Thursday, December 23, 2010

शिक्षा में हर प्रकार का प्रदूषण अस्वीकार्य

अधिकतर पब्लिक स्कूलखुलेआम धनार्जन का जरिया हो गये है, वे मनमाने ढंग से फीस बढ़ाते है, सरकारी आदेशों को धता बता देते है, अध्यापकों को छठे वेतन आयोग के अनुसार प्रावधान करने के नाम पर फीस बढ़ाते है , मगर उन्हें वेतनमान नहीं देते। ये वही नामी-गिरामी स्कूल है जो सरकार से सारी सुविधाएं सामान्य जन के बच्चों को शिक्षा देने के नाम पर लेते है, प्रारम्भ में सभी सरकारी प्रावधानों को मानने का वादा करते है मगर बाद में मनमानी करते है। विडम्बना यह है कि वे नेता तथा अधिकारी जो नीतियां बनाते है, उनका क्रियान्वयन करने के जिम्मेदार है, वे सभी इन्हीं स्कूलों में प्रवेश प्राप्त कराने के लिए कभी न कभी पहुंचे रहते है .
यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने जिम्मेदार नागरिक तैयार किये होते तो क्या जीवन के हर कार्य क्षेत्र में मूल्यों का इतना क्षरण दिखाई देता? यदि शिक्षा व्यवस्था मूल्यों तथा नैतिकता के आधार पर चल रही होती तो क्या उसके द्वारा तैयार किये युवा अपने कार्यो तथा कार्यालयों में भ्रष्टाचार को इस कदर पनपते देते?
बी सवीं शताब्दी में वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति तथा राजनीतिक परिदृश्य में हुए महत्वपूर्ण परिवर्तनों का सामाजिक तथा सांस्कृतिक संरचना पर गहन प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। हर तरफ यह स्वीकार किया गया कि मानवीय सम्मान हर व्यक्ति को बराबरी से मिलना चाहिए, उसे मानवीय अधिकार मिलने चाहिए और समानता के अवसर हर कार्यक्षेत्र में उपलब्ध होने चाहिए। इन सभी वैश्विक मानवीय अपेक्षाओं के लिए रास्ता एक ही था। हर व्यक्ति को शिक्षा, हर बच्चे को अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की उपलब्धता तथा उच्च एवं व्यावसायिक स्तर पर अभिरुचि तथा योग्यता के आधार पर अध्ययन की व्यवस्था तथा अवसर देना आवश्यक माना गया। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय 20 प्रतिशत की साक्षरता दर आज 70 के आसपास मानी जाती है- यानी शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ है। जनसंख्या भी इसी दौरान तीन गुणा से अधिक बढ़ी। शैक्षिक प्रगति का मूल्यांकन-परीक्षण करते समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए। लेकिन मुख्य प्रश्न इसके प्रतिशत तथा संख्या वृद्धि से-परे उभरते है। क्या शिक्षा हर बच्चे के सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास में अपना उत्तरदायित्व निर्वाह कर पा रही है और क्या शिक्षा संस्थाएं उदात्त राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति में ईमानदारी तथा कर्मठता से लगी है? यह जिज्ञासा किसी के भी सामने रखी जाए, वह तुरंत ही इसका उत्तर देने को उत्सुक दिखाई देगा। यदि हमारी शिक्षा व्यवस्था ने जिम्मेदार नागरिक तैयार किये होते तो क्या जीवन के हर कार्य क्षेत्र में मूल्यों का इतना क्षरण दिखाई देता? क्या शिक्षा के प्रसार के साथ भ्रष्टाचार दिन दोगुना, रात चौगुना बढ़ता? यदि शिक्षा व्यवस्था मूल्यों तथा नैतिकता के आधार पर चल रही होती तो क्या उसके द्वारा तैयार किये युवा अपने कार्यो तथा कार्यालयों में भ्रष्टाचार को इस कदर पनपते देते? क्या राजनेताओं को वर्तमान पीड़ा जनमानस में स्वार्थ-लोलुप समूह के रूप में अपनी पहचान बनाती। इस स्थिति में पहुंचने के कारण स्पष्ट है- शिक्षा व्यवस्था अपने उत्तरदायित्यों की गरिमा को नहीं पहचान पायी समय के साथ अपने में गतिशीलता समाहित नहीं कर पायी तथा समाज में बदलती तथा बड़े स्तर पर उभरती अपेक्षाओं को समझकरअपने को उसके अनुकूल नहीं ढाल सकी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय की शिक्षा व्यवस्था के उद्देश्य अलग थे। उनमें आमूल-चूल परिवर्तन आवश्यक था- जो नहीं हुआ, यद्यपि भारत के सर्वहारा को ध्यान में रखकर गांधी जी द्वारा दिखाया गया बेसिक शिक्षाका सारा ढांचा देश के समक्ष उपस्थित था। सरकारी तंत्र में उसे बिना कहे धीरे से नकार दिया। 1964-66 में कोठारी आयोग की रिपोर्ट आयी जो अनेक दूरगामी सुझावों के लिए आगे भी जानी जाती रहेगी। उसमें एक सुझाव समान स्कूल व्यवस्था (कॉमन स्कूल सिस्टम) का था। आज भी सरकारी दस्तावेज इस संकल्पना का समय-समय पर प्रयोग कर लेते है मगर इसे लागू करने के लिए जिस ईमानदार तथा साहसपूर्ण संकल्प की आवश्यकता थी, वह कहीं कभी दिखाई नहीं पड़ी है। परिणामस्वरूप आज भारत की शिक्षा व्यवस्था स्कूल स्तर पर दो पूरी तरह अलग खण्डों में बंट गयी है जिनके बीच की खाई हर वर्ष बढ़ती ही जा रही है। 20 प्रतिशत लोगों के बच्चों के लिए पब्लिक स्कूल, केन्द्रीय विद्यालय, सैनिक स्कूल आदि व्यवस्थाएं है। शेष 80 प्रतिशत के लिए सरकारी स्कूल है जिनके अच्छे ढंग से चलने का उत्तरदायित्व उन लोगों पर है जो अपने बच्चों को इन स्कूलों में नहीं पढ़ाते। यह बढ़ती हुई खाई का केन्द्र बिन्दु है। देश के अधिकतर गरीबों, सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़े वर्गो तथा दलित समुदाय के बच्चे सरकारी स्कूलों में है। यहां रखरखाव. उपकरण, पुस्तकालय उचित संख्या में अध्यापक, पीने का पानी, शौचालय जैसी व्यवस्थाएं निम्नतम स्तर पर देखी जाती है। यदि वातावरण उपयुक्त नहीं होगा तो शिक्षा सम्पूर्णता कैसे प्राप्त करेगी। यदि अध्यापक समय पालन नहीं करता है तो विद्यार्थी आगे चलकर समय का पाबंद कैसे होगा और क्यों होगा। यदि समाज जानता है कि अध्यापकों की नियुक्ति में पारदर्शिता नहीं है तथा उनकी नियुक्ति भ्रष्ट तरीकों से होती है तब अध्यापक को परम्परागत सम्मान कैसे मिलेगा? जो व्यक्ति किसी भी स्तर पर अध्यापक बनता ही गलत तरीकों से है- जो उसकी मजबूती है- तो उससे यह अपेक्षा करना व्यर्थ ही होगा कि नैतिक मूल्यों का प्रय8पूर्वक पालन करेगा और अपने विद्यार्थियों में वही गुण निर्मित करने का प्रयास करेगा। उसका अपना मनोबल प्रारम्भ से ही नीचे आ जाएगा और व्यवस्था को जड़ों से कमजोर होने की प्रक्रिया में वह जाने अनजाने भागीदार बन जाएगा। भारतीय समाज का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व था कि गरीब तबके के लोगों को तथा पूरे वंचित वर्ग को ऊपर लाया जाए-उन्हें शिक्षा के द्वारा ही आगे लाया जा सकता है। जब स्कूल में अपने नैतिक तथा सामाजिक दायित्व के निर्वाह के लिए आवश्यक प्रतिबद्धता का वातावरण ही नहीं बनेगा तब यह लक्ष्य पूरी तरह प्राप्त कर सकने की सम्भावना कैसे फलीभूत हो सकती है। जनजाति अनुसूचित जन जाति तथा अन्य दलित और वंचित वर्गो को इसी कारण उचित स्तर तथा गुणवत्ता की शिक्षा तथा कौशलों से परिचय प्राप्त नहीं हो रहा है। देश के जो स्कूल साधन सम्पन्न है, वे अब केवल उन लोगों के लिए एक प्रकार से सुरक्षित है जो साधन सम्पन्न, सत्ता सम्पन्न तथा आवश्यक रसूख वाले है। यदि ऐसा न होता तो नर्सरी कक्षाओं में प्रवेश को लेकर लगभग प्रतिवर्ष नूरा-कुश्तीकी तर्ज पर दिल्ली सरकार तथा पब्लिक स्कूलोंके बीच प्रवेश की शर्तो को लेकर रस्साकशी नहीं होती। कई वर्ष पहले से दिल्ली उच्च न्यायालय ने नर्सरी कक्षाओं में एक नियत प्रतिशत स्थान आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित करने का निर्देश दिया है, डोनेशन देने- लेने पर प्रतिबंध है। बच्चे या माता-पिता का साक्षात्कार अस्वीकार है। अब शिक्षा के अधिकार अधिनियम के अनुसार 25 प्रतिशत स्थान कक्षा एक में वंचित वर्ग के लिए आरक्षित होते है। सभी जानते है कि किसी भी आदेश, निर्देश या परिपत्र का पालन पब्लिक स्कूल नहीं करते है। वे अनेक विकल्प सुझाते है, उनकी समकक्षता के ढिंढोरे पीटते है मगर वंचित वर्ग के बच्चों को सम्पन्न घरों से आये बच्चों के साथ बैठाकर पढ़ाने को तैयार नहीं होते है। सरकार की असमर्थता लगभग निरीहता में परिवर्तित हो जाती है। यदि सरकारें स्वयं ईमानदारी से कार्य करें, प्रतिबद्धता दिखायें तथा साहसपूर्वक नियमों को लागू करायें तो ऐसी स्थिति निर्मित्त हो ही नहीं सकती थी। आज भी इसे ठीक किया जा सकता है। अधिकतर पब्लिक स्कूल
खुलेआम धनार्जन का जरिया हो गये है, वे मनमाने ढंग से फीस बढ़ाते है, सरकारी आदेशों को धता बता देते है, अध्यापकों को छठे वेतन आयोग के अनुसार प्रावधान करने के नाम पर फीस बढ़ाते है, मगर वेतनमान नहीं देते। ये वही नामी-गिरामी स्कूल है जो सरकार से सारी सुविधाएं सामान्य जन के बच्चों को शिक्षा देने के नाम पर लेते है, प्रारम्भ में सभी सरकारी प्रावधानों को मानने का वादा करते है मगर बाद में मनमानी करते है। विडम्बना यह है कि वे नेता तथा अधिकारी जो नीतियां बनाते है, उनका क्रियान्वयन करने के जिम्मेदार है, वे सभी इन्हीं स्कूलों में प्रवेश प्राप्त कराने के लिए कभी न कभी पहुंचे रहते है। यही कारण है कि इन स्कूलों को गुणवत्ता बढ़ाने वाला माना जाता है तथा सरकारी पुरस्कारों का रुख अक्सर इन्हीं की ओर मुड़ जाता है। वैसे नर्सरी की शिक्षा देश में बहुत थोड़े बच्चों को ही उपलब्ध है मगर इस पर चर्चा के कारण बड़े-बड़े मुद्दे भी सामने आते है। कक्षा एक में भारत सरकार 25 प्रतिशत बच्चों की फीस पब्लिक स्कूलों को देने को तैयार है मगर स्कूल बच्चों को नहीं लेना चाहते है। संविधान की भावना तथा उसमें निहित भाव हर संस्था तथा नागरिक पर ये उत्तरदायित्व डालते है कि वे वंचित एवं दलित वर्ग के उत्थान में भाग लें। फिर इन स्कूलों का रवैया समाजविरोधी क्यों निरूपित नहीं किया जाता है; नियमों की अवहेलना क्या केवल 80 प्रतिशत के लिए ही अपराध है, बाकी के लिए नहीं? मेरा दृढ़ विश्वास है कि किसी भी देश की प्रगति का मार्ग उसके प्राथमिक विद्यालयों के दरवाजों से होकर जाता है। स्कूल शिक्षा में सुधार का पहला बिन्दु समान स्कूल व्यवस्था तथा यह प्रावधान होना चाहिए कि हर सरकारी कर्मचारी के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ेंगे। सरकार में इसके विरोध को झेलने का साहस होना चाहिए। जब स्कूल शिक्षा बढ़ेगी तब उच्च शिक्षा पर भी उसका प्रभाव पड़ेगा और उसका विस्तार करना होगा। उच्च शिक्षा में संसाधन आवश्यक सीमा तक सरकार नहीं दे सकती है; अत: निजी संस्थाएं खुलीं और खूब खुलीं- लोगों ने भ्रष्ट व्यवस्था में वे सब तरीके निकाल लिये जिससे स्वीकृतियां खरीदीगयीं। राष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रही नियामक संस्थाएं साख के निम्नतम स्तर पर पहुंच गयी है। डीम्ड विश्वविद्यालय जैसे खेल- सारा देश जानता है। समस्या उसके आगे की है। बिना अध्यापकों के, बिना उचित ज्ञान कौशल दिये लोगों को डिग्री मिल जाती है। बाद में युवाओं को प्रतिस्पर्धा की दुनिया में जो हताशा मिलती है उसकी चिन्ता विश्वविद्यालय के मालिकतथा नियामक संस्थाओं के कर्ताधर्ता क्यों करें?( लेखक   एनसीईआरटी   के  पूर्व निदेशक  है)

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