Monday, April 23, 2012

बुनियादी शिक्षा का समाजवादी सपना


अभिजीत मोहन शिक्षा व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की प्रगति के लिए जरूरी है। शिक्षा सभ्यता और संस्कृति की जीवंतता का आधार भी है। शिक्षा के माध्यम से ही समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और सामाजिक गैर-बराबरी को खत्म किया जा सकता है, लेकिन यह तभी संभव होगा, जब समाज में शैक्षिक भेदभाव की जगह समान बुनियादी शिक्षा सुलभ होगी। सुप्रीम कोर्ट ने इस दिशा में क्रांतिकारी पहल की है। उसने शिक्षा का अधिकार कानून 2009 को संविधान सम्मत मानते हुए उस पर अपनी मुहर लगा दी है। अब छह से 14 साल के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा देने का रास्ता साफ हो गया है। मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडि़या और न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने राजस्थान की संस्था सोसायटी फॉर अनऐडेड प्राइवेट स्कूल और कई निजी स्कूलों से जुड़े संगठनों द्वारा शिक्षा के कानून अधिकार को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला देते हुए कहा है कि यह कानून सरकारी और सरकार द्वारा नियंत्रित स्कूलों, गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों और सरकारी सहायता लेने वाले अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू होगा। न्यायालय ने गैर सहायता प्राप्त निजी अल्पसंख्यक स्कूलों को कानून के दायरे से बाहर रखा है। शीर्ष अदालत का दूरगामी फैसला शिक्षा का अधिकार कानून-2009 को याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय में चुनौती दे रखी थी। उनके मुताबिक शिक्षा का अधिकार कानून निजी शैक्षणिक संस्थानों को अनुच्छेद 19 (1) जी के अंतर्गत दिए गए अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें निजी प्रबंधकों को सरकार के दखल के बिना अपने संस्थान चलाने की स्वायतत्ता प्रदान की गई है। किंतु अदालत ने साफ कर दिया है कि शिक्षा अधिकार कानून संविधान सम्मत है और उसका अनुपालन अनिवार्य है। न्यायालय ने यह भी व्यवस्था दी है कि देश भर में सरकारी और गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित होंगी। न्यायालय का फैसला दूरगामी परिणामों को समेटे हुए है। इस फैसले के बाद अब गरीब बच्चों के लिए सुविधासंपन्न स्कूलों का द्वार खुल गया है। वे भी अब इन स्कूलों में दाखिला ले सकते हैं। बता दें कि शिक्षा का अधिकार विधेयक कैबिनेट द्वारा 2 जुलाई, 2009 को स्वीकृत किया गया। राज्यसभा ने इस विधेयक को 20 जुलाई 2009 और लोकसभा ने 4 अगस्त, 2009 को पारित किया तथा 26 जुलाई, 2009 को राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने के बाद 27 अगस्त, 2009 को भारत सरकार के राजपत्र में प्रकाशित किया गया। फिर 1 अप्रैल, 2010 से इसे लागू कर दिया गया है। आजादी के बाद ही संविधान निर्माताओं ने शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में शामिल करना चाहा था, लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके। छह दशक बाद संसद ने इस अधिकार की आवश्यकता को समझते हुए वर्ष 2002 में संविधान के 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा नया अनुच्छेद 21-क जोड़कर इसे मूल अधिकार के रूप में अध्याय तीन में शामिल कर प्रवर्तनीय बना दिया। अब शिक्षा का अधिकार कानून के प्रावधानों के मुताबिक बच्चे या उसके अभिभावक से किसी भी प्रकार से सीधे या परोक्ष रूप से कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा। यानी बच्चे की बुनियादी शिक्षा का जिम्मा सरकार के कंधे पर होगा। शिक्षा अधिकार कानून के मुताबिक केंद्र सरकार, राज्य सरकारें, स्थानीय प्राधिकारी और माता-पिता सबके कर्तव्य सुनिश्चित किए गए हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद यह कानून अपना आकार कैसे लेता है और किस तरह केंद्र और राज्य सरकारें इस कानून को अमलीजामा पहनाती हैं। इस कानून को व्यावहारिक रूप देने में अब भी ढेरों कठिनाइयां हैं। इन कठिनाइयों को दूर करने के लिए राज्य सरकारों को अपनी सक्रियता बढ़ानी होगी। हालांकि निजी स्कूल प्रबंधकों ने शिक्षा अधिकार कानून का विरोध किया था, लेकिन न्यायालय का फैसला आने के बाद उनके लिए आदेश का अनुपालन बाध्यकारी होगा। किंतु वे इस फैसले से बहुत खुश नहीं हैं। यही वजह है कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए याचिका दाखिल कर दी है। निजी स्कूल प्रबंधन तर्क दे रहे हैं कि इस फैसले से शिक्षा का स्तर गिरेगा और स्कूलों का वातावरण खराब होगा। 25 फीसदी आरक्षण उन्हें और भी विचलित कर रहा है। उनका कहना है कि दाखिले में आरक्षण अनुचित और अव्यावहारिक है। इससे विद्यालयों की आर्थिक स्थिति बिगड़ेगी। लेकिन सच्चाई यह है कि इन आरक्षित वर्ग के बच्चों की पढ़ाई का खर्चा पूरी तरह से राज्य सरकारों द्वारा उठाया जाना है। ऐसे में इस बात की आशंका बढ़ जाती है कि कानूनी प्रावधानों की डर से भले ही निजी स्कूल गरीब बच्चों को अपने यहां दाखिला दे दें, लेकिन क्या वे उनके साथ समानता का व्यवहार करेंगे? इस पर सहज विश्वास नहीं होता है। इसलिए भी कि उनका तंत्र गरीब बच्चों को लेकर संवेदनशील नहीं है। ऐसे में डर यह भी है कि कहीं भेदभाव की वजह से गरीब बच्चों के मन में हताशा का भाव न पैदा हो या वे कहीं डिप्रेशन के शिकार न हो जाएं। निजी हितों से ऊपर उठें निजी स्कूल आज जरूरत इस बात की है कि निजी स्कूलों का प्रबंध तंत्र राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखते हुए अपने संकीर्ण विचारों से ऊपर उठे और खुले मन से गरीब बच्चों को अपनाए। यह उनका सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्व भी है। शिक्षा से वंचित बच्चों को शिक्षित करना सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं का उत्तरदायित्व है और निजी स्कूल प्रबंध तंत्र अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है। शिक्षा अधिकार कानून-2009 की सफलता के लिए राज्य सरकारों को भी सक्रिय होना पड़ेगा। दुर्भाग्य यह है कि इस कानून को लागू हुए दो साल होने जा रहे हैं, किंतु अभी तक कई राज्य सरकारों ने अधिसूचना तक जारी नहीं की है। वह भी तब जब केंद्र सरकार द्वारा आश्वासन दिया जा चुका है कि कानून के अनुपालन में किसी प्रकार धन की कमी नहीं आने दी जाएगी। शिक्षा अधिकार कानून 2009 के मुताबिक राज्य सरकारों को सुनिश्चित करना होगा कि गरीब वर्ग का कोई भी बच्चा किसी भी कारण से प्राथमिक शिक्षा से वंचित न हो। गुणवत्तायुक्त शिक्षा की उपलब्धता सुनिश्चित करना भी उनका काम है। सच तो यह है कि राज्य सरकारों की निष्कि्रयता की वजह से ही आज शिक्षा बदहाल स्थिति में है। पठन-पाठन की दुर्दशा चरम पर है। ढांचागत सुविधाओं का बेहद अभाव है। बच्चों के अनुपात के लिहाज से शिक्षकों की भारी कमी है। अगर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की बात करें तो यहां शिक्षकों के लाखों पद खाली हैं, लेकिन वित्तीय समस्याओं के कारण राज्य सरकारें शिक्षकों की भर्ती नहीं कर रही हैं। कक्षाओं की कमी के कारण विद्यालयों को दो-तीन पारियों में चलाना पड़ रहा है। पुराने विद्यालयों के भवन जर्जर हैं। कभी भी दुर्घटना के बड़े कारण बन सकते हैं। आज भी कई गांव ऐसे हैं, जहां दूर-दूर तक स्कूल नहीं हैं। विद्यालय और आवासीय क्षेत्रों में दूरी के कारण अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि राज्य सरकारें दूरस्थ क्षेत्रों में विद्यालय खोलें और उचित परिवहन साधनों का इंतजाम करें। यह कम विडंबना नहीं है कि जहां निजी विद्यालयों में वातानुकूलित कक्ष, सुसज्जित पुस्तकालय, व्यायामशाला, प्रयोगशाला, स्वच्छ पानी, शौचालय, खेल के मैदान आदि उपलब्ध हैं, वहीं सरकारी विद्यालयों के पास इन सुविधाओं का अभाव है। सरकार की मिड डे मील योजना से स्कूलों में छात्रों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन पढ़ाई-लिखाई का कार्य प्रभावित हो रहा है। ऐसी स्थिति में बदलाव लाने के लिए शिक्षा अधिकार कानून को ईमानदारी से लागू करना होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Monday, April 16, 2012

गरीबों का अक्षर अधिकार

शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए भले ही दो साल हो गए हों पर इसके क्रियान्वयन को लेकर अस्पष्टता कभी कम नहीं हुई। अब जबकि इस कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला आया है, सरकार के लिए अपनी कार्यनीति तय करने में बड़ी मदद मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय में इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने फैसला सुनाया है कि देश के सभी सरकारी और निजी स्कूलों में 25 फीसद गरीब बच्चों के दाखिले के प्रावधान में कहीं कोई विसंगति नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण के इस दायरे से सिर्फ सरकारी सहायता न पाने वाले अल्पसंख्यक संस्थानों को बाहर रखा है। अदालत ने फैसला सुनाते हुए यह भी साफ किया कि यह फैसला गुरुवार यानी 12 अप्रैल से ही लागू होगा। लिहाजा इससे कानून के पास हो जाने के बाद हुए दाखिले प्रभावित नहीं होंगे। जाहिर है, न्यायालय इस महत्वपूर्ण कानून को भविष्य में कारगर रूप में देखना चाहता है। इसलिए अपने फैसले में भी उसने इस नजरिए को व्यापक तरजीह दी और गत वर्ष तीन अगस्त को सुरक्षित रखे फैसले को अंतिम रूप से सुनाने में इतना समय लिया। यह अलग बात है कि यह फैसला सर्वसम्मति से आने के बजाय बहुमत से आया। तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ में शामिल मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडिया और न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार ने जहां आरक्षण की हिमायत की, वहीं तीसरे न्यायाधीश केएस राधाकृष्णन की राय में सरकारी सहायता न पाने वाले निजी और अल्पसंख्यक स्कूलों पर 25 फीसद आरक्षण की बाध्यता लागू नहीं होनी चाहिए। बहरहाल, अब जबकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने शिक्षा का अधिकार कानून को लेकर लंबे समय से चली आ रही कई तरह की गलतफहमियों को दूर कर दिया है, गेंद एक बार फिर से सरकार के पाले में है। 2010 में जब यह कानून लागू हुआ था, तभी से यह सवाल केंद्र और राज्य सरकारों के सामने है कि वे प्राथमिक स्तर के शैक्षणिक ढांचे को कैसे चुस्त-दुरुस्त करें! पिछले दो सालों में पुराने स्कूलों में सुधार, नए स्कूल खोलने से लेकर शिक्षकों की बहाली तक के मुद्दों पर या तो पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया या फिर कुछेक कदम उठे भी तो वे भारी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। ऐसे में उम्मीद बांधना कि रातों रात सब कुछ ठीक हो जाएगा, कुछ ज्यादा ही उत्साह से भर जाना है। हाल में देश में प्राथमिक शिक्षा की सालाना असररिपोर्ट में कई ऐसे तथ्य सामने आए हैं जिससे सरजीमीनी हकीकत समझने में मदद मिलती है। रिपोर्ट के मुताबिक कई तरह के प्रोत्साहन कार्यक्रमों और सरकारी दबाव में ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों में दाखिले का आंकड़ा तो 96.7 फीसद तक पहुंच गया पर उपस्थिति के मामले में यह बढ़त नजर नहीं आती। आलम यह है कि 2007 की स्थिति से तुलना करें तो 2011 में उपस्थिति का आंकड़ा 73.4 से खिसककर 70.9 पर आ गया। यही नहीं, इस चर्चित रिपोर्ट में स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की स्तरीयता पर भी कई गंभीर सवाल उठाए गए हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से यह जरूर होगा कि अब सरकारी के साथ निजी विद्यालय भी सर्वशिक्षा का लक्ष्य पाने में जुटेंगे। पर यह महज इतनी अनुकूलता से पूरा होने से रहा। सरकार को चाहिए कि वह अपने अधीन आने वाले शैक्षणिक संस्थाओं को ढांचागत रूप से संपन्न करने के साथ शिक्षा की स्तरीयता बहाल करने के लिए कड़ी निगरानी व्यवस्था भी विकसित करे।

निजी स्कूलों को पढ़ाने होंगे 25 फीसदी गरीब


सुप्रीमकोर्ट ने 6 से 14 साल के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा के मौलिक अधिकार पर अपनी मुहर लगा दी है। अब गरीब बच्चों का हाईफाई निजी स्कूलों में पढ़ाई का सपना पूरा होगा। देश भर में सरकारी व गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित होंगी। शीर्ष अदालत ने शिक्षा के कानून को संविधान सम्मत ठहराते हुए यह महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 2-1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए कहा, शिक्षा का कानून 2009 संविधान सम्मत है। मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडि़या व न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने शिक्षा के कानून अधिकार को चुनौती देने वाली निजी स्कूलों की याचिका पर फैसले में कहा कि यह कानून सरकारी व सरकार द्वारा नियंत्रित संस्थाओं के स्कूलों, गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों और सरकारी सहायता या अनुदान प्राप्त करने वाले अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू होगा। गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों पर यह लागू नहीं होगा। कोर्ट ने कहा, कानून की धारा 12(1)(सी) और 18(3) संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के तहत अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को मिले अधिकार का उल्लंघन करती है। हालांकि न्यायाधीश केएस राधाकृष्णन ने अलग से फैसला सुनाते हुए कहा है गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों पर भी 25 फीसदी गरीब बच्चों को मुफ्त में प्रवेश देने का कानून लागू नहीं होगा। न्यायमूर्ति राधाकृष्णन का फैसला अल्पमत का है, अत: यह प्रभावी नहीं होगा। दो न्यायाधीशों के बहुमत काफैसला ही प्रभावी होगा। यह फैसला आज से यानि 12 अप्रैल से लागू होगा। जो बच्चे पहले ही गैर सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूलों में प्रवेश ले चुके हैं, उनके प्रवेश के मामलों में कोई रुकावट नही आएगी। मालूम हो कि सरकार ने संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 21 ए जोड़ा था जो कि 6 वर्ष से 14 वर्ष के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का मौलिक अधिकार देता है। अधिकार को लागू करने के लिए सरकार मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा कानून 2009 लेकर आई। यह एक अप्रैल 2010 से लागू हो गया। इसमें कहा गया है कि प्रत्येक स्कूल को पड़ोस में रहने वाले बच्चों को अपने यहां प्रवेश देना होगा। और प्रत्येक स्कूल 25 फीसदी सीटें गरीब व वंचित वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित करेगा। इन्हें मुफ्त में शिक्षा दी जाएगी और उनसे किसी तरह की फीस नहीं ली जाएगी। निजी स्कूलों ने इस कानून को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी थी। सोसाइटी फार अनएडेड स्कूल आफ राजस्थान आदि की ओर से दाखिल याचिकाओं का निपटारा करते हुए सुप्रीमकोर्ट ने यह फैसला सुनाया है। निजी स्कूलों की दलील थी कि उन्हें संविधान में रोजगार का मौलिक अधिकार प्राप्त है और सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। यह भी दलील थी कि वे जब सरकार से कोई सहायता नहीं लेते तो फिर सरकार उन पर मुफ्त शिक्षा देने का दबाव कैसे डाल सकती है। सुप्रीमकोर्ट ने दलीलें खारिज करते हुए कहा कि यह सही है कि संविधान में सभी को मनपसंद रोजगार या व्यवसाय करने और उसके प्रबंधन का मौलिक अधिकार प्राप्त है, लेकिन सरकार कानून बना कर इस अधिकार पर कुछ नियंत्रण लगा सकती है। इसलिए शिक्षा का अधिकार कानून को असंवैधानिक नहीं ठहराया जा सकता। पीठ ने कहा है कि शिक्षा का अधिकार कानून बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने में आने वाली बाधाएं दूर करने के उद्देश्य से लाया गया है।

सर्व शिक्षा की तर्ज पर उच्चतर शिक्षा अभियान


शैक्षिक रूप से पिछड़े जिलों में बीते पांच वर्षो में 374 मॉडल डिग्री कालेज खोलने में नाकाम रही सरकार अब उच्च शिक्षा में बेहतरी के नए टोटके आजमाने की सोच रही है। उसका इरादा अब सर्वशिक्षा अभियान की तर्ज पर राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान शुरू करने का है। उसके तहत जिलों में नए डिग्री कालेज खोलने पर विचार चल रहा है। राज्य सरकारों को जमीन तो मुफ्त उपलब्ध करानी ही होगी, जबकि बाकी खर्च में तीन चौथाई बोझ केंद्र उठा सकता है। सूत्रों के मुताबिक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान नाम से प्रस्तावित नई योजना का मसौदा तैयार किया है। उसके तहत 11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-12) में शैक्षिक रूप से पिछड़े जिलों में 374 मॉडल डिग्री कालेज खोलने की शुरू की गई योजना को उसमें मिला दिया जाएगा। नए विश्वविद्यालयों को खोलने की पहल होगी। पहले से चल रहे विवि को उच्चीकृत किया जाएगा। नए डिग्री कालेज भी खुलेंगे। गौरतलब है कि पिछली योजना में 374 मॉडल डिग्री कालेज खोलने के लिए लागत का एक तिहाई खर्च केंद्र को, जबकि बाकी दो तिहाई राज्यों को उठाना था। आठ करोड़ की लागत से बनने वाले इन डिग्री कालेजों के लिए केंद्र 2.66 करोड़ रुपये ही दे रहा था। खर्च के बड़े बोझ के चलते राज्यों ने हाथ खींच लिए और पांच साल में लगभग 80 डिग्री कालेज ही खुल पाए। लिहाजा इस बार प्रस्तावित योजना में केंद्र व राज्यों के बीच खर्च का बंटवारा 75:25 करने पर विचार चल रहा है। जबकि विशेष दर्जा वाले राज्यों में यह बंटवारा 90:10 का हो सकता है। जबकि नए संस्थानों के लिए मुफ्त में जमीन उपलब्ध कराने का पूरा जिम्मा राज्य सरकारों पर होगा। सरकार ने उच्च शिक्षा में मौजूदा लगभग 17 प्रतिशत के सकल दाखिला दर को 2020 तक 30 प्रतिशत करने का लक्ष्य तय किया है। सरकार को उम्मीद है कि इस कदम से इस लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी। साथ ही उच्च शिक्षा में क्षेत्रीय असंतुलन दूर की जा सकेगी। हालांकि इस प्रस्तावित योजना पर अमल से पहले सरकार आगामी 13 अप्रैल को राज्यों के उच्च शिक्षा मंत्रियों से मशविरा करने जा रही है।

Monday, April 9, 2012

यूपी में फेल हुई रेलवे की जमीन पर स्कूल बनाने की मुहिम


सरकार कुछ भी कहे, लेकिन शिक्षा के मामले में सुनहरे सपने बेचने में उसका कोई सानी नहीं है। खासकर, बुनियादी शिक्षा के मामले में। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की बात छोडि़ए, रेल मंत्रालय तो उससे भी दो कदम आगे निकल गया है। वह भी उत्तर प्रदेश में, जहां से खुद संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी चुनकर आते हैं। प्रदेश में रेलवे की जमीन पर दर्जन भर से अधिक केंद्रीय विद्यालय खुलने थे। दो साल पुराने इस फैसले को भी अफसरों ने ठेंगा दिया। संप्रग-दो में ही जनवरी, 2010 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय और रेल मंत्रालय ने देश भर में रेलवे की जमीन पर 50 केंद्रीय विद्यालयों को खोलने के लिए एक सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए थे। इन विद्यालयों में से 13 अकेले उत्तर प्रदेश में खुलने थे, जिसमें सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली स्थित कोच फैक्ट्री भी शामिल है। सुलतानपुर, प्रतापगढ़, टूंडला (फिरोजाबाद) और झांसी भी इन चयनित स्थानों में शामिल है, जहां से कांग्रेस के ही सांसद हैं। इसके अलावा लखनऊ, आगरा, सीतापुर, मऊ, वाराणसी सूबेदारगंज (इलाहाबाद), मैलानी और फतेहगढ़ में भी केंद्रीय विद्यालय खुलने थे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के तहत केंद्रीय विद्यालय संगठन की तरफ से खुलने वाले इन 13 विद्यालयों में से 11 के लिए संबंधित मंडलों के रेल प्रबंधकों या फिर दूसरे जिम्मेदार अधिकारियों ने प्रस्ताव ही नहीं भेजा। अलबत्ता, मऊ व वाराणसी में खुलने वाले केंद्रीय विद्यालयों के लिए वाराणसी रेल मंडल से प्रस्ताव मिले हैं। उसमें भी मऊ के प्रस्ताव में खामियां हैं, जबकि वाराणसी के लिए मिला प्रस्ताव विचाराधीन है। बिहार में दानापुर रेल मंडल में झाझा और समस्तीपुर रेल मंडल में नरकटियागंज में भी केंद्रीय विद्यालय खुलने थे। यहां से प्रस्ताव तो मिला है, लेकिन उसमें कई कमियां हैं। मालूम हो कि एमओयू के मुताबिक जमीन रेलवे को मुहैया करानी थी, जबकि विद्यालय खोलने व संचालित करने का जिम्मा केंद्रीय विद्यालय संगठन का था। इतना ही नहीं, एमओयू के तहत रेलवे को कुल 50 केंद्रीय विद्यालयों के लिए जमीन उपलब्ध करानी थी। दो साल बाद भी वह मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सिर्फ 43 स्थानों को ही चिह्नित करने की जानकारी दे पाया है। उनमें भी जम्मू-कश्मीर में जम्मू तवी, महाराष्ट्र में बल्लारशाह, भुसावल, दौड़, राजस्थान में जोधपुर व बीजीकेटी डीजल शेड समेत बेंगलूर और चेन्नई क्षेत्र से आधा दर्जन से अधिक चिह्नित स्थानों पर केंद्रीय विद्यालय खोलने के लिए अब तक प्रस्ताव नहीं मिले हैं। इसलिए यह मामला अभी तक अटका हुआ है। दोनों संबंधित मंत्रालयों में छाई सुस्ती के कारण यह परियोजना अब दम तोड़ती नजर आ रही है। अब देखना यह है कि आने वाले दिनों में सरकार क्या कदम उठाती है।

Tuesday, April 3, 2012

अनिवार्य शिक्षा का हश्र

शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए दो साल हो गए। यहां से पलटकर देखने पर रास्ता भले बहुत लंबा न दिखे पर अब तक के अनुभव कई बातें जरूर साफ करते हैं। मनरेगा जैसा ही हश्र इस कानून का भी होता दिख रहा है। प्रथम संस्था द्वारा तैयार की गई प्राथमिक शिक्षा की सालाना स्थिति पर तैयार असररिपोर्ट कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों में नामांकन दर तो 96.7 फीसद तक पहुंच गई है पर उपस्थिति के मामले में यह बढ़त नहीं दिखती है। 2007 की स्थिति से तुलना करें तो स्कूलों में पढ़ने पहुंचने वाले बच्चों का फीसद 2011 में 73.4 से खिसक कर 70.9 पर आ गया है। यही नहीं, मुफ्त खाने का पल्रोभन परोसकर प्राथमिक शिक्षा का स्तर सुधारने का दावा करने वाली सरकारी समझ का नतीजा यह है कि न तो बच्चों को ढंग से भोजन मिल रहा है और न ही अच्छी शिक्षा। ग्रामीण इलाकों में हालत यह है कि तीसरी जमात में पढ़ने वाले हर दस में से बमुश्किल एक या दो बच्चे ही ऐसे हैं, जो अक्षर पहचान सकते हैं। 27 फीसद ऐसे हैं जो ढंग से गिनती नहीं जानते हैं। 60 फीसद को अंकों का तो कुछ ज्ञान जरूर है पर जोड़-घटाव में उनके हाथ तंग हैं। उत्तर भारत के कई राज्यों में खासतौर पर इस तरह की शिकायतें दर्ज की गई और बताया गया कि कागजी खानापूर्ति के दबाव में बच्चों को कक्षाएं फलांगने की छूट जरूर दे दी जा रही है पर तमाम ऐसे बच्चे हैं जो पांचवीं जमात में पहुंचकर भी कक्षा दो की किताबें ढंग से नहीं पढ़ पाते। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल लगातार शिक्षा के विस्तार और तरीके में सुधार के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। धरातल पर जो सचाई है, उसका भी पता मंत्री महोदय को है पर इस नाकामी के कारणों में जाने के बजाय वे आगे की योजनाओं की गिनती बढ़ाने में व्यस्त हैं। अब जब वह यह कहते हैं कि उनका सारा जोर रटंत तालीम की जगह रचनात्मक दक्षता उन्नयन पर है तो यह समझना मुश्किल है कि वे इस लक्ष्य को आखिर हासिल कैसे करेंगे? आंकड़े यह भी बताते हैं कि ग्रामीण और सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों का नेटवर्क ठप पड़ता जा रहा है। देश के 25 फीसद बच्चे आज प्राइवेट स्कूलों का रुख कर चुके हैं, आगे यह प्रवृत्ति और बढ़ेगी ही। केरल और मणिपुर में यह आंकड़ा साठ फीसद के ऊपर पहुंच चुका है। लिहाजा सरकारी स्तर पर यह योजनागत सफाई जरूरी है कि वह सर्व शिक्षा का लक्ष्य अपने भरोसे पूरा करना चाहते हैं या निजी स्कूलों के। क्योंकि यह एक और खतरनाक स्थिति गांव से लेकर बड़े शहरों तक पिछले कुछ सालों में बनी है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मानक ही प्राइवेट स्कूल हो गए हैं जबकि सचाई यह है कि यह सिर्फ प्रचारात्मक तथ्य है। अगर दसवीं और बारहवीं के सीबीएसई नतीजे को एक पैमाना मानें तो साफ दिखेगा कि सरकारी स्कूल ही अब भी तालीम के मामले में असरकारी हैं। लिहाजा, सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार के बगैर देश में शिक्षा का कोई बड़ा लक्ष्य हासिल कर पाना नामुमकिन है।

शिक्षा के अधिकार कानून पर जवाबदेही जरूरी : बाल आयोग


राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने सरकार के शिक्षा का हक अभियानकी सराहना करते हुए कहा है कि शिक्षा का अधिकार कानून पर स्कूलों से लेकर केंद्र के स्तर तक जवाबदेही तय होनी चाहिए। मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कानून-2009 को लेकर निगरानी की जिम्मेदारी बाल आयोग की है। इस जिम्मेदारी को मिले दो साल पूरा होने के मौके पर आयोग ने इस संदर्भ में किए गए अब तक के कायरें के साथ ही भविष्य की योजनाओं का खाका पेश किया। बाल आयोग की अध्यक्ष शांता सिन्हा ने एक बयान में कहा, ‘शिक्षा का अधिकार कानून को लेकर अब भी कई चुनौतियां हैं, जिन पर आगे काम किया जाएगा। इनमें शिकायत निवारण पण्राली स्थापित करने के साथ ही स्कूल से लेकर राज्य एवं केंद्र सरकार के स्तर तक जवाबदेही जरूरी है।उन्होंने कहा, ‘बाल श्रम विरोधी कानून एवं राष्ट्रीय बाल श्रम कार्यक्र म को शिक्षा के अधिकार कानून के अनुरूप बनाना भी जरूरी है। स्कूलों एवं शिक्षण संस्थानों में शारीरिक दंड देने पर भी पांबदी लगानी होगी। इस तरह के प्रावधान किए जाने चाहिए जिससे बेहसारा बच्चों और बाल श्रमिकों को शिक्षा के अधिकार के तहत सीधा फायदा मिल सके।
शांता सिन्हा ने कहा, ‘हम मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से शुरू किए गए शिक्षा का हक अभियान की सराहना करते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि यह ऐसा माहौल तैयार करेगा जिसमें शिक्षा को लेकर खड़ी हुई सभी चुनौतियों से निपटा जा सकेगा।’ ‘शिक्षा का हक अभियानकी शुरुआत लोगों, विशेषत: युवाओं के बीच शिक्षा को लेकर जागरूकता फैलाने के मकसद से की गई है। इस अभियान का एक लक्ष्य शिक्षा का अधिकार कानून को लेकर लोगों के बीच जागरूकता का प्रसार करना भी है। शिक्षा का अधिकार कानून 2010 में अमल में आया था। आयोग का कहना है कि अपनी सोशल ऑडिटकी प्रक्रि या के तहत उसने बीते दो वर्षों में 12 राज्यों के 439 वार्ड और 700 से अधिक स्कूलों को कवर किया। बाल आयोग ने कहा, ‘बीते दो वर्षों में शिक्षा के अधिकार को लेकर 11 राज्यों में जन सुनवाई हुई। इस दौरान लगभग 2,500 मामलों की सुनवाई की गई। मामलों के पंजीकरण और इसे आयोग के संज्ञान में लाने में 100 से अधिक गैर सरकारी संगठनों ने मदद की।आयोग ने कहा कि ग्राम पंचायतों और शहरी निकायों को भी शिक्षा के अधिकार कानून के क्रि यान्वयन की जिम्मेदारी से जोड़ना होगा, जिससे यह कानून व्यापक रूप से प्रभावी हो सकेगा।