Thursday, February 24, 2011

भेदभाव की चिकित्सा


केंद्र सरकार के अधीन संचालित एवं दिल्ली में स्थित वर्धमान महावीर मेडिकल कॉलेज में पिछड़े वर्गो एवं अनुसूचित तबकों के छात्रों के साथ जारी भेदभाव पर संयुक्त समिति की रिपोर्ट में पुष्टि होने के बावजूद व्याप्त मौन पर अब तरह-तरह के सवाल उठने लगे हैं। मालूम हो कि चंद रोज पहले ही मीडिया के एक हिस्से में वीएमएमसी में पिछड़े वर्ग के साथ हो रहे भेदभाव के बारे में विस्तृत रिपोर्ट छपी थी। इसमें बताया गया था कि किस तरह फिजियोलॉजी विभाग में पिछड़े वर्ग के छात्रों को जानबूझकर कम अंक प्रदान किए गए हैं जिसकी वजह से इन छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है। गौरतलब है कि छात्रों की शिकायत पर एम्स एवं एलएनजेपी के विशेषज्ञों की संयुक्त समिति डॉ. एलआर मुरमु की अध्यक्षता में बनाई गई थी। इस समिति ने पाया कि बीते पांच साल में उपरोक्त विभाग में फेल होने वाले सभी छात्र पिछड़े वर्ग से संबंधित हैं। समिति की रिपोर्ट के मुताबिक एक छात्रा को एक अंक से एक-दो बार नहीं, बल्कि तीन बार फेल किया गया है। समिति के सदस्यों को यह देखकर हैरानी हुई कि पिछडे़ एवं अनुसूचित तबके के जिन छात्रों को फेल घोषित किया गया है उन्होंने अन्य विभागों की परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन किया है और मेडिकल प्रवेश परीक्षा में भी वे उच्च स्थान प्राप्त किए हैं। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि राजधानी से संचालित केंद्र सरकार के अधीन मेडिकल कॉलेज में अगर छात्रों के साथ जातिगत भेदभाव अपनाया जा सकता है और इसे लेकर कोई कार्रवाई भी नहीं होती है तो देश के दूसरे हिस्सों में कितनी खराब स्थिति होती होगी। वैसे सफदरजंग अस्पताल से संबद्ध यह कॉलेज दिल्ली के अन्य चिकित्सा संस्थानों से इस मायने में कोई अलग नहीं दिखता। वैसे यह बात सुनने में अटपटी लग सकती है। मगर यह बात भी उतनी ही सच है कि मानव शरीर की बीमारियों के इलाज में अत्याधुनिक तरीके से इलाज करने में पूरी तरह सक्षम चिकित्सा संस्थानों की प्रबंधन टीम एवं उच्च अधिकारियों का एक हिस्सा उच्च स्तर पर टिके भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव पर भी अमल करता दिखता है। इस मानसिकता का प्रभाव ऐसे संस्थानों के संचालन में भी नजर आता है। कुछ साल पहले दिल्ली के ही गुरु तेग बहादुर अस्पताल में अनुसूचित जाति के छात्रों एवं गैर-अनुसूचित छात्रों के बीच चले तीखे विवाद का मसला अखबारों की सुर्खियां बना था जब यह देखा गया था कि इन वंचित तबकों के छात्रों के साथ जातिगत भेदभाव भी होता है। साझा मेस में इन तबकों के लिए टेबल भी रिजर्व रखे जाते हैं और उनके लिए सूडो नामक अपमानजनक संबोधन का प्रयोग किया जाता है। इसके लिए शहर के अन्य जनतांत्रिक संगठनों के साथ मिलकर अनुसूचित जाति के छात्रों को लंबा संघर्ष करना पड़ा। विडंबना यही थी कि प्रशासन के एक हिस्से से भी वर्चस्वशाली तबके के छात्रों को शह मिली हुई थी। इस संबंध में हम दिल्ली में ही स्थित तथा केंद्र सरकार द्वारा संचालित एम्स अर्थात ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के अनुभव की बात कर सकते हैं। यह कहना प्रासंगिक होगा कि विगत लगभग पांच वर्षो से उपरोक्त संस्थान में आरक्षित तबकों के साथ अध्ययन के दौरान तथा नई भर्ती के संदर्भ में विभिन्न स्तरों पर बरते जा रहे भेदभाव का मसला उठता ही रहा है। राष्ट्रपति को सौंपे अपने ज्ञापन में मेडिकोज फोरम फॉर इक्वल अपारचुनिटीज की तरफ से इस अग्रणी संस्थान की आंतरिक हालात से अवगत कराते हुए कहा गया था कि किस तरह उपरोक्त संस्थानों में ही नहीं, बल्कि दिल्ली के अन्य मेडिकल कॉलेजों में भी ऐसी स्थितियां व्याप्त हैं। यह अकारण नहीं था कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के चेयरमैन सुखदेव थोराट की अगुआई में एक समिति भी बनाई गई थी जिसने आरक्षित तबकों के छात्रों की शिकायतों की पुष्टि की थी। हालांकि इस समिति ने इसके लिए जिम्मेदार पदाधिकारियों को दोषी करार देने और किसी किस्म की सजा देने की कोई सिफारिश नहीं की थी। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने जब अपनी पहली पारी में शिक्षा संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने का एलान किया था, जिसे मंडल- 2 नाम से संबोधित किया गया था तब उपरोक्त संस्थान का प्रांगण ही आरक्षण विरोधी आंदोलन का केंद्र बना था। जाहिर है कि संस्थान के प्रबंधन के एक हिस्से की मौन सहमति के बिना इस तरह का विरोध कार्य मुमकिन नहीं था। इस संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि वर्ष 2003 में उपरोक्त संस्थान में 164 सहायक प्राध्यापकों की गई नियुक्ति का मामला अदालत में आज भी लंबित है। इस नियुक्ति प्रक्रिया में उचाधिकारियों द्वारा आरक्षण संबंधी नियमों की खुलेआम अवहेलना की गई थी। अदालत में मामला विचाराधीन होने के बावजूद उन्हीं में से कई एक को प्रोन्नति दी गई, जबकि खुद केंद्र सरकार एवं संस्थान की तरफ से न्यायालय में दिए गए अपने शपथ पत्रों में इस तथ्य को स्वीकार किया गया था कि इन नियुक्तियों में संबंधित नियमों का पालन नहीं किया गया था। पिछले दिनों स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने संसद को बताया कि सफदरजंग अस्पताल, राममनोहर लोहिया अस्पताल एवं लेडीज हार्डिंग अस्पताल में आरक्षित श्रेणी के तहत आने वाले 498 पद मृत्यु, सेवानिवृत्ति, इस्तीफा और योग्य प्रत्याशियों की अनुपलब्धता के कारण खाली पड़े हैं। दिल्ली के इन तीन अग्रणी अस्पतालों में आरक्षित पदों में से लगभग 500 डॉक्टरों के पदों का खाली रह जाना किसी भी तरह की सरगर्मी पैदा करने में असफल रहा। एक ऐसे वक्त में जबकि उच्च अदालत द्वारा दिए गए निर्देशों के बावजूद निजी अस्पताल अमीरों या पैसे वालों के लिए सीमित हो रहे हैं तथा सरकारी अस्पतालों में लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही है तब उस वक्त इतनी बड़ी तादाद में सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की अनुपलब्धता निश्चित ही चिंता का विषय बनना चाहिए था। आम आदमी के स्वास्थ्य संबंधी न्यूनतम अधिकारों के इस खिलवाड़ के प्रति मंत्री महोदय द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण भी औपचारिक मालूम पड़ रहा था कि उपयुक्त प्रत्याशी नहीं मिल पा रहे थे। वैसे आरक्षित पदों को लेकर योग्य प्रत्याशियों की अनुपलब्धता का तर्क हर उस जगह दोहराया जाता है जहां संविधानप्रदत्त जिम्मेदारियों के निर्वहन में कमी नजर आती है। हालांकि मामला कहीं अलग होता है। अगर अस्पतालों के संदर्भ में देखें तो इसका एक सिरा चिकित्सा संस्थानों के प्रबंधन में आरक्षित तबकों के अधिकारों के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता की कमी से जुड़ा है तो कहीं-कहीं इसे लेकर जबरदस्त विरोध के रूप में भी देखा जा सकता है। इस मानसिकता का एक सिरा नव उदारवाद के प्रभाव में गढ़ी गई आर्थिक नीतियों में ढूंढ़ा जा सकता है जिसके तहत सार्वजनिक कल्याण के क्षेत्रों को भी रफ्ता रफ्ता तेजी से बाजार शक्तियों के हवाले किया जा रहा है और इसी के चलते संसाधनों की कमी का रोना रोते हुए स्थाई पदों को भरने में सरकारों द्वारा अलग-अलग बहाने बनाकर आनाकानी की जाती है और डॉक्टरों को मामूली तनख्वाह पर ठेके पर रखने का सिलसिला चलता रहता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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