Thursday, July 28, 2011

यूपीएससी में मातृभाषा में साक्षात्कार


संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी की यह पहल उल्लेखनीय है कि भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में चयन की उम्मीद रखने वाले प्रतिभागी अब अपनी मातृभाषा में मौखिक साक्षात्कार दे सकते हैं। अब तक यूपीएससी की नियमावली की बाध्यता के चलते जरूरी था कि यदि परीक्षार्थी ने मुख्य परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी रखा है तो साक्षात्कार भी अंग्रेजी में देना होगा। जाहिर है, इस फैसले से ऐसे प्रतिभागियों को राहत मिलेगी, जो अंग्रेजी तो अच्छी जानते हैं, लेकिन अंग्रेजी उच्चारण या बोलचाल में उतने परिपक्वनहीं होते। मुंबई उच्च न्यायालय द्वारा एक जनहित याचिका के संदर्भ में दिए गए फैसले के पालन में यूपीएससी ने यह पहल की है। इस निर्णय से उन चौबीस अन्य भाषाओं को सम्मान मिलेगा जो संविधान का हिस्सा होने बावजूद महत्व और उपयोगिता की दृष्टि से गौण थीं। यह निर्णय उन प्रतिभागियों को भी हीनता व अपमान बोध से मुक्त करेगा जो अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व के चलते अपनी विलक्षण प्रतिभा को व्यक्त नहीं कर पाते थे, हालांकि यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की सर्वोच्च सेवाओं में नौकरी पाने के भाषाई माध्यमों को 63 साल बाद आधिकारिक मान्यता मिली। देशी भाषाओं के वर्चस्व के लिए अंग्रेजी को पूरी तरह बेदखल करने की जरूरत है। हालांकि संघ लोक सेवा आयोग की यह हमेशा कोशिश रही है कि आयोग की परीक्षाओं का माध्यम भारतीय भाषाएं न बन पाएं और अंग्रेजी का वजूद बना रहे। इसके लिए आयोग गोपनीय चालाकियां भी बरतता रहा है। ऐसा वह इसलिए करता रहा है जिससे अंग्रेजी वर्ग को उच्च पद हासिल होते रहें। इसी साल आयोग ने 2011 की प्रारंभिक प्रवेश परीक्षा योजना में ऐच्छिक प्रश्नपत्र के स्थान पर दो सौ अंकों का एक नया प्रश्नपत्र लागू कर दिया। इसमें तीस अंक अंग्रेजी दक्षता के लिए रखे गए थे। हिंदी व संविधान में अधिसूचित अन्य भारतीय भाषाओं को इसमें कोई स्थान ही नहीं दिया गया था। बहुत चतुराई से इस प्रश्नपत्र को केवल उत्तीर्ण होने की पात्रता तक सीमित न रखते हुए इसके प्राप्तांकों को प्रवीणता (मेरिट) सूची से जोड़े जाने की होशियारी भी बरती गई थी। इससे उन अभ्यर्थियों का चयन प्रभावित होना स्वाभाविक था जो भारतीय भाषाओं के माध्यम से आयोग की परीक्षाओं में बैठते हैं। यह हरकत प्रशासनिक कलाबाजी का ऐसा नमूना था जो भीतरी दरवाजे से अंग्रेजी को थोपने की कोशिश में लगे रहते हैं। इस मामले को बीते सत्र में राज्यसभा सदस्य अली अंसारी ने जोरदार तरीके से उठाया था। जिसे राज्यसभा में बाकी सदस्यों से भी भरपूर समर्थन मिला। यह मामला इतना बढ़ा कि राज्यसभा द्वारा अंग्रेजी की इस अनिवार्यता को वापस लेने के लिए एक संकल्प भी पारित किया गया। अंग्रेजी का संवैधानिक महत्व 63 साल बाद भी इसलिए बना हुआ है, क्योंकि संविधान में इसकी अनिवार्यता को आज तक बेदखल नहीं किया गया है। इसे अभी भी राष्ट्र की संपर्क भाषा के तौर पर संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। यदि इस बाध्यता को संसद में विधेयक लाकर तथा अधिनियम बनाकर हटा दिया जाए तो भारतीय भाषाओं को वैधानिक स्वरूप लेने में देर नहीं लगेगी। इस स्थिति के निर्माण से ग्रामीण प्रतिभाओं को खिलने और खुलने का मौका तो मिलेगा ही देश में भारतीय भाषाओं के माध्यम से शैक्षिक समरूपता लाने का अवसर भी हासिल करने में मदद मिलेगी। शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषाओें का आधिपत्य कायम होता है तो सरकारी पाठशालाओं में पठन-पाठन की स्थिति मजबूत होगी और आम अवाम को मंहगी कान्वेंट शिक्षा से निजात मिलेगी। वैसे भी आयोग की परीक्षा में 45 प्रतिशत छात्र हिंदी माध्यम के शामिल होते हैं और 40 प्रतिशत संविधान में अधिसूचित अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से बैठते हैं, लेकिन इनमें से मुख्य परीक्षा में कामयाबी बमुश्किल 40 फीसदी प्रतिभागियों को ही मिल पाता है। इन प्रतिभागियों में भी 22 फीसदी हिंदी माध्यम के परीक्षार्थी होते हैं। अंग्रेजी माध्यम से इस परीक्षा में बैठने की मजबूरी इसलिए भी है, क्योंकि संपूर्ण और उच्च गुणवत्ता की पाठ्यसामग्री अंग्रेजी में आसानी से उपलब्ध है। अंग्रेजी परस्त लोगों द्वारा भारतीय भाषाओं को नकारने के पीछे यह तर्क अमूमन देते हैं कि इन भाषाओं मे उच्च शिक्षा अर्जन की दृष्टि से साहित्य और तकनीकी पारिभाषिक शब्दावली का अभाव है। इस परिप्रेक्ष्य में सकारात्मक खबर यह है कि अब विज्ञान और तकनीकी ज्ञान का शब्दकोश भी तैयार हो चुका है और यह प्रकाशित भी हो चुकी है। इसके लिए यदि आवश्यकता है तो सिर्फ प्रशासनिक स्तर पर उसे कार्यरूप में लेने की इच्छाशक्ति जताने की। यही नहीं, अब कंप्यूटर तकनीक ने इसे और भी अधिक आसान बना दिया है। गूगल ने ऐसे अनुवादक और भाषा परिवर्तक सॉफ्टवेयर तैयार करके इंटरनेट पर मुफ्त उपलब्ध करा दिया है, जिनके जरिए किसी भी भारतीय भाषा का भाषाई परिर्तन और अनुवाद की सुविधा अब अधिक आसान व सर्वसुलभ है। अब तो यूनिकोड का हिंदी मंगल फोंट भी प्रचलन में आ गया है जो सीधे स्क्रीन पर अंग्रेजी फोंट की तरह ही खुलता है। यह जानकारी उन सभी तकनीकी विशेषज्ञों और नौकरशाहों को है, जिनकी दिनचर्या में कंप्यूटर और इंटरनेट शामिल हैं, लेकिन वे कुटिल चालाकियां इसलिए बरत रहे हैं, क्योंकि भाषाई अनुवाद व लिप्यांतर के इन औजारों का व्यापक इस्तेमाल यदि शुरू हो जाता है तो उनकी अंग्रेजी के बहाने जो वंशानुगत सत्ता बनी चली आ रही है, उसके वर्चस्व पर खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। राष्ट्रभाषाएं सामाजिक संपत्ति और वैचारिक संपदा होने के साथ-साथ संस्कृति, परंपरा, रीति- रिवाज, तीज-त्यौहार और लोकोक्ति व मुहावरों को व्यक्त करने का भी माध्यम होती हैं, इसलिए यदि भाषाओं की प्रयोगशीलता, महत्ता और अनिवार्यता को नजरअंदाज किया जाएगा तो यह सांस्कृतिक धरोहरें भी धीरे-धीरे लुप्त होती चली जाएंगी और संस्कारों के बीज पनपने पर अंकुश लग जाएगा। सांस्कृतिक हमलों के बढ़ते इस दौर में यदि हमने भाषाओं की उपेक्षा की तो देश सांस्कृतिक पराधीनता की ओर बढ़ता रहेगा। नीति-नियंताओं को यहां यह भी रेखांकित करने की जरूरत है कि जिस तरह से हमने आधुनिक खेती और रासायनिक खादों के बहाने खेतों की उर्वरा क्षमता का नाश किया और किसान को कर्ज के बोझा में डुबोकर उसे आत्महत्या के लिए विवश किया है, उसी तरह यदि हम उच्च पदों की परीक्षाओं में अंग्रेजी को अनिवार्य करेंगे तो मातृभाषाओं में शिक्षित युवाओं को आत्महीनता के मरुस्थल में धकेलने का काम करेंगे। इस आत्महीनता ने यदि आक्रामकता का रुख अपना लिया है तो हमें विध्वंस के दौर का भी सामना करना पड़ सकता है। इस तरह के आने वाले किसी भी बुरे हालात से बचने के लिए यह जरूरी है कि अंग्रेजी की अनिवार्यता हर स्तर पर समाप्त की जाए और आगे बढ़ने अथवा शीर्ष तक पहुंचने का अवसर सभी को मुहैया कराया जाए। इसके लिए सरकार को दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा और सभी को साथ लेकर चलने की भावना दिखानी होगी.

No comments:

Post a Comment