Sunday, May 1, 2011

शर्मनाक स्थिति


न तो कोई ऐसी सरकार है, न राजनीतिक दल और न ही राजनेता जो खुद को समाज और राष्ट्र के उत्थान के प्रति समर्पित न बताता हो, लेकिन प्राइमरी विद्यालयों की दुर्दशा को लेकर उच्चतम न्यायालय ने विभिन्न राज्य सरकारों को जो फटकार लगाई उससे यही पता चलता है कि वे अपनी घोषित प्राथमिकताओं के प्रति तनिक भी प्रतिबद्ध नहीं। एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, पंजाब, हरियाणा, मध्यप्रदेश सहित 13 राज्यों को प्राइमरी स्कूलों में एक महीने में पीने का पानी और छह महीने में ढांचागत सुविधाएं उपलब्ध कराने का जो आदेश दिया उससे यही पता चल रहा है कि राज्य सरकारें इन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर रहे छात्रों की घोर उपेक्षा कर रही हैं। क्या यह लज्जा की बात नहीं कि हजारों प्राइमरी स्कूल ऐसे हैं जहां बच्चों के पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं है? बिजली, शौचालय और अन्य सुविधाएं तो इन विद्यालयों के लिए विलासिता प्रधान चीजें होंगी। समस्या केवल यह नहीं है कि प्राइमरी स्कूल सामान्य सुविधाओं से वंचित हैं, बल्कि यह भी है कि वे शिक्षकों की कमी से भी जूझ रहे हैं। कुछ राज्य तो ऐसे हैं जहां शिक्षकों के रिक्त पदों की संख्या हजारों में है। क्या ऐसा नहीं लगता कि सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर या तो कागजी खानापूरी की जा रही है या फिर देश के नौनिहालों से मजाक किया जा रहा है? क्या बुनियादी सुविधाओं और यहां तक कि शिक्षकों की कमी से जूझ रहे प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना की जा सकती है? क्या नेताओं और साथ ही हमारे नौकरशाहों को यह साधारण सी बात समझ में नहीं आती कि प्राइमरी शिक्षा की अनदेखी करना एक प्रकार से राष्ट्र के भविष्य से खिलवाड़ करना है? यह निराशाजनक है कि सामाजिक उत्थान वाली योजनाओं और कार्यक्रमों के प्रति जितने उदासीन हमारे राजनेता हैं उतने ही नौकरशाह भी। यदि नौकरशाह चाहें तो प्राइमरी शिक्षा के ढांचे को दुरुस्त करने के लिए अपने स्तर पर बहुत कुछ कर सकते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने नेताओं के हुक्म बजाने और कागजी खानापूरी करने को अपने जीवन का ध्येय बना लिया है। इससे इंकार नहीं कि देश का राजनीतिक नेतृत्व आम जनता की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा है, लेकिन अब इसमें संदेह नहीं कि नेताओं जैसी स्थिति नौकरशाहों की भी है। जब प्राइमरी स्कूलों में सामान्य सुविधाएं और यहां तक कि पर्याप्त शिक्षकों के अभाव को दूर करने का काम सही तरीके से नहीं किया जा रहा तो फिर इसकी उम्मीद करना व्यर्थ है कि कोई इन स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता पर विचार-विमर्श कर रहा होगा। संभवत: यही कारण है कि रह-रहकर ऐसी खबरें आती रहती हैं कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों में चौथी और पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्र साधारण जोड़-घटाव भी नहीं कर पाते। यह तो छात्रों, उनके अभिभावकों और साथ ही समाज एवं राष्ट्र के साथ की जाने वाली एक तरह की धोखाधड़ी है। इससे बड़ी विडंबना यह है कि प्राइमरी शिक्षा की दुर्दशा पर राज्य सरकारें चेतने के लिए तैयार नहीं। उन्हें चेताने का काम न्यायपालिका को करना पड़ रहा है। अब यदि न्यायपालिका को सरकारों को यह बताने के लिए विवश होना पड़ेगा कि उन्हें प्राइमरी स्कूलों की दुर्दशा दूर करने के लिए क्या कुछ करने की जरूरत है तो फिर हो गया देश का कल्याण।


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