Monday, February 21, 2011

महिला शिक्षकों की मौजूदगी के मायने


मानव संसाधन विकास मंत्रालय की एजेंसी न्यूपा के ताजा सर्वेक्षण के अनुसार प्राथमिक विद्यालयों में महिला शिक्षकों की संख्या बढ़ रही है। देश में पहली से 8वीं कक्षा तक के लगभग 58 लाख शिक्षक हंै, जिनमें 45 फीसदी महिलाएं हंै। कुल जनसंख्या में भी महिलाओं की हिस्सेदारी 48 प्रतिशत है। सर्वेक्षण के मुताबिक 12 राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों में महिला शिक्षकों का प्रतिशत आधे से अधिक है। सबसे अधिक 83 फीसदी चंडीगढ़ में, 78 फीसदी गोवा में, 77 फीसदी तमिलनाडु में, 74 फीसदी दिल्ली में, 65 फीसदी पंजाब में, 55 फीसदी कर्नाटक में। उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड में महिला शिक्षकों का प्रतिशत 50 से कम है। इस सर्वेक्षण रिपोर्ट से पहले ही हम सहजबोध के आधार पर यह अंदाजा लगा सकते थे कि इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अच्छी-खासी है। यदि निजी स्कूलों की भागीदारी जोड़ लें तो और आगे हो सकता है, क्योंकि सरकारी स्कूलों में फिर भी पुरुषों की नियुक्ति हो जाती है, लेकिन प्राइवेट स्कूलों में उनकी संख्या काफी कम होती है। बड़ी कक्षा में जाकर विज्ञान, गणित या स्पो‌र्ट्स आदि के क्षेत्र में पुरुष शिक्षकों को फिर भी स्थान मिल जाता है, लेकिन संख्या कम होती है। इस संदर्भ में एक बात तो यह कही जा सकती है कि वजह चाहे जो हो, लेकिन कम से कम प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र ने महिलाओं को सार्वजनिक दायरे में और परिवार में कमाने वाले सदस्य का स्थान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शिक्षिका बनने के लिए घर-परिवार तथा समाज से ज्यादा प्रतिरोध का सामना भी नहीं करना पड़ता है। हमारे समाज में प्राथमिक शिक्षा का क्षेत्र एक तरह से परिवार का ही एक्स्टेंशन माना जाता है। चूंकि घर के अंदर बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी औरत की मानी जाती है और दाखिले के समय भी बच्चे छोटे ही होते हंै, लिहाजा यह स्वाभाविक मान लिया गया कि महिलाएं इसे बेहतर ढंग से निभा सकती हंै। कम उम्र के बच्चों की पढ़ाई में ज्ञान कम और भावनात्मक रूप से बच्चों की देखरेख करने की जरूरत को सभी समझते हैं। यह काम जेंडर स्टीरियोटाइप सोच के तहत माना गया कि महिलाएं अच्छा करेंगी। संभव है कि वाकई वे अच्छा करती हों, लेकिन उसका कारण यह नहीं कि वही अच्छा कर सकती हैं और पुरुष नहीं कर सकते, बल्कि यह काम वही करती आई हैं और पुरुषों ने इसे अपना काम समझा ही नहीं। सवाल यह है कि यदि प्राथमिक स्तर पर वे इस जिम्मेदारी को संभाल रही हंै और आगे हैं तो उच्च स्तर की शिक्षा में क्यों पीछे हैं? क्या उच्चस्तरीय ज्ञान हासिल करने और फिर यह सेवा देने में वे अक्षम साबित हुई हैं? ऐसी कोई भी अध्ययन रिपोर्ट नहीं आई है, बल्कि समाज में उनके लिए अवसर उपलब्ध नहीं कराया गया है। हाल में विज्ञान के क्षेत्र में महिला वैज्ञानिकों की कम होती संख्या पर चिंता व्यक्त की गई है। खुद इंडियन काउंसिल फॉर साइंस एंड रिसर्च ने अपनी अगली 11वीं कांग्रेस को महिलाओं को समर्पित किया है। सर्वेक्षण में यह स्थिति रोजगार के दूसरे क्षेत्रों में भी है, जहां स्त्री-पुरुष अनुपात में अभी भारी अंतर है। उच्च पदों पर महिलाओं की नियुक्तियों में क्या अवरोध आ रहा है, इसे समझने तथा उसे दूर करने के गंभीर प्रयासों की जरूरत भी नहीं समझी जा रही है। सेना जैसे क्षेत्र में तो उन्हें नियुक्ति के बराबर नियम के लिए कानूनी जंग लड़नी पड़ती है। स्थायी कमिशन का विकल्प अभी भी सेना में हर स्तर पर महिलाओं को नहीं मिला है। भारत में महिलाओं की उच्च पदों पर अनुपस्थिति या कुछ अहम क्षेत्रों में उनकी घटती संख्या बरबस दो साल पहले आई अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट की याद ताजा करती है। 2008 में प्रकाशित उपरोक्त रिपोर्ट में बताया गया था कि महिलाओं के लिए गरिमामय काम की कमी है। रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 10 सालों में कामकाजी महिलाओं की संख्या 20 करोड़ बढ़ी है। इसके बाद भी 2007 तक काम करने वाली महिलाओं की संख्या 120 करोड़ थी, जबकि काम करने वाले पुरुष 180 करोड़ थे। कार्यक्षेत्र में भेदभावपूर्ण स्थिति के साथ ही अवैतनिक काम का अधिक हिस्सा उन्हीं के जिम्मे होता है। जैसे, गृहकार्य या अनुत्पादक कार्य। विशेष तौर पर गरीब इलाके की गरीब महिलाओंे के कार्यक्षेत्र में असुरक्षा बढ़ी है। रिपोर्ट में यह बताया गया था कि अभी भी महिलाओं की श्रमशक्ति में तब्दील होने की संभावना बची है। उन्हें काम का गरिमामय अवसर उपलब्ध करा कर समाज में भी जेंडर गैरबराबरी को कम किया जा सकता है। रिपोर्ट में आंकड़ा प्रस्तुत किया गया था कि दुनिया में पुरुषों की बेरोजगारी दर 5.7 प्रतिशत थी, जबकि महिलाओं का 6.4 प्रतिशत था। अक्सर उनका रोजगार कम उत्पादकता वाला, कम आय वाला तथा अधिक असुरक्षित होता है। यह भी बताया गया है कि विश्व के श्रम बाजार में 100 पुरुषों पर 70 कामगार महिलाएं है। दक्षिण एशिया में काम करने वाली उम्र की महिलाओं का 59 प्रतिशत श्रम बाजार में है, जबकि कामकाजी उम्र के पुरुष 82.8 प्रतिशत श्रम बाजार में हैं। इस अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट को सामने रखकर अगर हम अपने देश की स्थिति को समझें तो क्या चित्र दिखता है। अपने यहां आज भी कुशल श्रमिक के रूप में महिलाएं कुल श्रमशक्ति में बराबर की हिस्सेदार नहीं बन पाई हैं। श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट इस बात का खुलासा करती है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार महिला श्रमिकों की संख्या 12 करोड़ 72 लाख है, जो उनकी कुल संख्या 49 करोड़ 60 लाख का चौथा (25.60 प्रतिशत) हिस्सा ही हुआ। इनमें भी अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्र में हैं और उनका प्रतिशत ऊपर दी हुई कुल महिला श्रमिकों की संख्या का तीन हिस्से से भी ज्यादा (87 प्रतिशत) कृषि संबंधी रोजगार में हैं। रिपोर्ट के अनुसार शहरी क्षेत्र के रोजगार में तीन हिस्से से भी ज्यादा (80 प्रतिशत) महिला श्रमिक घरेलू उद्योग, लघु व्यवसाय सेवा तथा भवन निर्माण में लगी हैं। कहा गया है कि सरकार ने महिला श्रमिकों के काम की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा उनकी स्थिति बेहतर बनाने के लिए कई कानून बनाए हंै, लेकिन व्यवहार में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है। देश में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश को छोड़कर जहां क्रमश: महिला श्रमिकों की संख्या 11.90, 10.34 और 10.07 है, बाकी अधिकतर राज्यों में कुल श्रमिकों की तुलना में महिला श्रमिक एक फीसदी से भी कम हैं। निश्चित ही एक बड़ी चुनौती हमारे समक्ष खड़ी है। सामाजिक बराबरी स्त्री और पुरुष के बीच तभी संभव है, जब अवसर भी बराबर का उपलब्ध हो। इसके लिए जरूरी है कि एक तो सरकार द्वारा कानूनन हर क्षेत्र में बराबर का अवसर दिया जाए तथा दूसरे सामाजिक स्तर पर ऐसे प्रयास हों तथा अभियान चले कि महिलाएं अधिक से अधिक सार्वजनिक दायरे में प्रवेश कर कुशल कामगार का दर्जा हासिल करें। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

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