Friday, April 1, 2011

माफियाओं के हाथ में उच्च शिक्षा



ज्ञान और सूचना की सदी के तौर पर घोषित 21वीं सदी में भारतीयों को आगे रखने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजनाओं की कोई सानी नहीं है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की योजना है कि देश के नामचीन संस्थान और कॉलेज अपनी खुद की डिग्री बांटें। शिक्षा के विकास को देखते हुए सरकार की इस योजना में कोई बुराई नजर नहीं, अगर कॉलेज या संस्थान नामचीन हैं तो उन्हें डिग्री के लिए किसी पर आश्रित क्यों रहना चाहिए। कुशल हाथ और शिक्षित दिमाग की खोज में जुटी दुनिया के देशों में भारतीय प्रतिभाओं की पहुंच इससे बढ़ेगी। इस तरह एशिया और ज्ञान की 21वीं सदी में भारतीय डंका बज सकेगा। पर इससे पहले सवाल यह है कि वैधानिक तरीकों की आड़ में अपने यहां जिस तरह से शिक्षा में मनमानियां की जा रही हैं, उससे क्या यह लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा। कुछ इसी तरह भारतीय छात्रों का भला चाहते हुए स्वर्गीय अर्जुन सिंह ने डीम्ड विश्वविद्यालयों की श्रृंखला खड़ी कर दी थी। शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने और ज्यादा से ज्यादा छात्रों को डिग्रियां देने के लिए खड़ी की गई इन संस्थाओं की हालत अंदरखाने में देखें तो वास्तविकता साफ हो जाएगी। हकीकत में ये डीम्ड विश्वविद्यालय डिग्रियां बांटने की दुकान बन गए हैं। दिल्ली से सटे हरियाणा में दो मानद विश्वविद्यालय हैं। दोनों ने अपने अध्यापकों को मौखिक आदेश दे रखे हैं कि किसी छात्र को फेल नहीं करना है। इन विश्वविद्यालयों के संचालकों की समस्या यह है कि अगर उनके यहां छात्र फेल होने लगे तो दूसरी बार उनके यहां एडमिशन कौन लेगा और उनकी शैक्षिक दुकान कैसे चलेगी? दिल्ली के दक्षिणी हिस्से में चल रहे एक संस्थान से लोगों ने दो साल पहले की तारीख में एमफिल का एडमिशन करा लिया और अब वे अध्यापक बनने के लिए जरूरी नेट की परीक्षा से छूट पा गए हैं। सच तो यह है कि यह संस्थान पैसे कमाने और डिग्रियां बांटने की दुकान बन गए हैं। इसलिए क्या गारंटी है कि नामचीन कॉलेजों और संस्थानों को डिग्री देने की सहूलियत मिलते ही उसका फायदा पैसा कमाने की दुकान बन चुके ये संस्थान नहीं उठाएंगे और यह अधिकार पाने के लिए खानापूर्ति करने में कामयाब नहीं होंगे। कहने के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक समिति बनाई है जो उन संस्थानों के शैक्षिक इतिहास और गरिमा की जांच करेगी। यह समिति इन कॉलेजों में शिक्षा के स्तर व इतिहास को वर्षो के उनके रिकॉर्ड के आधार पर जांचेगी। इसके साथ ही उन्हें नेशनल असेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन काउंसिल में कम से कम ए श्रेणी में पंजीकृत होना जरूरी होगा। जिस देश में मेडिकल काउंसिल, आइसीटीइए और डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्जा देने वाली समितियों में पैसों का खेल चलता है, वहां यह कैसे शिक्षा की दुकान बने ये कॉलेज डिग्री बांटने की दुकान नहीं बनेंगे। पहले विश्वविद्यालय से जुड़े होने के कारण इन पर शैक्षिक गुणवत्ता बनाए रखने का थोड़ा बहुत दबाव रहता था जो आगे खत्म ही हो जाएगा। अभी फर्जी डिग्री से पायलटों की भर्ती का मामला चर्चा में है। फर्जी डिग्री से पायलट बनने की कहानी अभी चर्चा में है। इसका कारण भी यही था कि डीजीसीए ऐसी संस्थाओं को प्रशिक्षण की छूट दे दी जिनका मकसद पैसे कमाना था। जयपुर से गिरफ्तार एक छात्र ने कैमरे के सामने बताया कि उसे पायलट ट्रेनिंग के लिए संबंधित संस्थान को पांच लाख रुपये दिए। अगर कमजोर छात्रों को फेल कर दिया जाता और फर्जी डिग्री के आधार छात्रों का प्रवेश नहीं होता तो उनकी कमाई मारी जाती। लिहाजा, उन्होंने अपनी कमाई का तो ध्यान रखा, लेकिन इन अयोग्य पायलटों के हाथों में यात्रियों की सुरक्षा के बारे में विचार करना जरूरी नहीं समझा। कपिल सिब्बल ने मानव संसाधन विकास मंत्री बनते ही डीम्ड विश्वविद्यालयों की जांच कराई थी, जिसमें 128 डीम्ड विश्वविद्यालयों में से 44 किसी भी मानक पर खरे नहीं उतरे, लेकिन इन्होंने फिलहाल सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले रखा है। यानी उनका कुछ बिगड़ता नहीं दिख रहा है, उल्टे छात्रों को वे डिग्री बांटने की कवायद में जुटे हुए हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि संस्थानों और कॉलेजों को डिग्री देने की छूट मिली तो गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए फुलप्रूफ इंतजाम कैसे होंगे। क्या सरकार फिर डीम्ड विश्वविद्यालयों की तरह इंतजार करेगी कि वे कैसा प्रदर्शन करते हैं और फिर उन पर सवाल खड़े करेगी और वही ढाक के तीन पात वाली कहानी दोहराई जाती रहेगी। शिक्षा की दुकानों को  यह अधिकार ठीक नहीं



No comments:

Post a Comment