Wednesday, June 29, 2011

देश के भविष्य से खिलवाड़


लेखक दाखिले के लिए शत-प्रतिशत अंकों की अनिवार्यता को शिक्षा क्षेत्र की बड़ी विसंगति के रूप में देख रहे हैं...
दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स ने इस वर्ष अपने यहां दाखिले की कट ऑफ सूची सौ फीसदी घोषित कर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। वैसे तो पिछले सात-आठ वर्षो से देश के विख्यात कॉलेजों की कट ऑफ सूची नब्बे प्रतिशत के आसपास चल रही है, लेकिन सौ फीसदी की अनिवार्यता घोषित कर इस कालेज ने शिक्षा क्षेत्र की विसंगतियां और उनके प्रति सरकार की उदासीनता उजागर कर दी। इसमें संदेह नहीं कि देश के प्रतिष्ठित कॉलेजों में मेधावी विद्यार्थी ही पहुंच पाते हैं और यदि कोई कॉलेज अपनी कट ऑफ सूची सौ फीसदी रखता है तो वह यही संदेश दे रहा होता है कि वही विद्यार्थी दाखिले के लिए आएं जो मेधावी हों, लेकिन क्या उन छात्रों को मेधावी नहीं माना जाएगा जो 70-80 प्रतिशत नंबर ला रहे हैं? आखिर यह एक तथ्य है कि आज से एक-डेढ़ दशक पहले 70-80 प्रतिशत नंबर लाने वाले विद्यार्थी न केवल मेधावी कहलाते थे, बल्कि विख्यात कॉलेजों में आसानी से दाखिला भी पाते थे। आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ है कि अब सीबीएसई या माध्यमिक शिक्षा के अन्य बोर्डो के विद्यार्थी बड़ी संख्या में 90 प्रतिशत या इससे अधिक नंबर ला रहे हैं? अब स्थिति यह है कि 95 प्रतिशत के नीचे नंबर पाने वाले विद्यार्थियों के अभिभावक परेशान हो उठते हैं, क्योंकि वे यह जानते हैं कि उनके बच्चों को विख्यात कॉलेजों में दाखिला लेने में मुश्किल आ सकती है। आखिर ऐसी स्थिति क्यों आई? क्या ऐसा कुछ है कि बच्चे अचानक अत्यधिक मेधावी हो गए हैं? कहीं ऐसी स्थिति इसलिए तो नहीं बनी कि सीबीएसई ने अपनी परीक्षा प्रणाली बदल दी है? इसमें एक हद तक सच्चाई दिखती है, क्योंकि परीक्षा के बदले पैटर्न के बाद से ही छात्रों में 90 प्रतिशत से अधिक अंक लाने की होड़ शुरू हो गई है। तमाम छात्र कोचिंग के जरिये शत-प्रतिशत अंक लाने की कोशिश करते हैं। ऐसे कोचिंग इंस्टीट्यूट की भी कमी नहीं जो विद्यार्थियों को शत-प्रतिशत नंबर लाने की कला में पारंगत बनाते हैं। सीबीएसई बोर्ड इसके लिए प्रयत्नशील दिखता है कि ज्यादा संख्या में छात्र अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हों। क्या राजनीतिक स्तर पर बोर्ड को इसके लिए प्रेरित किया गया है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि अब प्रश्न पत्र भी सरल बनने लगे हैं और परीक्षकों को भी अंक देने में उदारता बरतने की सलाह दी जाने लगी है। शायद यही कारण है कि जहां 2007 में सीबीएसई बोर्ड की 12वीं की परीक्षा में 90 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले छात्रों की संख्या करीब आठ हजार थी वहीं इस वर्ष ऐसे छात्रों की संख्या 20 हजार से ज्यादा है। आज के विद्यार्थियों की पढ़ाई-लिखाई का सारा जोर ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने पर रहता है। इस तरीके की शिक्षा प्रणाली से विद्यार्थियों में संपूर्ण बौद्धिक विकास की संभावना क्षीण होती जा रही है, क्योंकि वे सवालों के जवाब रटने तक केंद्रित रहते हैं। समस्या यह भी है कि परीक्षाओं में घूम-फिर कर वही सवाल पूछे जा रहे हैं जो दो-चार वर्ष पहले आ चुके होते हैं। इन सवालों को हल करते समय बौद्धिक कौशल की परख मुश्किल से हो पाती है। बावजूद इसके कोई भी इस पर विचार करने वाला नहीं कि केवल ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने की होड़ में जुटे विद्यार्थियों का भविष्य सुरक्षित कैसे कहा जा सकता है? क्या यह कहा जा सकता है कि ज्यादा अंक लाने की होड़ में फंसे छात्र जीवन की दौड़ में सफलता के चरम पर पहुंच सकते हैं? क्या वे अपने जीवन की जटिल समस्याओं का समाधान करने में सक्षम होंगे? इस समय शिक्षा का जैसा तंत्र चल रहा है उसमें छात्रों के बौद्धिक कौशल को निखारने और व्यक्तित्व का विकास करने पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। जब तक छात्रों के बौद्धिक कौशल को विकसित करने वाली शिक्षा एवं परीक्षा प्रणाली नहीं बनाई जाती तब तक ऐसी भावी पीढ़ी का निर्माण संभव नहीं जो देश के भविष्य को सुरक्षित रख सके। विडंबना यह है कि आज छात्रों, शिक्षकों और साथ ही स्कूलों का सारा जोर ज्यादा नंबर लाने पर केंद्रित है, क्योंकि इससे ही प्रतिष्ठा का निर्धारण होने लगा है। प्रतिष्ठित कॉलेजों की ऊंची होती कट ऑफ लिस्ट यह बताती है कि ऐसे कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय नाममात्र के हैं जहां दाखिले के लिए मारामारी मचती है। ऐसे शिक्षा संस्थान चंद बड़े शहरों तक ही सीमित हैं और उनमें सीटें भी करीब-करीब यथावत हैं। छोटे और मझोले स्तर के शहरों में ऐसे कॉलेज इक्का-दुक्का हैं जो मेधावी विद्यार्थियों को आकर्षित करते हों। चंद प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों या उनके तहत आने वाले कॉलेजों के शिक्षा स्तर के सामने सामान्य कॉलेजों का शिक्षा स्तर इतना गया बीता है कि अब यह अंतर एक खाई के रूप में नजर आता है। देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों और साथ ही उनके कॉलेजों में पढ़ाई पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया जाता। न तो छात्र पढ़ने पर ध्यान देते हैं और न ही शिक्षक पढ़ाने पर। यहां कभी छात्र हड़ताल के मूड में होते हैं तो कभी शिक्षक। रही-सही कसर स्तरहीन पाठ्यक्रम ने पूरी कर दी है। परिणाम यह है कि इन विश्वविद्यालयों से डिग्री धारकों की ऐसी फौज निकल रही है जो देश के लिए उपयोगी नहीं सिद्ध हो रही। चूंकि हमारे देश में गुणवत्ता प्रधान शिक्षा देने वाले कॉलेजों-विश्वविद्यालयों की संख्या बहुत कम है इसलिए उनकी कट ऑफ सूची लगातार ऊंची होना लाजिमी है। इसके चलते 60-70 अथवा 70-80 प्रतिशत अंक पाने वाले छात्रों का मनोबल टूट रहा है। बहुत संभव है कि 90 और 80 प्रतिशत अंक वाले छात्रों का बौद्धिक स्तर एक जैसा हो, लेकिन आज 80 प्रतिशत नंबर वाले छात्रों के लिए किसी प्रतिष्ठित कॉलेज में कोई स्थान नहीं। इन हालात में सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि प्रतिष्ठित कॉलेज अपने यहां दाखिले के लिए अलग से परीक्षा लें, जैसा कि मेडिकल और इंजीनियरिंग शिक्षा संस्थान करते हैं। इससे कम नंबर पाने वाले विद्यार्थियों को भी 90 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले सीबीएसई बोर्ड के छात्रों के साथ प्रतिष्ठित कॉलेजों में दाखिले का अवसर मिल सकेगा, लेकिन इतने भर से बात बनने वाली नहीं है। आज आवश्यकता इसकी भी है कि गुणवत्ता प्रधान शिक्षा वाले कालेजों जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज ऑफ कामर्स, सेंट स्टीफेंस आदि को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया जाए। इन्हें अन्य कॉलेजों के शिक्षा स्तर को सुधारने की जिम्मेदारी भी सौंपी जानी चाहिए। देश की शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए इस तरह के बहुत से सुझाव सामने आ चुके हैं, लेकिन किन्हीं कारणों से फिलहाल मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल शिक्षा सुधार के अपने एजेंडे पर आगे बढ़ते नहीं दिख रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र के प्रति यह उदासीनता भारत के विकास में एक बड़ी बाधा है। हमारे नीति-नियंताओं को यह आभास होना चाहिए कि वे शिक्षा क्षेत्र में आवश्यक हो चुके सुधारों की अनदेखी कर देश के भविष्य से खिलवाड़ कर रहे हैं।

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