Sunday, January 9, 2011

ज्ञान की कसौटी

आजाद देश के विश्वविद्यालय गुलाम बनते जा रहे हैं
विश्वविद्यालयों का काम है ज्ञान की सीमाओं का विस्तार, तर्क और विवेक पर आधारित नए विचारों की खोज, मानववाद और सहिष्णुता की भावना का प्रसार तथा सत्य की खोज। जिस राष्ट्र के विश्वविद्यालय इन कर्तव्यों का पालन करते हैं, वहां सब कुछ ठीक रहता है।
आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू के ये शब्द हैं। यूरोप में आस्था, चर्च, राजशाही और सामंतवादी मध्य युग के स्थान पर तर्क और विवेक को स्थापित करने वाला आधुनिक वैज्ञानिक युग लाने का श्रेय वहां के विश्वविद्यालयों को ही जाता है। विश्वविद्यालयों ने ही वहां के अंधविश्वासी समाज के विरुद्ध क्रांति की लहर पैदा कर पुनर्जागरण को जन्म दिया।
भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना सबसे पहले 1857 में मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में हुई। आजादी के पहले बने भारतीय विश्वविद्यालय एशिया में चीन और जापान से बहुत आगे थे। वर्ष 1913 में भारत के रवींद्रनाथ ठाकुर नोबल पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम गैर यूरोपीय व्यक्ति थे। वर्ष 1930 में वैज्ञानिक चंद्रशेखर वेंकट रमण को नोबल मिला। आजादी के पहले इनके अतिरिक्त जगदीशचंद्र बसु, मेघनाद साहा, सत्येन बोस, जदुनाथ सरकार, सुनीति कुमार चटर्जी तथा डा. राधाकृष्णन जैसे अनेक नाम गिनाए जा सकते हैं, जिन्होंने विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई। लेकिन 1947 के बाद ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में किसी एक भी भारतीय को नोबल पुरस्कार नहीं मिला। यहां हरगोविंद खुराना, चंद्रशेखर और अमर्त्य सेन का उल्लेख जान-बूझकर नहीं किया जा रहा, क्योंकि ये विदेशी विश्वविद्यालयों में कार्य कर रहे थे। शर्म तब आती है जब हम पाते हैं कि हमारी मिट्टी से जुड़े विषयों पर भी विदेशी विद्वानों का वर्चस्व है। पिछले साल जून में विश्व तमिल सम्मेलन कोयंबटूर में हुआ। तमिल विद्वानों में सबसे अधिक सम्मान प्रो. जार्ज हार्ट, प्रो. आस्को परपोला, प्रो. जारोस्लाव, प्रो स्टुअर्ट और प्रो. काराशिमा को दिया गया। विश्व संस्कृत सम्मेलन की कार्यकारिणी में भी पश्चिमी विद्वानों का वर्चस्व है।
देखा गया है कि भारतीय विश्वविद्यालयों या संस्थानों में कार्य करने वाला एक औसत दरजे का विद्वान भी अमेरिका और यूरोप में जाकर प्रसिद्धि पाने लगता है। कारण क्या है? निश्चय ही हमारी व्यवस्था में ऐसा कोई दोष है, जिस कारण योग्यता का सही मूल्यांकन नहीं होता। सभी जगह औसत दरजे के लोग छाए हुए हैं। दरअसल हम काबिलियत को नहीं, निष्ठा को महत्व देते हैं। प्लेटो का सबसे बड़ा आलोचक उसका सबसे प्रिय शिष्य अरस्तु हो, यह शायद हमें अच्छा नहीं लगेगा। यह स्थिति लगभग सभी क्षेत्रों में है। उदाहरण के तौर पर राजनीति को ही लीजिए, वहां टिकट पाना इस बात पर निर्भर करता है कि केंद्र में बैठे नेताओं के आप कितने करीब हैं। इस प्रकार हमने एक सामंतवादी प्रजातंत्र को जन्म दिया है।
काबिलियत की बलि देने में जाति, धर्म, भाई-भतीजावाद, विश्वविद्यालय की गुटबाजी तथा सरकारी हस्तेक्षप की भूमिका है। महाविद्यालयों में नियुक्तियों के लिए बनाए गए सरकारी आयोगों में फैला भ्रष्टाचार भी छिपा नहीं है। सरकारी दखलंदाजी इतनी अधिक है कि विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता पूर्णत: समाप्त हो गई है। कुलपति का पद विशुद्ध रूप से राजनीतिक हो गया है। जब देश गुलाम था, विश्वविद्यालय स्वतंत्र थे। आज देश स्वतंत्र है, पर विश्वविद्यालय परतंत्र हो गए हैं।
आईआईटी, दिल्ली के कुछ शोध छात्रों द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण का उल्लेख यहां जरूरी है। इस सर्वेक्षण टीम ने देश के ख्याति संपन्न 21 वैज्ञानिकों की एक सूची बनाई। टीम ने पाया कि ये वैज्ञानिक शोध कार्य के अतिरिक्त प्रशासन से भी जुड़े थे। प्रसिद्ध वैज्ञानिक किसी प्रशासनिक पद पर न हो, ऐसा इस देश में हो ही नहीं सकता। इसके विपरीत टीम ने पिछले 10 वर्षों में भौतिकी में नोबल पुरस्कार प्राप्त 27 वैज्ञानिकों की सूची बनाते हुए पाया कि उनमें से सात ही किसी प्रशासनिक पद से जुड़े थे। जाहिर है कि प्रशासन की जिम्मेदारी आ जाने से शोध के लिए कम ही समय बचता होगा।
वस्तुत: हमारे यहां विश्वविद्यालयों का विस्तार ज्ञान-विज्ञान के विकास को देखते हुए नहीं, बल्कि क्षेत्रीय राजनीतिक दबावों के कारण अधिक हुआ। नतीजतन जो परिदृश्य राजनीति में है, वही विश्वविद्यालयों में भी देखने को मिलता है। विशुद्ध मुनाफा कमाने की दृष्टि से जिस प्रकार डीम्डविश्वविद्यालय और स्ववित्तपोषित महाविद्यालय खोले जा रहे हैं, उन्होंने उच्च शिक्षा को और अधिक चौपट कर दिया है।
इक्कीसवीं शताब्दी में किसी राष्ट्र का वर्चस्व उसकी सैनिक और राजनीतिक ताकत से नहीं, बल्कि ज्ञान पर उसके अधिकार से आंका जाएगा। क्या हम उच्च शिक्षा की मौजूदा दुर्दशा से आगे बढ़ेंगे? हम बॉलीवुड के कलाकारों और क्रिकेटरों को तो स्टारबना देते हैं, किंतु शोध को समर्पित वैज्ञानिक, दार्शनिक अथवा समाज विज्ञानी को महत्व नहीं देते। यह भी जरूरी है कि विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में सरकारी दखलंदाजी पूर्णत: समाप्त हो।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल इस समय मौजूदा यूजीसी, एआईसीटीई तथा अन्य संगठनों के स्थान पर एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना की बात कर रहे हैं। इसका अर्थ होगा शिक्षा का और अधिक केंद्रीयकरण और सरकारीकरण। जबकि ज्ञान के विस्तार के लिए विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता को बनाए रखना बेहद जरूरी होगा। स्थिति अब भी बेकाबू नहीं हुई है। जब आईआईटी, आईआईएम, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बंगलूरु तथा टाटा के शोध संस्थान अपनी गुणवत्ता बनाए रख सकते हैं, तब देश के दूसरे उच्च शिक्षा संस्थानों में ऐसा आखिर क्यों नहीं हो सकता!


No comments:

Post a Comment