Wednesday, April 20, 2011

साक्षरता की हकीकत


लगभग अस्सी फीसदी साक्षरता वाले राज्य उत्तराखंड की हकीकत उत्साह पर पानी फेर रही है। सरकारी स्कूलों की तस्वीर बदरंग ही नहीं, भयावह है। एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) से साफ है कि लोग अपने बच्चों को क्यों सरकारी स्कूलों से दूर रखना चाहते हैं। जिन स्कूलों में आठवीं कक्षा के तकरीबन 99 फीसदी छात्र-छात्राएं अक्षर की पहचान न कर पा रहे हों, उनका भविष्य क्या होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है। रिपोर्ट में चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि शिक्षकों की उपस्थिति कम होती जा रही है। सरकार भले ही शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के दावे कर रही हो, लेकिन हालात दिन पर दिन खराब होते जा रहे हैं। दरअसल, वर्तमान में चिंता से ज्यादा चिंतन की आवश्यकता है। आखिर क्या वजह है कि भारी-भरकम बजट वाले विभाग के रिजल्ट इतने दयनीय हैं। परिस्थितियों का विश्लेषण करें तो काफी कुछ साफ हो जाता है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा और शिथिल प्रशासन, इसके लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। स्कूल खोलने में जितनी दरियादिली दिखायी जाती है, शायद ही इतना ध्यान व्यवस्थाओं पर दिया गया हो। शिक्षक राजनीति में उलझी सरकार के पास स्कूलों के आंतरिक हालात का जायजा लेने का वक्त ही नहीं है। नियुक्ति से लेकर स्थानांतरण और बिल्डिंग से लेकर बजट तक, हर जगह राजनीति का हस्तक्षेप है। ऐसे में नौनिहालों के सुनहरे भविष्य की उम्मीद करना बेमानी होगी। जाहिर है अभिभावक सरकारी स्कूलों से मुंह मोड़ प्राइवेट स्कूलों की शरण ले रहे हैं और इन स्कूलों का रवैया सभी जानते हैं। लेकिन अभिभावक मजबूर है, बच्चों के भविष्य के लिए वह निजी स्कूलों की ब्लैकमेलिंग सहने को भी तैयार है। सरकार के लिए ये वक्त एक्शन का है। देर तो हो ही चुकी है, लेकिन कहीं अंधेर न हो जाए। शिक्षा समाज का अधिकार है और इसकी व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी। समाज तो शिक्षा के लालयित है, लेकिन सरकार अपनी कर्तव्य का निर्वहन करने में सतर्क नजर नहीं आ रही है।


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