Monday, December 10, 2012

बच्चों को चाहिए सुयोग्य अभिभावक





परत दर परत राजकिशोर
एक दिलचस्प कार्टून की याद आती है। दो या तीन साल का एक बच्चा पीठ के बल पर लेटा हुआ एक किताब पढ़ रहा है। किताब का नाम है- बच्चों का पालन-पोषण कैसे करें। एक व्यक्ति बच्चे से पूछता है मुन्ना, तुम यह किताब क्यों पढ़ रहे हो? बच्चा जवाब देता है- ताकि मैं समझ सकूं कि मेरा पालन-पोषण ठीक से हो रहा है या नहीं। काश, सभी बच्चे ईर के यहां से यह बुद्धि और विवेक लेकर आते। लेकिन तब वे बच्चे ही क्यों कहलाते? शारीरिक और मानसिक विकास में एक खास उम्र तक समानुपातिक संबंध रहता है। उसके बाद शरीर का विकास रु क जाता है और मन का विकास होता जाता है- अगर इसे रोका न जाए। बच्चे का शारीरिक और मानसिक, दोनों तरह का विकास सीमित रहता है। वह जीवन की एकदम प्रारंभिक सीढ़ी पर अवस्थित होता है। वह नहीं समझता कि वह कौन है, उसके कुछ अधिकार भी हैं या नहीं, उसका पालन-पोषण जिस तरह हो रहा है वह ठीक है या नहीं। कह सकते हैं कि वह दुनिया का सबसे असहाय प्राणी होता है। वह अपने साथ होने वाले अन्याय को न ठीक से समझ सकता है, न उसका प्रतिकार कर सकता है। यह बात मैं बचपन से ही महसूस करता आ रहा हूं कि ज्यादातर मां-बाप, मां-बाप होने के योग्य ही नहीं हैं। वे खुद अपने जीवन को अच्छे ढंग से संचालित नहीं करते, तो अपने बच्चों का खयाल क्या खाक रखेंगे? मुझे खुद अपने माता-पिता से बहुत-सी शिकायतें थीं। ऐसा नहीं है कि मैं उनसे असंभव मांगें नहीं करता था। जाहिर है, इन मांगों को खारिज होना ही था। इससे मुझे चोट लगती थी। लेकिन ये मांगें क्यों असंभव हैं, यह बात मुझे ठीक से समझा दी गई होती, तो मुझे चोट लगने के बजाय समाज के ढांचे को समझने में मदद मिलती। यह काम बाद में मेरे गुरु बेचन शुक्ल ने किया। मेरे मां-बाप ने मुझे शारीरिक रूप से जन्म दिया, पर बेचन शुक्ल ने मेरा बौद्धिक जन्म संभव किया। इसके लिए मैं आजीवन उनका ऋणी रहूंगा। मैं अपने ऊपर गर्व नहीं करता, न इसकी कोई वजह है; लेकिन यह जरूर पूछना चाहता हूं कि बेचन शुक्ल जैसे व्यक्ति कितने लड़के- लड़कियों को मिल पाते हैं? शायद बेचन शुक्ल जैसे व्यक्तियों की उतनी जरूरत ही न पड़े, अगर माता-पिता योग्य हों और अपनी जिम्मेदारी का सम्यक निर्वाह करें। ठीक ही कहा गया है- परिवार मनुष्य की पहली पाठशाला है। इस पाठशाला में बच्चा जो कुछ सीखता है, उसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। इसलिए समाज द्वारा स्थापित स्कूल अच्छे हों अथवा नहीं, परिवार की पाठशाला को तो अच्छा होना ही पड़ेगा। इल सिलसिले में खलील जिब्रान की यह पंक्ति बेसाख्ता याद आती है कि बच्चे को तुम अपनी संपत्ति न समझो, तुम तो सिर्फ वह माध्यम हो जिसके द्वारा बच्चा इस संसार में आता है। वास्तव में किसी भी बच्चे का पैदा होना एक प्राकृतिक नियम के तहत संभव होता है। ज्यादातर स्त्री-पुरु षों की चाह यही होती है कि वे अपना जैविक उत्तराधिकारी छोड़ जाएं। स्वाभाविक है कि जैविक के साथ सांस्कृतिक भी जुड़ जाए। इसलिए अधिकतर मां-बाप अपने बच्चों के मानसिक और सांस्कृतिक विकास पर अपनी छाप छोड़ने की इच्छा रखते हैं और इसके लिए भरपूर प्रयास करते हैं। यह और बात है कि बच्चे सिर्फ अपने परिवार से नहीं सीखते, बल्कि समाज से भी सीखते हैं। मां-बाप के मोह का सबसे अच्छा उदाहरण है, धर्म। भगवान किसी को हिंदू या मुसलमान बनाकर नहीं भेजता, लेकिन पैदा होते ही मां-बाप बच्चे को एक धर्म पकड़ा देते हैं। हिंदू का बच्चा होगा, तो हिंदू होगा; मुसलमान का बच्चा होगा तो मुसलमान होगा। यह बच्चे को अपनी संपत्ति मानकर चलना है। आप बच्चे को यह आजादी क्यों नहीं दे सकते कि वह बड़ा होकर सभी धर्मो का अध्ययन करे और उसे जो धर्म सबसे अच्छा लगता हो, उसे चुने? अथवा, कोई भी धर्म उसे ठीक न लगे, तो वह कोई भी धर्म स्वीकार न करे। यही सब बातें यह सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि बच्चे का पालन-पोषण सिर्फ परिवार की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए, इस बारे में समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। आजकल राज्य ही समाज का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए राज्य को ही यह जिम्मा उठाना होगा कि किसी भी बच्चे का पालन-पोषण गलत ढंग से न हो। यह जरूर विवाद का विषय हो सकता है कि राज्य का हस्तक्षेप कितना हो और किस रूप में हो। प्रत्येक राज्य में तानाशाही का कुछ न कुछ तत्व अवश्य रहता है। इसलिए हमें इसका भी ध्यान रखना होगा कि परिवार की तानाशाही न चले, तो राज्य की तानाशाही भी न चले। नॉर्वे सरकार ने बच्चों के पालन-पोषण के कुछ नियम बना रखे हैं, जो बताते हैं कि मां-बाप को अपने बच्चों से किस तरह पेश आना चाहिए। जो दंपति इन नियमों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें पहले चेतावनी दी जाती है; फिर भी वे नहीं मानते तो बच्चा उनसे छीन लिया जाता है और प्रोफेशनल पालन गृहों में भेज दिया जाता है। मां-बाप को जेल भी भेजा जा सकता है। भारतीय मूल के दो दंपतियों को इस कड़े कानून का स्वाद चखना पड़ा, तो हमारे देश में प्रतिवाद की लहर-सी फूट पड़ी और पश्चिम के साम्राज्यवाद की निंदा की जाने लगी। यह विरोध अभी भी जारी है। मैं विरोध की इस लहर के साथ नहीं हूं। मैं नॉर्वे सरकार की प्रशंसा करता हूं जिसने इस तरह का कानून बनाने की हिम्मत की है जो बच्चों के मानवाधिकारों की रक्षा करता है। हां, यह जांच करने की जरूरत है कि कहीं नॉर्वे की सरकार अन्य देशों, खासकर गैर-यूरोपीय देशों की संस्कृति पर हमला तो नहीं कर रही है? नॉर्वे को इसका कोई हक नहीं है कि वह विदेशियों पर अपनी संस्कृति थोप दे। यह सांस्कृतिक तानाशाही है। अगर यूरोप मानव स्वतंत्रता का पक्षधर है, तो उसे इन अतियों से बाज आना होगा।
मैं बचपन से ही महसूस करता आ रहा हूं कि ज्यादातर मां-बाप, मां-बाप होने के योग्य ही नहीं हैं। वे खुद अपने जीवन को अच्छे ढंग से संचालित नहीं करते, तो अपने बच्चों का खयाल क्या खाक रखेंगे? परिवार मनुष्य की पहली पाठशाला है। इस पाठशाला में बच्चा जो कुछ सीखता है, उसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। इसलिए समाज द्वारा स्थापित स्कूल अच्छे हों अथवा नहीं, परिवार की पाठशाला को तो अच्छा होना ही पड़ेगा
Rashtirya Sahara National Edition 9-12-2012 Page 10(f’k{kk)

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