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शारीरिक रूप से अक्षम यानी विशेष बच्चों (मूक, बधिर,
नेत्रहीन और मंदबुद्धि बच्चों) को उचित शिक्षा देने के लिए निजी स्कूलों
को मार्च 2013 तक
विशेष शिक्षकों की नियुक्ति करनी होगी। उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार को तय
समय में इनके लिए विशेष शिक्षकों की नियुक्ति नहीं करने वाले निजी स्कूलों की
मान्यता समाप्त
करने का आदेश दिया है। इस संबंध में उच्च न्यायालय ने कहा, ‘मूक, बधिर,
नेत्रहीन और मंदबुद्धि बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने की
जिम्मेदारी सिर्फ
सरकार की ही नहीं है, बल्कि
यह निजी स्कूलों की भी जिम्मेदारी है।
निजी स्कूल ऐसे बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने से मुंह नहीं
मोड़ सकते।’ गौरतलब
है कि इससे पूर्व राज्यसभा में ‘शिक्षा का अधिकार कानून’
में संशोधन
कर शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों को शिक्षा का अधिकार दिया
गया है। बीमार और
विकलांग बच्चों को आर्थिक रूप से कमजोर (ईडब्ल्यूएस) कोटे के तहत स्कूलों
में दाखिला पाने का अधिकार होगा। इस समय देश भर में करीब दो करोड़ ‘विशेष’
बच्चे हैं, जिनमें से एक प्रतिशत से भी कम सरकारी और निजी स्कूलों में
पढ़ रहे हैं। इसके साथ ही विशेष बच्चों के लिए जरूरत के मुताबिक घर बैठे
शिक्षा पूरी करने का विकल्प भी इस विधेयक का भाग रहा है। मानव संसाधन मंत्री
ने यह स्पष्ट किया कि नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा संशोधन विधेयक के तहत
कई तरह की विकलांगताएं झेल रहे बच्चों के लिए घर बैठे शिक्षा की व्यवस्था
की जा सकेगी। विशेष बच्चों को मुख्यधारा में शामिल करने की पहल चार
वर्ष पूर्व एक जनहित याचिका से शुरू हुई। 16
सितम्बर, 2009 को उच्च
न्यायालय ने राजधानी के सभी सरकारी एवं स्थाई निकायों के
स्कूलों में विशेष श्रेणी के इन बच्चों को उपयुक्त शिक्षा देने के लिए छह माह
के भीतर कम से कम
दो विशेष प्रशिक्षित शिक्षक नियुक्त करने को कहा। लेकिन इस आदेश का पालन नहीं
हुआ। नवम्बर, 2011 में
पहले दिल्ली सरकार और बाद में नगर निगम ने भी अपने स्कूलों के लिए एक-एक विशेष
शिक्षक नियुक्त किए जाने की प्रक्रिया
शुरू की थी। संविधान के अनुसार 18 साल तक के विकलांग
बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा मुहैया कराना सरकार का उत्तरदायित्व है। विशेष
शिक्षकों की नियुक्ति एवं स्कूलों को विकलांग बच्चों की सुविधा के अनुसार नहीं
बनाने वाले शिक्षण
संस्थानों की मान्यता समाप्त करने की बात कहकर उच्च न्यायालय ने सरकार
के कंधे पर दोहरी जिम्मेदारी रख दी है। पहले से ही अपने स्कूलों में विशेष
शिक्षकों की नियुक्ति में तीन साल की देरी कर चुकी सरकार के लिए निजी स्कूलों
में इस आदेश को लागू कराना खास चुनौती होगा,
क्योंकि कुछ माह
पूर्व विशेष बच्चों की शिक्षा के मुद्दे पर निजी स्कूलों ने
प्रशिक्षित अध्यापकों
की भर्ती के लिए सरकारी सहायता की मांग की थी। निजी स्कूलों का यह
वक्तव्य ‘विशेष
बच्चों’ के
प्रति सतही संवेदनशीलता और शिक्षा को अर्थलाभ से जोड़ने की प्रवृत्ति का सूचक है, जो क्षोभ का विषय है। स्वावलंबी बनने हेतु
शिक्षा प्रथम पायदान है, क्योंकि
बिना अक्षर ज्ञान के जीवन की
विकटताएं और बढ़ जाती हैं और इसीलिए ‘सर्वशिक्षा अभियान’ जैसी योजनाओं के माध्यम से समस्त भारत को शिक्षित करने
का प्रयास किया जा रहा है। देश का
प्रत्येक बच्चा भावी निर्माणकर्ता है, फिर चाहे वह किसी भी प्रकार की विकलांगता
का शिकार क्यों न हो। विशेष बच्चों को भी आम बच्चों की तरह शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है। पर
क्या इन बच्चों के लिए रास्ते इतने सहज
हैं, जितने
आम बच्चों के लिए होते हैं? 1995 में विकलांग (समान अवसर अधिकारों का संरक्षण एवं पूर्ण
सहभागिता) अधिनियम पारित हुआ, जो 1996 में लागू
किया गया। इस अधिनियम में विकलांगों के प्रति समाज के उत्तरदायित्व को निर्धारित
किया गया। इसमें समाज से यह अपेक्षा की गई कि वह विकलांग व्यक्तियों के साथ समायोजन करें।
परंतु आज भी विकलांग बच्चों के लिए बनी
समस्त योजनाएं सिवाय कागजी किले से ज्यादा कुछ साबित नहीं
हुई हैं। ऐसी शिक्षण
संस्थाओं की संख्या नाममात्र है जहां विकलांग बच्चों के बुद्धि के स्तर
को नापने की सुविधाएं उपलब्ध हों,
और हैं भी तो कुछ बड़े शहरों में। देश में ऐसे स्कूलों को ढूंढना रेत
में सुई ढूंढने जैसा है जहां विकलांग
बच्चों की शिक्षा हेतु समस्त साधन हों। देश के ज्यादातर
सरकारी एवं निजी शिक्षा
संस्थाओं में ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति नहीं की गई है जो मंदबुद्धि बच्चों
को उनके स्तर तक आकर पढ़ा सके। ऐसे शिक्षकों के अभाव में क्या यह संभव
नहीं है कि विकलांग बच्चे मुख्यधारा से जुड़े स्कूलों में पढ़ सकें? समस्या यहीं समाप्त नहीं होती। भारत
में ऐसे बच्चों की संख्या भी बहुत है
जो पोलियो या किसी अस्थिरोग से पीड़ित हैं; अथवा दृष्टिबाधित हैं या मूक-बधिर
हैं। उनकी सुविधा के लिए आम स्कूलों से लेकर प्रतिष्ठित विद्यालयों तक में रैंप सुविधा का
अभाव है। इसके चलते वे बच्चे, जो व्हील
चेयर या बैसाखी का प्रयोग करते हैं, इन स्कूलों में जाने से कतराते हैं।
एक ओर
जहां विशेष बच्चों के शिक्षण का मुद्दा गंभीर विषय बना हुआ है, वहीं दूसरी ओर स्कूलों के भवन और प्रशासनिक
व्यवस्था विशेष बच्चों के अनुकूल हो,
यह भी एक चुनौती है। इस दिशा में सीबीएसई ने सुनिश्चित करने
के लिए कहा है कि
शारीरिक रूप से अक्षम बच्चों के लिए स्कूलों में हॉस्टल, पुस्तकालय, लैब और इमारतों को अवरोध मुक्त बनाया
जाए; साथ
ही बोलने वाली पुस्तकें, पढ़ने
वाली मशीन और स्पीच सॉफ्टवेयर के साथ-साथ कम्प्यूटर स्कूलों में उपलब्ध
कराया जाए। मुख्यधारा के स्कूलों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे
बच्चों को दाखिले से मना नहीं किया जाए। सीबीएसई ने यह भी स्पष्ट किया है
कि ऐसे बच्चों के लिए स्कूलों में रैम्प शौचालय,
व्हील चेयर लिफ्ट और
ऐटिवेटर में चिह्न जरूर हो। स्कूलों में विकलांग बच्चों को
ऐसी सुविधाएं उपलब्ध
न कराए जाने के कारण वे उपेक्षित महसूस करते हैं। यदि विकलांगता से ग्रस्त
बच्चों की सहायता करनी है तो उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना होगा। ऐसे बच्चों
को दया नहीं अपितु सामाजिक एवं सरकारी दोनों स्तरों पर गहरी संवेदनशीलता
की आवश्यकता है, जो
उनमें आत्सम्मान जागृत कर सके। शिक्षा न
केवल साक्षरता प्रदान करती है,
बल्कि ‘स्व’ भी
जाग्रत करती है। और यही ‘स्व’ व्यक्तित्व निर्माण का मूल है। समाज के
हर व्यक्ति को समझना होगा कि
ईश्वर किसी को पूर्णत: रिक्त करके नहीं भेजता और विकलांग
बच्चों के भीतर भी गहरी प्रतिभाएं छुपी होती हैं। सरकारी स्तर पर भी ऐसे
प्रयासों की आवश्यकता
है, जिससे
विकलांग बच्चे मुख्यधारा से जुड़ सकें,
अन्यथा शिक्षित
भारत का स्वप्न अधूरा ही रहेगा।
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Rashtirya sahara National Edition 25-10-2012 शिक्षा pej-10
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