपत्र लीक होने का यह पहला मामला नहीं है। इससे पहले भी महत्वपूर्ण परीक्षाओं के प्रश्नपत्र लीक होते रहे हैं। भारत में कोचिंग इंस्टीट्यूट शिक्षा माफिया का रूप ले चुके हैं। पेपर लीक कराने में सबसे बड़ा हाथ इन्हीं इंस्टीट्यूटों का मिल रहा है। शिक्षा में भ्रष्टाचार कॉलेजों में प्रवेश में भी देखा जा सकता है। इंजीनियरिंग कॉलेज व विश्वविद्यालय शिक्षा को बेचने के लिए छात्रों को तरह-तरह के प्रलोभन दे रहे हैं। फिर भी, अधिकांश कॉलेजों की सीटें पूरी नहीं भर रही हैं। कुछ समय पहले तक विद्यार्थी इंजीनियरिंग में प्रवेश लेने के लिए कॉलेजों के पीछे भागते थे, लेकिन आजकल कॉलेज प्रवेश देने के लिए विद्यार्थियों के पीछे भागने लगे हैं। दरअसल, निजीकरण के इस दौर में पूरे देश में इंजीनियरिंग कॉलेजों की बाढ़ आ गई है। लगभग सभी प्रदेशों में धड़ाधड़ नए इंजीनियरिंग व मैनेजमेंट कॉलेज खुल रहे हैं। उत्तर प्रदेश के इंजीनियरिंग कॉलेजों में अनेक सीटें खाली रह गई हैं। कुछ नए इंजीनियरिंग कॉलेज तो विद्यार्थी न मिलने के कारण बंद होने के कगार पर हैं। सवाल यह है कि ऐसी स्थिति मे सीटें बढ़ाने का क्या औचित्य है? गौरतलब है कि इंजीनियरिंग कॉलेजों को एआइसीटीई संस्था मान्यता देती है। इसके साथ ही ये कालेज अपने क्षेत्र के प्राविधिक विश्वविद्यालयों से संबद्धता हासिल करते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि एआइसीटीई और संबंधित विश्वविद्यालय किसी भौगोलिक क्षेत्र में इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्या पर ध्यान नहीं देते हैं। यही कारण है कि देश के अनेक शहरों में निजी इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्या 40-45 तक पहुंच गई है। यह प्रतिस्पर्धा शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए नहीं है बल्कि विद्यार्थियों को हड़पने के लिए है। यह हाल केवल इंजीनियरिंग पाठयक्रमों का ही नहीं है। निजी क्षेत्र में खुले एमबीए और एमसीए जैसे अन्य पाठयक्रम भी इसी ढर्रे पर चल रहे हैं। निजी क्षेत्र में अधिक कॉलेज होने के फलस्वरूप विद्यार्थी न मिलने के कारण ये संस्थान अपने यहां पहले से अध्ययनरत विद्यार्थियों से ही सारा मुनाफा निकालने के प्रयास में रहते हैं। ऐसे में विद्यार्थियों का शोषण और बढ़ जाता है। अगर कोई विद्यार्थी किसी विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठता है तो इन पाठ्यक्रमों को संचालित करने वाले निजी कॉलेज जुगाड़ संस्कृति के माध्यम से विश्वविद्यालय से विद्यार्थी का पता मालूम कर लेते हैं और फिर शुरू होता है उस विद्यार्थी से संपर्क साधने का सिलसिला। विद्यार्थी से संपर्क साधने के इस अभियान के अंतर्गत विद्यार्थी को प्रवेश देने के लिए प्रलोभक पत्र भेजा जाता है, उसके मोबाइल पर एसएमएस भेजे जाते हैं और मोबाइल के जरिए उनसे वार्तालाप भी किया जाता है। यह सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक कि विद्यार्थी झल्लाकर उसे परेशान न करने की चेतावनी न दे दे। एक दशक पहले तक अगर किसी गांव या कस्बे से इंजीनियरिंग में किसी विद्यार्थी का चयन हो जाता था तो चर्चा का विषय बन जाता था। ऐसे विद्यार्थियों को एक अलग ही सम्मान प्राप्त होता था। लेकिन निजीकरण के बाद इंजीनियरिंग जैसे पाठयक्रमों की साख को बट्टा लग गया है। दुख और आ:र्य की बात यह है कि ऐसे पाठयरमों के लिए लगभग सभी प्रकाशक कुंजी की तरह की पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं और अधिकांश विद्यार्थी इन्हीं पुस्तकों को पढ़कर पाठयक्रम पूर्ण कर रहे हैं। इस वातावरण में शिक्षा की गुणवत्ता की तरफ किसी का ध्यान नहीं है। सभी का मुख्य उददेश्य किसी भी तरह मुनाफा कमाना है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

Tuesday, May 3, 2011

अब बीकॉम युवक भी बन सकेंगे शिक्षक


कॉमर्स ग्रेजुएट के लिए केंद्र सरकार नौकरी का दरवाजा खोलने जा रही है। सरकार ने बीकॉम अभ्यर्थियों को भी कक्षा छह से आठ तक के लिए टीचर की परीक्षा में बैठने की अनुमति देने का फैसला किया है। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत पिछले साल बीए और बीएससी पास लोगों को इस नौकरी के लिए पात्र बनाया गया था लेकिन उसके बाद मिले प्रतिवेदनों को देखते हुए बी.कॉम के हक में फैसला किया गया है। इस संबंध में अधिसूचना जल्दी ही जारी की जाएगी। नेशनल काउंसिल ऑफ टीचर एजुकेशन द्वारा पिछले साल जारी किए गए दिशानिर्देश के मुताबिक बीए, बीएससी के अभ्यर्थियों की तरह टीचर बनने के इच्छुक बीकॉम के अभ्यर्थियों को शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) पास करनी होगी। टीईटी को शुरू करने का उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षण के स्तर में सुधार लाना है। इस साल 26 जून को केंद्रीय विद्यालय संगठन, नवोदय विद्यालय और तिब्बती स्कूलों के लिए केंद्रीय टीईटी का आयोजन सीबीएसई द्वारा करवाया जाएगा। चंडीगढ़ और निकोबार द्वीप समूह के स्कूलों में भी शिक्षकों की नियुक्ति इसी परीक्षा के जरिए होगी। यह परीक्षा 150 अंकों की होगी और इसमें वस्तुनिष्ठ सवाल पूछे जाएंगे। इस परीक्षा में मौकों की कोई सीमा नहीं है।

Sunday, May 1, 2011

शर्मनाक स्थिति


न तो कोई ऐसी सरकार है, न राजनीतिक दल और न ही राजनेता जो खुद को समाज और राष्ट्र के उत्थान के प्रति समर्पित न बताता हो, लेकिन प्राइमरी विद्यालयों की दुर्दशा को लेकर उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न राज्य सरकारों को जो फटकार लगाई उससे यही पता चलता है कि वे अपनी घोषित प्राथमिकताओं के प्रति तनिक भी प्रतिबद्ध नहीं। एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश सहित 13 राज्यों को प्राइमरी स्कूलों में एक महीने में पीने का पानी और छह महीने में ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध कराने का जो आदेश दिया उससे यही पता चल रहा है कि राज्य सरकारें इन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों की घोर उपेक्षा कर रही हैं। क्या यह लज्जा की बात नहीं कि हजारों प्राइमरी स्कूल ऐसे हैं जहां बच्चों के पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं है? बिजली, शौचालय और अन्य सुविधाएं तो इन विद्यालयों के लिए विलासिता प्रधान चीजें होंगी। समस्या केवल यह नहीं है कि प्राइमरी स्कूल सामान्य सुविधाओं से वंचित हैं, बल्कि यह भी है कि वे शिक्षकों की कमी से भी जूझ रहे हैं। कुछ राज्य तो ऐसे हैं जहां शिक्षकों के रिक्त पदों की संख्या हजारों में है। क्या ऐसा नहीं लगता कि सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर या तो कागजी खानापूरी की जा रही है या फिर देश के नौनिहालों से मजाक किया जा रहा है? क्या बुनियादी सुविधाओं और यहां तक कि शिक्षकों की कमी से जूझ रहे प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना की जा सकती है? क्या नेताओं और साथ ही हमारे नौकरशाहों को यह साधारण सी बात समझ में नहीं आती कि प्राइमरी शिक्षा की अनदेखी करना एक प्रकार से राष्ट्र के भविष्य से खिलवाड़ करना है? यह निराशाजनक है कि सामाजिक उत्थान वाली योजनाओं और कार्यक्रमों के प्रति जितने उदासीन हमारे राजनेता हैं उतने ही नौकरशाह भी। यदि नौकरशाह चाहें तो प्राइमरी शिक्षा के ढांचे को दुरुस्त करने के लिए अपने स्तर पर बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने नेताओं के हुक्म बजाने और कागजी खानापूरी करने को अपने जीवन का ध्येय बना लिया है। इससे इंकार नहीं कि देश का राजनीतिक नेतृत्व आम जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है, लेकिन अब इसमें संदेह नहीं कि नेताओं जैसी स्थिति नौकरशाहों की भी है। जब प्राइमरी स्कूलों में सामान्य सुविधाएं और यहां तक कि पर्याप्त शिक्षकों के अभाव को दूर करने का काम सही तरीके से नहीं किया जा रहा तो फिर इसकी उम्मीद करना व्यर्थ है कि कोई इन स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता पर विचार-विमर्श कर रहा होगा। संभवत: यही कारण है कि रह-रहकर ऐसी खबरें आती रहती हैं कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों में चौथी और पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र साधारण जोड़-घटाव भी नहीं कर पाते। यह तो छात्रों, उनके अभिभावकों और साथ ही समाज एवं राष्ट्र के साथ की जाने वाली एक तरह की धोखाधड़ी है। इससे बड़ी विडंबना यह है कि प्राइमरी शिक्षा की दुर्दशा पर राज्य सरकारें चेतने के लिए तैयार नहीं। उन्हें चेताने का काम न्यायपालिका को करना पड़ रहा है। अब यदि न्यायपालिका को सरकारों को यह बताने के लिए विवश होना पड़ेगा कि उन्हें प्राइमरी स्कूलों की दुर्दशा दूर करने के लिए क्या कुछ करने की जरूरत है तो फिर हो गया देश का कल्याण।


आधा दर्जन राज्यों में स्कूली शिक्षा खतरे में


देश में स्कूली पढ़ाई का एजेंडा विद्यालय भवनों व छात्रों की कमी से नहीं, बल्कि शिक्षकों की कमी के कारण पटरी से उतरने वाला है। एक तरफ शिक्षा का अधिकार कानून के अमल के लिए पांच लाख से अधिक नए शिक्षकों की दरकार है तो दूसरी तरफ पूरे देश में पहले से ही नौ लाख शिक्षक कम हैं। इस मामले में सबसे बदतर स्थिति उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, राजस्थान और उड़ीसा की है। जहां लाखों शिक्षकों के पद अर्से से खाली पड़े हैं। उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार है। मायावती मुख्यमंत्री हैं। पार्टी शुरू से गरीबों, वंचितों, दबे-कुचलों की हिमायती रही है। अब भी इन्हीं तबकों की पढ़ाई की राह मुश्किल है, लेकिन उत्तर प्रदेश में ही सबसे ज्यादा (एक लाख 88 हजार) शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। उसमें भी एक लाख 38 हजार के लिए सीधे राज्य सरकार जिम्मेदार है। बिहार के लिए चर्चा आम है कि वहां नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य में विकास की रफ्तार तेज हुई है। इसीलिए उनकी फिर से सत्ता में वापसी हुई है। शिक्षा की स्थिति भी सुधरी है। इस सुधार के बावजूद वहां डेढ़ लाख से अधिक शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। पश्चिम बंगाल में 34 साल से वाममोर्चा की सरकार है। वाममोर्चा सर्वहारा वर्ग की लड़ाई लड़ने की बात करता रहा है, लेकिन बुनियादी पढ़ाई की राह आसान करने के लिए शिक्षकों के खाली पद भरना उसकी प्राथमिकता में नहीं रहा। इसी तरह झारखंड की भाजपा गठबंधन सरकार और हरियाणा व राजस्थान की कांग्रेसी सरकारें भी शिक्षकों के खाली पड़े पदों को भरने में उतनी ही उदासीन हैं, जैसे दूसरे राज्यों की गैर-कांग्रेसी सरकारें। राज्य छोटा भले सही, लेकिन केरल में स्कूली शिक्षकों के सिर्फ 12 पद रिक्त हैं। जबकि उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में पांच हजार से अधिक, पंजाब में 14 हजार और दिल्ली में लगभग आठ हजार स्कूली शिक्षकों के पद नहीं भरे जा सके हैं। उधर, केंद्र सरकार गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात करती है। शिक्षा का अधिकार कानून में उसका प्रावधान भी कर दिया गया है। फिर भी जल्द कुछ बदलने के आसार नहीं हैं। वजह यह कि केंद्र व राज्य सरकारें अपने ही ढर्रे पर हैं। नतीजा यह है कि देश में स्कूली शिक्षकों के 47 लाख स्वीकृत पदों में से नौ लाख पद खाली पड़े हैं। उसमें छह लाख पद तो राज्य सरकारों के कोटे के हैं। तीन लाख पद सर्वशिक्षा अभियान के तहत भरे जाने हैं। अभियान में केंद्र व राज्यों के बीच खर्च का बंटवारा 65:35 के अनुपात का है।