Thursday, March 29, 2012

महाराष्ट्र के सरकारी स्कूलों से हिंदी को खत्म करने की तैयारी


महाराष्ट्र में हिंदी विरोधी मानसिकता का ठीकरा भले ही शिवसेना और मनसे जैसे दलों के सिर फोड़ा जाता है, लेकिन हकीकत यह है कि कांग्रेसनीत सरकार हिंदी को प्राथमिक स्तर की शिक्षा से बाहर करना चाहती है। महाराष्ट्र राज्य शिक्षण मंडल ने हिंदी को 5वीं कक्षा से अनिवार्य 3 भाषाओं की सूची से निकालने की भूमिका तैयार कर ली है। राज्य के सरकारी स्कूलों में पांचवी कक्षा से हिंदी, अंग्रेजी व मराठी अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। राज्य शिक्षण मंडल हिंदी को अनिवार्य भाषा की सूची से बाहर करना चाहता है। बुधवार को विधान परिषद में इसका खुलासा हुआ। विधान परिषद सदस्य एवं लोकभारती नामक राजनीतिक दल के अध्यक्ष कपिल पाटिल ने शिक्षण मंडल की योजना पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा, इस प्रकार के कदम से राज्य के 60 हजार शिक्षक बेकार हो जाएंगे। उन्होंने सवाल किया कि जब राज्य सरकार ने भाषा नीति में परिवर्तन नहीं किया है तो शिक्षण मंडल को ऐसा फैसला लेने की जरूरत क्यों पड़ रही है? हिंदी विरोध के लिए बदनाम शिवसेना ने इस मुद्दे पर पाटिल का समर्थन किया। हंगामे और शोरगुल के बीच विधान परिषद सभापति शिवाजीराव देशमुख ने इस विषय पर अगले सप्ताह चर्चा कराने का आश्वासन दिया है।

Wednesday, March 14, 2012

महिला विश्वविद्यालय का औचित्य


महिलाओं में उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अब आने वाले पांच सालों के भीतर 20 महिला विश्वविद्यालय अलग से खोले जाएंगे। यहां सिर्फ लड़कियों को उच्च शिक्षा मुहैया कराई जाएगी। साथ ही गरीब छात्राओं के लिए अलग से स्कॉलरशिप की व्यवस्था होगी। यह एक सुखद और खुशी की बात है कि सरकारी स्तर पर तथा सरकारी संस्थानों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की कम उपस्थिति से पार पाने का किसी रूप में प्रयास किया जा रहा है। भारत में महिला शिक्षा का मुददा 19वीं सदी के राष्ट्रीय सुधार आंदोलनों में एक प्रमुख मुद्दा रहा है और फिर बाद में राष्ट्रीय आंदोलन में भी वह उपस्थित रहा। आजादी के बाद महिला आंदोलनों में शिक्षा में महिलाओं को बराबर का अवसर मिले, यह मसला एजेंडा पर रहा। हालांकि पहले वाले दौर में स्त्री शिक्षा के प्रति सिर्फ शिक्षित होने जैसी समझ थी, जिसका उद्देश्य था परिवार में शिक्षा का स्तर बढ़े। कहा जाता था कि एक औरत के शिक्षित होने का मतलब है कि घर के बच्चों में भी शिक्षा का संस्कार शुरू से मिलेगा यानी औरत का हक केंद्र में नहीं था, बल्कि पूरा परिवार और समाज केंद्र में था। लेकिन इस एप्रोच के तहत भी औरत की पढ़ाई पर जोर रहा। बाद के दौर में महिला मुद्दों के प्रति समझ जैसे-जैसे बढ़ती गई, महिलाओं की व्यक्तिगत और नागरिक अधिकारों के प्रति चेतना बढ़ी। इसके तहत अब हर क्षेत्र में उनकी उपस्थिति तथा बराबर की भागीदारी का मुद्दा मापदंड बना। इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में महिलाओं में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अलग से महिला विद्यालय तथा महाविद्यालयों की स्थापना की गई। इन प्रयासों का असर भी पड़ा और शिक्षा में उनकी भागीदारी का प्रतिशत बढ़ा। अब यह बात तो सही है कि हमारा देश इस क्षेत्र में लक्ष्य हासिल करने में अभी काफी पीछे है। महिला साक्षरता दर में तो पिछले दस सालों में भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई है, लेकिन उच्च शिक्षा में अब भी उदासीन स्थिति है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अपनी 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत महिलाओं की उच्च शिक्षा तथा प्रबंधन में उच्च पदों पर निर्णयकारी भूमिकाओं में उनकी संख्या कम होने को चिंता का विषय माना। जेंडर बराबरी के मुद्दे पर फोकस करने के लिए अलग से बजटीय प्रावधान किया तथा देश भर के विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को सर्कुलर जारी कर ऐसे प्रशिक्षण आयोजित करने की बात कही है। वर्ष 2003 से ऐसे प्रशिक्षणों का आयोजन भी किया जा रहा है। अब मुद्दा यह है कि 21वीं सदी में भी यदि समस्याएं बरकरार हैं तो क्या उनसे निपटने का तरीका 19वीं सदी वाला ही होगा? यह अच्छी बात है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अपनी 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत भी महिलाओं में उच्च शिक्षण को बढ़ावा देने के लिए योजना बनाई और उसे लागू किया तथा 12वीं योजना के तहत उसे महिला विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव रखकर महिलाओं में उच्च शिक्षण की पहुंच को बढ़ाने का उपाय सुझाया है। आयोग के मुताबिक वर्तमान में सकल दाखिला अनुपात 14 मिलियन है, उसे बढ़ाकर उसे 22 मिलियन तक ले जाना है। स्कॉलरशिप का प्रस्ताव उत्तम है, क्योंकि परिवारों में यदि आर्थिक तंगी है तो उसकी गाज सबसे पहले लड़की के शिक्षा पर ही गिरती है। इसलिए यह व्यवस्था सहशिक्षा में उच्च शिक्षा लेने वाली लड़कियों पर भी लागू होती है। मुद्दा यह है कि क्या यूजीसी द्वारा अन्य दूसरे उपायों के जरिए इस समस्या को संबोधित किया जा सकता था? दरअसल, लड़कियों के सुरक्षित वातावरण के लिए यह बेहतर समझा गया कि उनके लिए अलग व्यवस्था हो। इस तरह से दोनों वजहों में समझदारी बढ़ती है तथा शेष में भी बदलनी चाहिए। जैसे, अभिभावकों से अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी बेटियों पर यह बंधन नहीं लगाएं कि वे सहशिक्षण नहीं ले सकती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में कितने अध्ययन ऐसे हो चुके हैं, जो सहशिक्षा को स्वस्थ विकास में सहायक मानते हैं। साथ-साथ पलना-बढ़ना, सीखना हो तो भविष्य में भी स्वाभाविक सामंजस्य की गंुजाइश अधिक होती है। दूसरी रही बात सुरक्षा की रही तो वह उपाय तो सहशिक्षा में भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसके प्रति जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ाए जाने पर बजटीय निवेश बढ़ाया जाना चाहिए तथा सुरक्षित वातावरण को नुकसान पहुंचाने वालों के लिए सख्त सबक देने का प्रावधान हो। कुल मिलाकर कहें तो अलगाव की व्यवस्था को उच्चकोटि की व्यवस्था नहीं माना जा सकता है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि लड़कियां भी सहशिक्षा को प्राथमिकता देने लगी हंै। मसलन, उत्तर प्रदेश में 150 महिला इंजीनियरिंग कॉलेज खोले गए थे, जिनमें से अधिकतर को बाद में बंद करना पड़ा, क्योंकि यहां दाखिला लेने वालों का संकट पड़ गया। अधिकतर कॉलेज तरह-तरह से ऑफर करते रहे, जबकि सहशिक्षा वाले इंजीनियरिंग कॉलेजों की सीट पहले दौर में ही भर जाती थी। यह स्थिति अन्य विश्वविद्यालयों से जुड़े कॉलेजों की भी है। कॉलेजों मे पढ़ाई गुणवत्ता के आधार पर हो तो कॉलेज नामधारी हो जाता है, लड़कियां भी वहीं दाखिला चाहती हैं। प्रतिष्ठित कॉलेजों में एक-दो कट ऑफ लिस्ट में ही सीटें भर जाती हैं यानी अच्छी पढ़ाई आधार बनती है, न कि लैंगिक कारण। पढ़ाई के लिए दूर नहीं भेजने का एक बड़ा कारण अलग से महिला छात्रावासों की कमी भी है। आजकल पढ़ाई के लिए अपना शहर छोड़कर बड़े शहरों में या अन्य अच्छे संस्थानों में जाने की प्रवृत्ति बढ़ी है, लेकिन संस्थानों ने इस जरूरत पर ठीक से ध्यान दिया ही नहीं है कि लड़कियों को रहने के लिए पर्याप्त सुरक्षित व्यवस्था हो। यूजीसी अगर महिला छात्रावासों को बनवाने का काम भी प्राथमिकता के तौर पर लेता तो उच्चशिक्षा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने का उसका लक्ष्य भी पूरा हो जाता। इसलिए पहले कारण समझने का प्रयास करना चाहिए कि महिलाओं के पीछे रहने का कारण क्या सहशिक्षण है या समाज में व्याप्त घोर स्त्रीविरोधी धारणा? क्या अलग व्यवस्था बना देने के बजाय उसे दुरुस्त करने के दूसरे उपाय ज्यादा सही नहीं होंगे? यह प्रश्न किया जाना चाहिए कि यह अलग महिला विश्वविद्यालय का प्रस्ताव अस्थायी समय के लिए है और लक्ष्य हासिल हो जाने के बाद क्या वह सहशिक्षण वाले संस्थान बन जाएंगे? एक दूसरे पहलू पर भी विचार किया जा सकता है। जैसे, दिल्ली विश्वविद्यालय से जुड़े कुछ महिला कॉलेजों की अब तक एक अलग तरह से एलिट वर्ग के संस्थान की पहचान हासिल हो गई है। वहां जिस पारिवारिक पृष्ठभूमि के लोग आते हैं, उनके बीच यह कोई मुद्दा नहीं है कि वे या उनके अभिभावक लड़कों के साथ पढ़ने देना नहीं चाहते, बल्कि वह एक प्रकार के रुतबे का मामला है कि आप एलएसआर या मिरांडा में पढ़ती हंै। समाज में महिलाओं के लिए कहां-कहां अलग से दुनिया बनाई जा सकती है? इसलिए भविष्य में अधिकाधिक साथ-साथ ही और पूरी बराबरी तथा सुरक्षा के बीच महौल निर्मित हो सकें, यही समझ लेकर भविष्य की हर क्षेत्र की कार्ययोजना बनाई जानी चाहिए। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

पांच अफसरों का घर सजाने पर 70 लाख खर्च


एम्स को मरीजों की स्वास्थ्य जांच व अन्य सुविधाओं की अपेक्षा अधिकारियों की शानो शौकत ज्यादा प्यारी है। आलम यह है कि पिछले वर्ष मरीजों से यूजर्स चार्ज (सुविधा शुल्क) के नाम पर डेढ़ करोड़ रुपये वसूलने में जरा भी संकोच नहीं हुआ, लेकिन मात्र पांच अधिकारियों के घरों को सजाने संवारने में एम्स ने 70 लाख रुपये खर्च कर दिए। पैसे का ऐसा खेल देश के सबसे बड़े स्वास्थ्य संस्थान में हो रहा है, जिससे यह साबित होता है कि यहां भी मरीजों के इलाज से कहीं ज्यादा अधिकारी अपनी रोटी सेंकने में लगे हुए हैं। आरटीआई से प्राप्त जानकारी में यह साफ हो गया है कि सुविधा के नाम पर साल भर में आने वाले लगभग 25 लाख मरीजों से जहां 1,52,73,000 रुपये वसूले गए वहीं मात्र पांच अधिकारियों के घर को सजाने संवारने पर 73, 63, 035 रुपये खर्च किए गए। एम्स के एक सीनियर डॉक्टर ने कहा कि सालाना एक हजार करोड़ रुपये का बजट एम्स का है। लेकिन मरीजों को न तो दवा मुफ्त में मिलती है, न ही जांच फ्री में की जाती है। लंबे इंतजार के लिए मरीज विवश हैं, किंतु बेडों की संख्या नहीं बढ़ाई जाती। निर्माण कार्य लगातार जारी है, क्योंकि इससे ठेकेदारों के साथ-साथ अधिकारियों के पैसे बन रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि इन दिनों निर्माण कार्य के नाम पर एम्स में पैसों का खूब खेल चल रहा है। पिछले वर्ष एम्स के इंजीनियर सेक्शन ने कार्डिए न्यूरो सेंटर के ओपीडी का निर्माण मात्र डेढ़ करोड़ रुपये में कर दिया। लेकिन हाल ही में जनरल ओपीडी के निर्माण पर लगभग 8 करोड़ रुपये खर्च किए किए, क्योंकि इसका निर्माण किसी अन्य एजेंसी से कराया गया। इससे पता चलता है कि मकसद बेहतर निर्माण कार्य का नहीं, बल्कि पैसे बनाने का है। पैसे के इस तरह दुरुपयोग पर एम्स प्रशासन चुप्पी साधे हुए है।