Wednesday, June 29, 2011

शत-प्रतिशत अंकों का खौफ


कार्तिकेय दिल्ली के एक नामी-गिरामी स्कूल में ग्यारहवीं में पढ़ते हैं। मैंने 15 जून, 2011 को उनके चेहरे पर तनाव तथा निराशा के भाव देखे। पूछने पर पता चला कि जबसे उन्होंने दिल्ली के एक कॉलेज में प्रवेश के लिए कट-ऑफ लिस्ट देखी है तभी से चिंतित हैं। दिल्ली के श्रीराम कॉलेज आफ कॉमर्स (एसआरसी) ने विज्ञान के विद्यार्थियों के प्रवेश की अर्हता कक्षा 12 में चार विषयों में शत-प्रतिशत अंकों की रखी है। इस संवेदनहीन घोषणा ने सारे देश में विद्यार्थियों तथा उनके माता-पिता के होश उड़ा दिए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने अवश्य इस प्रकार के निर्णय की अव्यावहारिकता तथा अस्वीकार्यता को पहचाना और उससे अपनी असहमति व्यक्त की। ग्रेडिंग लागू कर बच्चों को तनाव से मुक्त करने का जो प्रयास किया जा रहा है एसआरसी के इस निर्णय ने उस पर पानी फेर दिया है। मेरा विश्वास है कि इस प्रकार के निर्णय संस्था के सभी अध्यापकों को एक साथ मिल बैठकर करने चाहिए। उसके सभी संभावित पक्षों पर खुली चर्चा होनी चाहिए। कुछ कॉलेज अपनी श्रेष्ठता के लिए जाने जाते हैं। कुछ शायद अपने को इसीलिए श्रेष्ठ मान लेते हैं क्योंकि वहां प्रवेश पाने वालों का प्रतिशत प्रति वर्ष ऊंचा उठता जाता है। आजकल मीडिया, विशेषकर कुछ पाक्षिक तथा साप्ताहिक प्रकाशन कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों की श्रेष्ठता सूचियां बनाने लगे हैं। युवाओं पर इनका प्रभाव पड़ता है। यह अलग तथ्य है कि इन श्रेष्ठता सूचियों के पीछे कुछ और कारण भी होते हैं। जो विद्यार्थी स्नातक स्तर पर कॉमर्स पढ़ना चाहते हैं परंतु बारहवीं तक अन्य विषय पढ़कर आए हैं वे इस शत-प्रतिशत अर्हता के शिकार हुए हैं। इन दोनों वगरें के विद्यार्थी जब साथ-साथ पढ़ते हैं तब उनकी शैक्षिक उपलब्धियों में क्या कोई अंतर आता है? कोई भी श्रेष्ठ संस्थान अपने शोध तथा अध्ययन से इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर खोज सकता है और तदनुसार अगले वर्षो में प्रवेश के नियामक तय कर सकता है। यह भी ध्यान रखना होगा कि प्रवेश प्रणाली ऐसी न बन जाए कि विज्ञान के विद्यार्थी प्रवेश पा ही न सकें? दिल्ली में जब इस प्रकार के प्रश्न उठते हैं तब सीबीएसई को आधारबिंदु मान लिया जाता है। अकसर भुला दिया जाता है कि देश में चालीस से अधिक स्कूल बोर्ड हैं। सबके अंक निर्धारण अलग-अलग स्तर पर होते हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के लगभग सीधे नियंत्रण में कार्यरत सीबीएसई लगातार अधिक से अधिक अंक प्रदान करने के लिए कुछ वषरें से विशेष रूप से प्रयत्नशील रहा है। आज से 15-20 वर्ष पहले अस्सी प्रतिशत अंक पाने वाला विद्यार्थी श्रेष्ठता की सर्वोच्च श्रेणी में माना जाता था। आज यह सम्मान 95-96 प्रतिशत पाने पर भी नहीं मिलता है। संभव है कि दिल्ली के एक कॉलेज ने अनजाने ही ऐसे अनेक पक्षों पर गहन चर्चा तथा गंभीर निर्णय लेने की आवश्यकता को उजागर कर दिया हो। सबसे पहले यह प्रश्न उठता है कि क्या केवल अधिक अंक ही प्रतिभा की श्रेष्ठता के द्योतक हैं या कुछ और पहलु भी व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास के लिए आवश्यक हैं? क्या निर्णय लेने की क्षमता, सर्जनात्मकता, कलाओं में अभिरुचि, खेलों में भागीदारी जैसे अन्य पक्ष शिक्षा के आवश्यक अंग नहीं हैं? अंकों का आधार प्रवेश प्रक्रिया को सरल बना देता है मगर उच्च शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करता। हर श्रेष्ठ कॉलेज का कर्तव्य है कि वह 4-5 अन्य कॉलेजों से कार्यकारी संबंध स्थापित करे, उनकी श्रेष्ठता में वृद्धि करने का बीड़ा उठाए तथा गुणवत्ता को बढ़ावा दे। यदि दो देशों के बीच की दो संस्थाओं में इंस्टीट्यूशनल नेटवर्किंग हो सकती है तो दिल्ली विश्वविद्यालय के 4-5 कॉलेजों के बीच क्यों नहीं हो सकती? विश्वविद्यालय को विभिन्न विकल्पों पर विचार करना होगा ताकि एक ही कॉलेज पर अनावश्यक दबाव न पड़े तथा केवल अंक ही मानक बनकर न रह जाएं। यदि अंकों पर जोर बढ़ता गया तो हमें न तो नए तेंदुलकर मिलेंगे और न धौनी। अंकों के आधार पर तो महात्मा गांधी और आइंस्टीन कभी आगे की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। साइना नेहवाल तथा सानिया मिर्जा जैसी प्रतिभा वाली कितनी ही बालिकाओं की प्रतिभा कोचिंग तथा ट्यूशन केंद्रों पर मिट्टी में मिल जाती। आज देश के पास अपना छह दशकों का शैक्षिक अनुभव है। राष्ट्रीय स्तर पर अनेक संस्थाएं शोध तथा अध्ययन के कार्य कर रही हैं। केंद्र सरकार अपने विशेषज्ञों को ट्रेनिंग के लिए अमेरिका तथा यूरोप भेजती रहती हैं। कक्षा दस में लागू की गई ग्रेडिंग प्रणाली से बच्चों को कुछ तनाव मुक्ति तथा राहत मिली है। यदि कक्षा बारह तथा प्रतिस्पर्धा परीक्षाओं में नवाचार नहीं किए गए तो तनाव से बचाने के सारे प्रयास व्यर्थ हो जाएंगे। विश्वविद्यालयों तथा स्कूल बोर्ड के बीच लगातार जीवंत संवाद बनाए रखने की कोई कारगर व्यवस्था बनानी होगी, तभी इस प्रकार की समस्याओं का समाधान संभव होगा। इसके साथ-साथ सरकार को भी नए कॉलेज खोलने होंगे। (लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)


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