Tuesday, March 29, 2011

वही परीक्षा, वही खुदकुशी


देश में इस समय परीक्षाओं का माहौल है। बच्चों पर इन परीक्षाओं का भारी दबाव है। यह परीक्षा से उपजे मानसिक दबाव का ही दुष्परिणाम है कि आत्महत्या करने की खबरें भी तेजी से आ रही हैं। ये परीक्षाएं भी बच्चों के लिए जानलेवा सिद्ध हो रही हैं। पिछले साल जनवरी से जून के बीच 110 छात्रों ने परीक्षा के दबाव अथवा एक-दो विषयों में विफलता के चलते आत्महत्या कर ली थी। उनमें से 26 छात्र अकेले मुंबई-थाणे क्षेत्र के थे और उनकी उम्र 15 से 22 के बीच थी। महाराष्ट्र सरकार ने पिछले दिनों टाटा इंस्टीटूट ऑफ सोशल साइंस, देवनार, मुंबई को जिम्मेदारी सौंपी है कि वह अध्ययन करके बताए कि बच्चों के अकादमिक जीवन में परिवार और स्कूल की क्या भूमिका है, बच्चों की कार्य निष्पादन क्षमता कैसी है तथा बच्चा परिवार की अपेक्षाएं पूरी करने में कहां अयोग्य साबित हुआ है।
बात केवल महाराष्ट्र की नहीं है। तथ्य बताते हैं कि विगत दो वर्षों में परीक्षाओं के दबाव में तथा फेल होने पर देश भर में हजारों छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। योजनाकारों, शिक्षाविदों एवं नीति निर्माताओं के सामने यह प्रश्न मुंह बाए खड़ा है कि बच्चों के आत्महत्या की ये घटनाएं मौजूदा शिक्षा प्रणाली या परीक्षा प्रणाली के दोष के कारण हो रही हैं या परिवार व समाज का प्रतिस्पर्द्धी माहौल उन्हें आत्मघाती बना रहा है।
यह सच अब पूरा समाज स्वीकार कर रहा है कि हो न हो, दोष इस शिक्षा प्रणाली में ही है। परीक्षा प्रणाली तो इस शिक्षा प्रणाली का एक हिस्सा है। शिक्षा पद्धति की वास्तविक स्थिति यह है कि पूरे वर्ष कक्षा में जो तोता रटंत पढ़ाई होती है, उसी का परीक्षण परीक्षाओं में होता है। छात्र को केवल तीन घंटे में पूरे वर्ष के अध्ययन का प्रतिबिंब पूछे गए प्रश्नों के माध्यम से प्रस्तुत करना होता है। पूरे वर्ष की पढ़ाई को मात्र तीन घंटे में हल करने, ऊपर से मां-बाप की अपेक्षाओं को पूरा करने के दबाव में फंसा बच्चा आत्मघात को मजबूर हो रहा है।
पिछले वर्ष दिल्ली में हुए एक शैक्षिक अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि परीक्षाओं के बीच बच्चों पर इतना अधिक मानसिक दबाव बढ़ा कि आत्महत्या के लगभग 300 प्रयास किए गए। यह निष्कर्ष भी सामने आया है कि जो बच्चे परीक्षा या अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे, उनमें से लगभग 70 फीसदी मानसिक दबाव के शिकार पाए गए। जाहिर है, दोष इस शिक्षा प्रणाली में ही है।
शोध यह भी बताते हैं कि इस मानसिक दबाव के लिए परिवार और समाज का प्रतिस्पर्द्धी माहौल भी कम जिम्मेदार नहीं है। सामाजिक ढांचे में आ रहे सतत बिखराव, संयुक्त परिवार का विखंडन, नगरों में मां-बाप, दोनों का नौकरीपेशा होने जैसे कारणों से बच्चे लगातार उपेक्षित हो रहे हैं। पहले के संयुक्त परिवारों में दादा, दादी, नाना, नानी व परिवार के अन्य बड़े सदस्य ऐसे बाहरी दबाव को झेलने में बच्चों के लिए शॉक एब्जॉर्वरका काम करते थे। लेकिन आज के एकल परिवार बच्चों के बीच पनप रहे मानसिक दबाव के इस मनोविज्ञान को संभालने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। बच्चे यदि परीक्षा में बेहतर नहीं कर पाते, तो मां-बाप उनके प्रति उपेक्षा का भाव रखने लगते हैं। उनकी यही उपेक्षा धीरे-धीरे बच्चों को गहरे अवसाद में ले जाती है। उसके मन में यह ग्रंथि पनप रही है कि सामान्य अथवा प्रतियोगी परीक्षा में कम अंक रह जाने के हालात को न समझकर मां-बाप उसकी अल्प सफलता पर उसे प्रताड़ित ही करेंगे। सही मायने में परिवार और समाज में बच्चों से निरंतर संवाद का अभाव उन्हें वह मार्ग प्रदान नहीं कर रहा है, जिस पर चलकर वे संवाद के जरिये अपना दबाव कम कर सकें।
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बच्चों का स्वाभाविक व्यक्तित्व पाठ्यक्रम के बोझ तले खोता जा रहा है। साप्ताहिक, अर्द्ध मासिक और मासिक परीक्षणों का बोझ न तो बच्चों को और न ही अभिभावकों को चैन लेने दे रहा है। स्कूल और घर में धीरे-धीरे एक आक्रोश पैठ बना रहा है। इसे न तो शिक्षा व्यवस्था के नीति-नियंता समझ रहे हैं और न ही अभिभावक। जहां तक शिक्षक का प्रश्न है, तो इस शिक्षा प्रणाली में वह रोजगार की मजबूरी में एक वेतनभोगी व्यक्ति तथा छात्र इस व्यवस्था का एक उपभोक्ता बन रहा है, जहां आपसी संवाद की प्रक्रिया संवेदनशू्न्यता के बीच दम तोड़ रही है। आज शिक्षाविदों, योजनाकारों और पाठ्यक्रम निर्माताओं के सामने यक्ष प्रश्न है कि आखिर बच्चों के दम पर चलने वाली संपूर्ण शिक्षा प्रणाली में बच्चे ही इतने उपेक्षित क्यों हो रहे हैं।

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