Wednesday, June 1, 2011

कितने काम की कोचिंग


उच्च वर्ग हो या निम्नवर्गीय परिवार, सभी अपने बच्चों को कोचिंग दिलाने की कोशिश करते हैं। पहले दसवीं-बारहवीं में अच्छे अंकों से पास होने के लिए और फिर इंजीनियरिंग, मेडिकल, यूपीएससी जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में कामयाबी के लिए। यही वजह है कि बड़े शहरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों और कस्बों तक में ट्यूशन और कोचिंग केंद्रों की भरमार हो गई है। आंकड़ों की बात करें तो आज सिर्फ आइआइटी कोचिंग का कारोबार ही दस हजार करोड़ रुपये से अधिक का हो गया है। बताते हैं कि सिर्फ बिहार की राजधानी पटना में ही यह एक हजार करोड़ रुपये का कारोबार हो चुका है। कुछ दशक पहले तक जब कोचिंग का इतना विस्तार नहीं था, उस समय पढ़ाई के दौरान कोई कठिनाई होने पर छात्र अपने वरिष्ठ साथियों या अध्यापकों से मशविरा कर उसे सुलझा लेते थे। इससे उन्हें न केवल अपनी पढ़ाई को सुचारु रूप से जारी रखने में मदद मिलती थी, बल्कि वे बेहतर प्रदर्शन करने में भी कामयाब होते थे, लेकिन अब ऐसी परंपरा लगभग खत्म होती जा रही है। हालांकि कुछ बड़े स्कूलों ने कमजोर छात्रों को अलग से पढ़ाने का प्रावधान कर रखा है, ताकि वे अन्य छात्रों के समकक्ष आ सकें। अधिकांश स्कूल ऐसा अपने परिणाम को बेहतर करने की कोशिश के चलते भी करते हैं, लेकिन ज्यादातर स्कूलों में अध्यापकों की कोशिश यही होती है कि स्टूडेंट्स उनसे व्यक्तिगत रूप से ट्यूशन लें। आजादी के बाद जब भारत में प्रथम श्रेणी की सरकारी नौकरियों के लिए प्रतियोगिता परीक्षाएं आरंभ हुई तो इसमें प्रतिभाशाली छात्र शामिल होते थे। अस्सी के दशक में इन परीक्षाओं के स्वरूप में बदलाव आया और उसी तर्ज पर राज्य लोक सेवा आयोगों द्वारा भी परीक्षाएं ली जाने लगीं। इसी दौरान परीक्षाओं की समुचित तैयारी कराने के लिए कोचिंग संस्थान सामने आए। नब्बे के दशक की शुरुआत से कोचिंग संस्थानों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी और कुछ ही सालों में हर छोटे-बड़े शहर में कोचिंग संस्थानों की बाढ़-सी आ गई। कोटा, दिल्ली, कानपुर, इलाहाबाद, पटना जैसे शहरों ने तो इस मामले में खास पहचान बना ली। राजस्थान का कोटा शहर तो आज इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए पूरे देश में कहीं अधिक जाना जाता है, जहां कोचिंग ने एक उद्योग का रूप धारण कर लिया है। वैसे तो ट्यूशन और कोचिंग प्राथमिक कक्षाओं से ही आरंभ हो जाती है, लेकिन अगर संगठित कोचिंग की बात करें तो हमारे देश खासकर उत्तर भारत में दो तरह की कोचिंग कहीं ज्यादा लोकप्रिय है- एक दसवीं-बारहवीं तक की इंजीनियरिंग-मेडिकल व इसके समकक्ष प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी पर आधारित कोचिंग और दूसरी बारहवीं-स्नातक के बाद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी पर आधारित। आमतौर पर आइएएस-पीसीएस जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की कोचिंग देने वाले लोग इस क्षेत्र के हताश-निराश लोग ही होते हैं, जो उम्र-सीमा खत्म हो जाने के बाद इसे पेशा बना लेते हैं। ऐसे लोग प्राय: किसी विषय के चुने हुए टॉपिक्स को कई साल तक रटते हैं और यही ज्ञान बांटते हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं का पाठ्यक्रम निश्चित होता है, इसलिए ऐसी कोचिंग का लाभ भी विद्यार्थियों को मिल जाता है। स्कूलों में शिक्षकों द्वारा ट्यूशन या कोचिंग के लिए छात्रों पर दबाव बनाने के पीछे मुख्यत: उनकी पैसे की भूख ही मानी जा सकती है। स्कूल में छात्रों को सही तरीके से पढ़ाने का अपना कर्तव्य पूरा करने की बजाय अलग से पैसा देकर ट्यूशन या कोचिंग के लिए बाध्य करना नैतिक दृष्टि से कतई उचित नहीं माना जा सकता। जिन स्कूलों के शिक्षकों को संतोषजनक वेतन नहीं मिलता, उनके द्वारा ट्यूशन पढ़ाने की मजबूरी को तो समझा जा सकता है, लेकिन पर्याप्त वेतन पाने वाले सरकारी और पब्लिक स्कूलों के अध्यापकों द्वारा ऐसा कृत्य किसी भी तरीके से उचित नहीं ठहराया जा सकता। कई बार तो ऐसा भी देखने में आता है कि कर्तव्य और नैतिकता को ताक पर रखकर अध्यापक खुद से ट्यूशन न पढ़ने वाले छात्रों को प्रताडि़त ही नहीं करते, बल्कि पूरी कक्षा के सामने उनकी किसी न किसी रूप में खिल्ली भी उड़ाते हैं। ऐसे अध्यापकों के कारण ही कोचिंग अब व्यवसाय बन गया है। उनके कर्तव्य पर महत्वाकांक्षा हावी हो गई है। हालांकि देश की विशाल आबादी को देखते हुए औरों के मुकाबले आगे निकलने के लिए ही अभिभावक अपने बच्चों को ट्यूशन या कोचिंग दिलाते हैं। भारत की तुलना में अमेरिका जैसे विकसित देशों में छात्र-अध्यापक का अनुपात काफी बेहतर है। साथ ही पढ़ाई की गुणवत्ता बेहतर होने के कारण वहां इस तरह हर किसी को कोचिंग की जरूरत नहीं होती। वहां वही सफल हो पाता है, जो ज्यादा से ज्यादा सही उत्तर देता है। आज करियर के तमाम विकल्प उपलब्ध होने के बावजूद खासकर उत्तर भारत में आज भी इंजीनियरिंग और मेडिकल जैसे सेक्टर में कैरियर बनाने का जबर्दस्त क्रेज है। ऐसे में कुछ हजार सीटों की तुलना में हर साल लाखों छात्र-छात्राओं के शामिल होने से संबंधित प्रवेश परीक्षाओं में प्रतिस्पर्धा बेहद कठिन हो जाती है। चूंकि इन परीक्षाओं में बेहद कठिन प्रश्न भी होते हैं, इसलिए सफलता के लिए उन्हें अतिरिक्त ज्ञान की जरूरत होती है। स्तरीय कोचिंग संस्थान छात्रों को यही अतिरिक्त ज्ञान देने में मददगार साबित होते हैं, लेकिन लाभप्रद होने के कारण आज इसे एक अच्छा कारोबार माना जाने लगा है। यही कारण है कि सिर्फ बड़े ही नहीं, छोटे शहरों में भी कोचिंग संस्थानों की बाढ़ आ गई है। यह सही है कि कोचिंग से छात्रों को मदद मिलती है। आज भी कई ऐसे कोचिंग संस्थान हैं, जो व्यावसायिकता के बावजूद अपनी छवि के अनुरूप ईमानदारी से मार्गदर्शन करते हैं, लेकिन ऐसे संस्थानों की भी कमी नहीं है, जो शुरुआत में सुस्ती बरतते हैं और बाद में कई-कई घंटे पढ़ाकर कोर्स पूरा करने की खानापूरी करते हैं। अक्सर ऐसी स्थिति में छात्रों को प्रश्न पूछने और अपनी जिज्ञासा शांत करने का मौका नहीं मिल पाता। ऐसा प्राय: उन कोचिंग संस्थानों के अध्यापक करते हैं, जो छात्रों को पूरी तरह संतुष्ट नहीं कर पाते और प्रश्न के जवाब में यह कहकर टाल देते हैं कि यह कोर्स से बाहर का है और परीक्षा में नहीं पूछा जाएगा। गुरु का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि वह छात्र को न केवल सही मार्ग दिखाए, बल्कि उसके रास्ते में आने वाले रोड़े भी हटाए। यह विडंबना ही है कि अधिकांश कोचिंग में रटा-रटाया पैटर्न बना लिया जाता है और उसी पर छात्रों को भी चलाया जाता है। इससे छात्रों की प्रतिभा का विकास नहीं हो पाता। गुरु उन्हें मानसिक रूप से मजबूत नहीं बना पाते। स्कूल के अध्यापक हों या कोचिंग के, उन्हें अपने कर्तव्य के प्रति पूरी ईमानदारी निभानी चाहिए। समाज से मिल रहे आदर और सम्मान को देखते हुए उन्हें इसके लिए अपना सर्वस्व समर्पण कर देना चाहिए। वैसे स्वाध्याय पढ़ाई का सबसे अच्छा तरीका है। अगर बच्चों को पढ़ाई के लिए हर तरह की सुविधाएं दे दी जाएं तो फिर उन्हें किसी कोचिंग की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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