शिवानंद
द्विवेदी सहर कहते हैं कि राष्ट्र और समाज के सर्र्वागीण विकास की बुनियाद
प्राथमिक विद्यालयों में ही रखी जाती है। किसी भी स्वस्थ समाज और संपन्न राष्ट्र
के निर्माण में उसकी शिक्षा पद्धति की अहम भूमिका होती है। आज जब हिंदुस्तान में
गरीबी और अनियंत्रित होती जनसंख्या पहले से ही समस्या का सबब बनी हुई हैं,
अगर प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था भी लचर हो जाए तो यह बड़ी चिंता का
विषय बन जाता है। भले ही सरकार की हजारों परियोजनाएं हों,
मगर सच्चाई यही है कि आज भी देश के प्राथमिक विद्यालय बदहाली के
शिकार हैं। आखिर शिक्षा के नाम पर अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद स्थिति सुधरने
के बजाय बिगड़ती ही क्यों जा रही है? आज
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की बदहाली का आलम यह है कि न तो पर्याप्त भवन उपलब्ध
हैं और न ही पर्याप्त शिक्षक। ऐसे में गुणवत्ता वाली शिक्षा की उम्मीद कैसे की जा
सकती है? शिक्षा के स्तर एवं व्यवस्था की जांच और
निगरानी के नाम पर आंकड़ों और कागजी पुलिदों के अलावा कुछ ज्यादा हाथ नहीं लगता।
शिक्षा के इस पहले पड़ाव में शिक्षा जैसा कुछ भी नहीं दिखता है। औपचारिक तौर पर
शिक्षा का अधिकार भले ही दे दिया गया हो, लेकिन
इसके तहत किताबों के वितरण एवं प्रबंधन आदि की व्यवस्था आज भी लालफीताशाही की भेंट
चढ़ रही है। बड़ा सवाल यह है कि हम सिर्फ मुफ्त किताबें बांटने की योजना बनाकर
शिक्षा के स्तर को ऊपर कैसे ले जा सकते हैं, जबकि
हमारे विद्यालयों की मूलभूत आवश्यकताओं का प्रबंधन ही लचर है?
हाल ही में अपने पूर्वी उत्तर प्रदेश प्रवास के दौरान मुझे ग्रामीण
प्राथमिक विद्यालयों के हालात को नजदीक से देखने का अवसर मिला। देवरिया जिले के
तमाम प्राथमिक विद्यालयों में आधिकारिक रूप से दो से ढाई सौ विद्यार्थियों का
दाखिला है, जबकि उनकी नियमित उपस्थिति का औसत सिर्फ 30-40
विद्यार्थी प्रतिदिन का है। हालांकि पूरे देश के प्राथमिक विद्यालयों
की कमोबेश यही स्थिति है। सच्चाई यह भी है कि ढाई सौ बच्चों की शिक्षा का पूरा
दरोमोदार महज एक नियमित अध्यापक और एक शिक्षामित्र के कंधों पर है। यह तो एक अदद
विद्यालय का आंकड़ा है, जबकि
ग्रामीण क्षेत्रों के हर प्राथमिक विद्यालय के हालात कुछ ऐसे ही हैं। शिक्षा के
लिए लुटाए जा रहे सरकारी खजाने में बंदरबांट की आशंका को भी नकारा नहीं जा सकता,
जो पहले से बदहाल शिक्षाप्रणाली में और नई समस्याएं खड़ी करता है।
सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में गिरते शिक्षा के स्तर के चलते अभिभावक अपने बच्चों
का दाखिला त्वरित रूप से बढ़ रहे निजी संस्थानों में कराने लगे हैं,
लेकिन छात्रवृत्ति जैसी सरकारी योजनाओं का लाभ मिलता रहे,
इसलिए बच्चों का नाम समानांतर रूप से सरकारी प्राथमिक विद्यालय में
भी चलाते रहते हैं, जो
सरकारी धन का दुरुपयोग है। इसे हम नैतिक भ्रष्टाचार भी कह सकते हैं। इससे साबित
होता है कि हमारा प्रशासनिक तंत्र राजनीतिक हितों को देखते हुए योजनाएं शुरू तो कर
देता है, लेकिन क्रियान्वयन पर स्थिति वही ढाक के तीन
पात। आज प्राथमिक विद्यालयों की पहली जरूरत पर्याप्त शिक्षक,
भवन, शिक्षा
संबंधी सामग्री आदि का प्रबंध करना है, लेकिन
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि शिक्षालय बनाने की बजाय हमारे प्राथमिक विद्यालय भोजनालय,
राशन वितरण गोदाम आदि बन कर रह गए हैं। सही पोषण के नाम पर प्राथमिक
विद्यालयों के धन का दुरुपयोग भी खूब हो रहा है। 250 बच्चों
का राशन लेकर महज तीस बच्चों को राशन खिलाकर बाकी धन का काला कारोबार भी चल रहा
है। ऐसा नहीं है कि इन प्राथमिक विद्यालयों की दशा शुरू से ही ऐसी है। 10-15
साल पहले तक प्रत्येक विद्यालय में कम से कम पांच शिक्षक और क्षेत्र
के बहुसंख्यक विद्यार्थी होते थे। तब शिक्षा मुफ्त भी नहीं थी और किताबों का वितरण
आदि भी नहीं होता था। आज उन विद्यालयों में कोई अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना
नहीं चाहता। इन सभी बातों को देखकर एक बात तो साफ होती है कि कहीं न कहीं शिक्षा
जैसी मूलभूत जरूरत को लेकर हमारा प्रशासन लापरवाह और गैर जिम्मेदार है। समुचित
प्रबंधन नीति के बिना किसी भी योजना का क्रियान्वयन करना व्यर्थ है। आज शिक्षा को
आकर्षक बनाने के लिए जरूरी है कि मिड-डे मील की बजाय शिक्षा की अत्याधुनिक तकनीक
उपलब्ध कराई जाए। बच्चों की संख्या के अनुपात में शिक्षक उपलब्ध कराए जाएं और
बच्चों की शिक्षा के प्रति अध्यापकों की जवाबदेही तय की जाए। प्रशासनिक स्तर पर
प्रत्येक वर्ष प्राथमिक विद्यालयों की जिलास्तरीय परीक्षा या सेमीनार आदि कराकर
उनके प्रदर्शन के आधार पर हर सुविधा में वरीयता दी जाए। किसी भी विद्यार्थी के
आर्थिक और सामाजिक पहलुओं का निराकरण शिक्षा की योजनाओं के माध्यम से करने का ही
दुष्परिणाम है कि आज प्राथमिक विद्यालयों में दाखिले का उद्देश्य छात्रवृत्ति,
कपड़ा, राशन
आदि हासिल करना हो रहा है और शिक्षा की मूल आत्मा ही कहीं विलुप्त होती जा रही है।
सामाजिक एकता और सामाजिक न्याय के प्रसार के नाम पर एक पंक्ति में बिठाकर भोजन
देने की सरकारी योजना के लिए प्राथमिक विद्यालयों को चुनना हास्यास्पद और निराधार
लगता है। शायद इन्हीं दिशा भ्रमित नीतियों की वजह से आज देश के बहुसंख्यक प्राथमिक
विद्यालय बदहाली के शिकार हैं। आज शिक्षा की मूल आवश्यकता नीति-निर्माण,
नियोजन, नियंत्रण
एवं प्रबंधन आदि पर धन व्यय करने की बजाय गरीबी उन्मूलन,
आहार, पोषण,
सामाजिक समानता आदि के नाम पर धन प्रयोग कर शिक्षा के धन का दुरुपयोग
किया जा रहा है। समय रहते यदि सरकार ने प्राथमिक शिक्षा की योजनाओं का सही नियोजन
नहीं किया तो निश्चित रूप से राष्ट्र को बाल-श्रम, गरीबी,
अशिक्षा जैसी तमाम समस्याओं से निजात नहीं मिलेगी,
बल्कि ये समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाएंगी। दूसरी अहम बात यह
है कि सरकारी प्राथ्यमिक विद्यालयों की खामियां जितनी बढ़ेंगी,
निजी संस्थानों का प्रसार उतना ही ज्यादा होता जाएगा,
जो शिक्षा के लिए बहुत अच्छे संकेत के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए।
निजी शिक्षण संस्थानों को शिक्षण के प्राथमिक विद्यालयों के विकल्प के तौर पर
देखना हमारे वर्तमान की सबसे बड़ी भूल है। एक समय ऐसा आएगा जब निजी शिक्षण
संस्थानों का मूल उद्देश्य शिक्षा का प्रसार राष्ट्र निर्माण हेतु नहीं,
बल्कि शिक्षा के व्यापारीकरण के तौर पर किया जाएगा। महानगरों में तो
इसके लक्षण दिखने भी लगे हैं। आने वाले समय में निम्न-मध्यमवर्ग की जेबें इन निजी
संस्थानों के आगे छोटी पड़ने लगेंगी, लेकिन
तब तक बहुत देर हो चुकी होगी और हमारे पास पछताने के अलावा और कोई विकल्प
नहींबचेगा। इसलिए प्राथमिक विद्यालय के सही संचालन से शिक्षा के व्यापारीकरण पर
लगाम लगाने की भी जरूरत है। शिक्षा हमारी प्रमुख जरूरत है और इसका पुख्ता इंतजाम
जरूरी है। हमें इसके विकल्पों पर नहीं सुधार पर ज्यादा जोर देने की जरूरत है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
Dainik jagran National Edition 27-10-2010 Education pej -9
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