Friday, September 7, 2012

घातक है शिक्षा का बाजारीकरण



ठ्ठ अश्विनी महाजन आज भारत को दुनिया यंगिस्तान के नाम से जानती है, क्योंकि दुनिया की सबसे ज्यादा युवा आबादी हमारे देश में है। आर्थिक नीति निर्माता आज मानने लगे हैं कि भारत भले ही जनसंख्या के आधिक्य से त्रस्त है, पर भारत की युवा आबादी देश के भविष्य निर्माण में आशा की किरण सरीखी है। इसे कुछ लोग डेमोग्राफिक डिविडेंट यानि जनसांख्यिकी लाभांश के तौर पर भी परिभाषित करते हैं। हमारे युवाओं का स्वस्थ और शिक्षित होना यह लाभांश लेने की जरूरी शर्त है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं का बाजारीकरण बढ़ने से दोनों ही चीजें आम आदमी पहुंच से बाहर होती जा रही हैं। हालांकि 1990 से पहले भी देश में शिक्षण संस्थाएं और स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र के स्वामित्व में चलती थीं, लेकिन 1990 और 2000 के दशक में इनका पूरी तरह निजीकरण कर दिया गया। पब्लिक स्कूलों का चलन नई बात नहीं, लेकिन इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट, बीएड, नर्रि्सग आदि के क्षेत्र में इसी दौरान निजी संस्थाएं खुल गईं। इसका अच्छा असर यह हुआ कि सरकारी संस्थाओं में सीमित सीटों की क्षमताओं के चलते जो मेधावी छात्र इस प्रकार की व्यवसायिक शिक्षा से वंचित रह जाते थे, उन्हें आगे बढ़ने का अवसर मिलने लगा। बुरा यह रहा कि इनका लाभ ऊंची फीस देकर ही मिल सकता है। वे लोग जो भारी फीस नहीं दे पाते, इस शिक्षा से अब भी वंचित ही रह जाते हैं या कर्ज लेकर अपना सपना पूरा कर सकते हैं। बजट में अपर्याप्त प्रावधानों के चलते सरकारी शिक्षा संस्थानों की हालत बेहतर नहीं हो पा रही। हालांकि सरकारी क्षेत्र के कई संस्थानों ने अपनी उत्कृष्टता बनाए रखी और वैश्विक पटल पर अपनी धाक भी बनाई, लेकिन आईआईटी, आईआईएम सरीखे नए संस्थान हम नहीं बना सके। हाल ही के वर्र्षो में दो प्रकार की प्रणालियां समानांतर चलती रही - अत्यंत कम फीस वाले सरकारी शिक्षण संस्थान और भारी भरकम फीस वाले निजी संस्थान। इस बीच, बीच सरकार से आम जन की यह अपेक्षा जरूर रही कि वह नए और उच्च कोटि के सरकारी शिक्षण संस्थान जरूर बनाए, ताकि आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचितों को शिक्षा के बेहतर अवसर मिलते रहें। बारहवीं पंचवर्षीय योजना के शुरू होने के बाद अब यह आशा भी खत्म होती दिख रही है। योजना आयोग का कहना है कि सड़क, पुल, एयरपोर्ट जैसी ढांचागत सुविधाओं के विकास के लिए सरकारी निजी भागीदारी (पीपीपी) की तर्ज पर ही इसे अब शिक्षा और स्वास्थ्य में लागू किया जाएगा। 12वीं पंचवर्षीय योजना अप्रैल, 2012 से शुरू हो चुकी है। इसमें साफ-साफ कहा गया है कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पताल अब एक-दूसरे के साथ प्रतियोगिता करेंगे। अस्पताओं को मरीजों के पंजीकरण और डॉक्टरों को पर्ची के आधार पर पैसा मिलेगा। शिक्षा क्षेत्र की बात करें तो प्राथमिक शिक्षा को छोड़ (जो अब शिक्षा का अधिकार कानून के कारण सरकार की संवैधानिक जिम्मेवारी बन चुकी है), शेष सभी प्रकार की शिक्षा से सरकार अब हाथ धोने की तैयारी में है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना में सार्वजनिक-निजी साझेदारी मॉडल लागू करने का मतलब यही है। भले ही उसे नॉट फॉर प्रॉफिट का नाम दिया जा रहा है, लेकिन इसका मतलब यह है कि जो शिक्षण संस्थान सरकारी निजी साझेदारी में खुलेंगे, एक न्यूनतम लाभ के उद्देश्य के साथ काम करेंगे। शिक्षा के अधिकार से उम्मीद की जा रही थी कि दसवीं तक की पढ़ाई को इस कानून के दायरे में लाया जाएगा, लेकिन इस पीपीपी मॉडल को लागू करने की सरकार की प्रतिबद्धता से यह उम्मीद भी धूमिल होती जा रही है। नीति निर्माता लगातार कह रहे हैं कि इस प्रकार के शिक्षण संस्थान ज्यादा कुशल होंगे और इससे शिक्षा की लागत कम होगी। क्या वे यह बता सकते हैं कि ऐसे कौनसे देश हैं जहां शिक्षा के निजीकरण से इस क्षेत्र में लागत कम हुई है? दुनिया के ज्यादातर देशों की सरकारें जीडीपी का छह प्रतिशत से अधिक शिक्षा पर खर्च करती हैं, जबकि भारत में यह मात्र 3.1 प्रतिशत ही है। मांग की जाती रही है कि शिक्षा पर सरकारी खर्च बढ़ाकर जीडीपी का कम से कम छह प्रतिशत किया जाए, लेकिन योजना आयोग की इस बदली नीयत के बाद बजट में शिक्षा के लिए इस दरियादिली की कोई उम्मीद नहीं बची है। सरकारी अस्पतालों की लचर हालत और उनमें सुधार की जरूरत के मद्देनजर, स्वास्थ्य मंत्रालय योजना आयोग के स्वास्थ्य अध्याय में समझाए मसौदे से खासा नाराज है। उसने योजना आयोग को इसे बदलने की बात कही है, लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय जैसी संवेदनशीलता नहीं दिखा रहा। यही कारण है कि योजना आयोग द्वारा बारहवीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा को निजी क्षेत्र के हवाले की जा रही तैयारी के बावजूद मानव संसाधन विकास मंत्रालय में कोई हलचल या नाराजगी नहीं दिखाई दे रही। योजना आयोग के अनुसार देश में अब भी 30 फीसद लोग गरीबी की रेखा से नीचे बसर कर रहे हैं। योजना आयोग की गरीबी की परिभाषा के अनुसार शहरी क्षेत्रों में 32 रुपये और ग्रामीण क्षेत्रों में 26 रुपये प्रतिदिन कमाने वाले लोग ही गरीबी रेखा से नीचे आएंगे, लेकिन यदि हम वास्तविक धरातल पर देखें तो आज जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा भूख से मर रहा है, मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आमतौर पर अभावग्रस्त है। शहरों और गांवों में रहने वाला आम आदमी आज अपने बच्चों को अच्छे स्तर की शिक्षा दिलाने में पूर्णतया अक्षम महसूस कर रहा है। इलाज के लिए वह आज अच्छे अस्पतालों में नहीं जा सकता। शिक्षा और स्वास्थ्य के इन अभावों के चलते वह या तो सुरक्षा विहीन रहने को मोहताज है या येन-केन-प्रकारेण उधार लेकर अपने बच्चों को पढ़ाने और इलाज कराने के लिए मजबूर है। भूमंडलीकरण और निजीकरण के दौर में सबसे ज्यादा शिक्षा और स्वास्थ्य ही निजी हाथों में केंद्रित होते जा रहे हैं। अधिकाधिक लाभ की संभावनाओं के कारण इस क्षेत्र में निजी निवेश के साथ सेवाओं का स्तर भी पहले से बेहतर हुआ है, लेकिन ये सेवाएं सिर्फ एक वर्ग तक ही सीमित रह गई हैं। वह वर्ग जो इनकी कीमत चुका सकता है। गरीबों के सामने सिर्फ भोजन का संकट तो पहले से ही था। अब सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी आधारभूत जरूरतों से भी अपना हाथ पीछे खींच रही है। ऐसे में गरीबों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा कैसे मिलेगी? योजना आयोग द्वारा शिक्षा और स्वास्थ्य को निजी हाथो में सौंपने का मतलब केवल यही नहींहै कि आम आदमी इन सुविधाओं से वंचित होगा, बल्कि देशवासियों के मन में भारत को दुनिया का सिरमौर देश बनाने का सपना भी साथ ही धूमिल हो जाएगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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