उच्च शिक्षा को प्राथमिकता देने में हम कितने पीछे हैं यह क्यूएस टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग के परिणामों से साफ है। इस रैंकिंग में वि के शीर्ष 200 विविद्यालयों में एक भी भारतीय विविद्यालय या शिक्षण संस्थान नहीं है। रैंकिंग के परिणामों के मुताबिक टॉप 500 की सूची में 218वें नंबर पर आईआईटी-दिल्ली, 225वें स्थान पर आईआईटी-मुंबई और 281वें स्थान पर आईआईटी-मद्रास का नंबर आता है। गौरतलब है कि इन तीनों संस्थानों की रैकिंग पिछले साल क्रमश: 202, 187 और 262 थी। जाहिर है कि हम डाउनफॉल की हालत का सामना कर रहे हैं। यह सूची यह बताने के लिए काफी है कि क्यों नस्ली हमले सहकर भी लोग ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में पढ़ते हैं और क्यों हमारे शिक्षा संस्थानों से कोई वेंकटरमण रामकृष्णन नहीं निकलता। बात यहीं खत्म नहीं होती। एशिया के शीषर्स्थ 200 विविद्यालयों में भारत का स्थान पांचवां है। सूची के करीब आधे विविद्यालय केवल दो देश चीन और दक्षिण कोरिया के हैं। ये दोनों देश इस मोच्रे पर दो दशक पहले भारत जैसे ही थे। साफ है कि उदारीकरण के बाद इन दोनों देशों ने अपनी शिक्षानीति में आमूलचूल बदलाए किए और हम केवल बातें ही बनाते रह गए। पिछले कुछ सालों का परिदृश्य देखें तो हमारे यहां केवल दोयम दज्रे के निजी विविद्यालय खुले हैं। विविद्यालयों की गुणवत्ता को लेकर अकसर यह तर्क सामने आता है कि गुणवत्ता का आधार दूसरे देश का कोई संस्थान नहीं हो सकता। ऐसा तर्क देने वालों का कहना है कि जब हमारे शिक्षण संस्थान देशी छात्रों और यहां की इंडस्ट्री की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं तो रैंकिंग देने वाले हमें जहां भी रखें, क्या फर्क पड़ता है। जाहिर है ये तर्क वैीकरण के इस माहौल में बेजा ही कहे जा सकते हैं। आज हमारी अर्थव्यवस्था तमाम संकटों के बावजूद करीब 8 प्रतिशत की विकास दर से आगे बढ़ रही है। इस दर को स्थायी बनाना एक शक्ति केंद्र के रूप में देश को विकसित करना है तो यह ग्लोबल तौर-तरीकों की शिक्षा केंद्रों की स्थापना के बगैर पूरा नहीं हो सकता। बगैर आधुनिक शिक्षण संस्थानों के हम प्रतिभाशाली जनशक्ति हासिल नहीं कर सकते। ऐसा नहीं कि हमारे पास यह जनशक्ति नहीं है लेकिन उसे हमेशा कुछ बेहतर करने के लिए ऑक्सफोर्ड, येल और कैब्रिज आदि विविद्यालयों का रास्ता नापना होता है। आज हमारे शीर्ष केंद्रीय विविद्यालयों में भी डिग्री केंद्रित शिक्षा अर्जन का काम चल रहा है। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान भी मेधावी छात्रों के लिए बस अच्छी नौकरी पाने का जरिया बन गए हैं। हमारे यहां जो मुट्ठी भर छात्र रिसर्च कायरे में लगे हैं, वे भी मौका मिलते ही विदेश चले जाते हैं। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय हमारे शिक्षण संस्थानों की बेहतरी के लिए जो कुछ कर रहा है उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता। 11वीं पंचवर्षीय योजना में केंद्र सरकार ने 30 नए केंद्रीय विविद्यालय, आठ नए आईआईटी, सात नए आईआईएम, 37 अन्य तकनीकी संस्थान और जिला स्तर पर 373 नए कॉलेज स्थापित करने के लिए करीब 80,000 करोड़ रुपये का आबंटन किया था। औपचारिक रूप से शुरू की गई इनमें से ज्यादातर संस्थान विस्तरीय नहीं कहे जा सकते और न ही यहां हमारी जमीनी जरूरतों का लेकर कोई शोध ही किया जा रहा है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय कितना ध्यान शोध पर दे रहा वह कुछ ही महीने पहले जारी इस फरमान से स्पष्ट हो जाता है कि जिसमें उसने शैक्षणिक संस्थानों को रिसर्च से जुड़े उपकरणों और रसायन आदि की खरीद की जिम्मेदारी लेने और विदेशों में रिसर्च पेपर पढ़ने के लिए स्पांसरशिप भी खुद ढूंढ़ने को कहा है। मंत्रालय संस्थानों को स्वाबलंबी बनाने के तर्क दे यह भूल रहा है कि टॉप 200 शिक्षण संस्थानों में अधिकांश सरकारी पैसे से चलते हैं। हां, यह जरूर है कि कई देशों में ऐसा ढ़ांचा विकसित किया गया है कि निजी कंपनियां भी बगैर किसी तरह के हस्तक्षेप के शिक्षण संस्थानों को पैसे डोनेट करती हैं। मंत्रालय इस तरह का ढ़ांचा विकसित करने में नहीं बल्कि सरकारी संस्थानों को कमजोर और निजी संस्थानों को मजबूत करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। विदेशी संस्थानों के भारत आने का भी रास्ता खोला जा रहा है लेकिन सवाल है कि ये विदेशी संस्थान या निजी संस्थान रिसर्च जैसे क्षेत्र में क्यों पैसा लगाना चाहेंगी? वे तो सीधे-सीधे लाभ के लिए काम करेंगी और सभी को मालूम है कि रिसर्च जैसे कार्य में पैसा लगाना उनके लिए लाभप्रद सौदा किसी कीमत पर नहीं हो सकता। सरकार की तरफ से शोधपरक कायरें के लिए पैसे की कमी नहीं होनी चाहिए। प्राइवेट सेक्टर से ठीक वैसी ही मदद ली जानी चाहिए जैसे विदेशों में ली जाती है। उन्हें शिक्षण संस्थाओं को गोद लेने को कहा जा सकता है या फिर जो प्राइवेट कंपनी शिक्षण संस्थाओं को आर्थिक मदद प्रदान करे उन्हें टैक्स में राहत दी जा सकती है। दरअसल सरकार के पास उच्च शिक्षा के लिये पैसा लाने के लिए विकल्पों की कमी नहीं है लेकिन सवाल है कि आप चाहते क्या हैं? हमें अगले 20 सालों में कम से कम 50 विस्तरीय संस्थान खड़ा करने के लक्ष्य पर काम करना चाहिए।
Monday, October 31, 2011
Saturday, October 15, 2011
शिक्षा के नाम पर कारोबार की अनुमति नहीं : सिब्बल
वैश्विक स्तर पर शैक्षणिक गठजोड़ की वकालत करते हुए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा है कि शिक्षा के नाम पर कारोबार की अनुमति नहीं दी जाएगी। उन्होंने यह बात शुक्रवार को यहां एक दिवसीय भारत-अमेरिका शिक्षा शिखर सम्मेलन के समापन पर कही। उन्होंने कहा कि वैश्विक स्तर पर शैक्षणिक गठजोड़ के लिए विदेशी शिक्षा प्रदाता विधेयक लाया जा रहा है। विदेशी संस्थाओं पर भी वही कानून लागू होंगे जो भारत के निजी शैक्षणिक संस्थानों पर लागू होते हैं। उन्होंने कहा, इस संदर्भ में कोई भेदभाव या पक्षपात नहीं किया जाएगा। सभी को समान अवसर प्रदान किए जाएंगे। उन्होंने कहा कि दोनों देशों के बीच वार्ता प्रक्रिया से अमेरिका स्थित सरकारी कालेजों को भारत में अपने पैर जमाने और साझीदार तलाशने में मदद मिलेगी, लेकिन इसका मकसद केवल लाभ कमाना नहीं हो सकता है। सिब्बल ने कहा कि शुरुआत में भारतीय और अमेरिकी शिक्षण संस्थानों के बीच सहयोग संयुक्त डिग्री, प्रमाणपत्र और डिप्लोमा पाठ्यक्रम के संबंध में होगा। सिब्बल ने कहा, मैं नहीं समझता कि प्रतिष्ठित हार्वर्ड, याले या प्रिंस्टन विश्वविद्यालय भारत में अपने कैंपस स्थापित करेंगे। मुझे इसमें काफी संदेह है। उन्होंने कहा कि अमेरिकी शिक्षण संस्थानों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वह पहले भारतीय माहौल और अन्य आयामों के बारे में जानकारी हासिल कर लें।
Tuesday, October 11, 2011
अभी बेरंग ही है मुफ्त शिक्षा की मुहिम
हाल में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून से संबंधित विशेषज्ञों की एक टीम ने कानून पर प्रभावी रूप से अमल करने के लिए सुझाव दिया है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक गवर्निंग बॉडी बनाई जानी चाहिए। भारत में 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून का मुद्दा आजादी से पहले भी रहा है। शिक्षा में एक वर्ग विशेष के स्वघोषित एकाधिकार को तोड़ने के लिए, 24 जनवरी 1917 को छत्रपति शाहू जी महाराज ने अपने शासन क्षेत्र में 6-14 वर्ष तक के सभी बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून लागू किया था। संविधान का प्रारूप तैयार करते समय डॉ. भीमराव अम्बेडकर भी चाहते थे कि मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के विषय को मौलिक अधिकारों की सूची में शामिल किया जाए। लेकिन अनेक नेताओं के विरोध के कारण उक्त अधिकार को नीति निर्देशक सिद्धान्तों में डालना पड़ा, जिसमें निर्देशित है कि राज्य 1960 तक उक्त कानून बनाएगा। राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के चलते 50 वर्षो के बाद एक अप्रैल 2010 को बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार मिल पाया है। जो हाल-फिलहाल बेरंग ही नजर आ रहा है। उक्त कानून पर अमल करने में कई समस्याएं सामने आ रही हैं। पहली बड़ी समस्या है कि तमाम प्रचार अभियानों के बावजूद करीब 20 प्रतिशत लोगों को ही इस कानून की जानकारी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार 31 मार्च 2011 तक 15 राज्यों ने ही उक्त कानून को लागू करने की अधिसूचना जारी की है। गत जुलाई में उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अधिसूचना जारी कर दी है। राज्यों में उक्त कानून के अमलीकरण की जिम्मेदारी बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सौंपी गयी है। लेकिन अब तक करीब 15 राज्यों द्वारा ही बाल अधिकार संरक्षण आयोग गठित किए गए हैं। देश में 6-14 वर्ष की आयु के लगभग 22 करोड़ बच्चे हैं। जिनमें से करीब 19 करोड़ स्कूलों में दाखिल हैं, शेष 3 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो स्कूल नहीं जाते। इनमें करीब सवा करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं। इस हिसाब से शेष पौने दो करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित होने चाहिए। पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार करीब 81 लाख 50 हजार बच्चे ही स्कूलों से वंचित हैं। सवाल है कि ऐसे 93 लाख 50 हजार बच्चे कहां हैं और क्या कर रहे हैं जो न तो स्कूल जाते हैं और न ही बाल श्रमिक हैं। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशन प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (न्यूपा) की रिपोर्ट के अनुसार स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या बढ़ने के बजाय घट रही है। वर्ष 2008-09 के दौरान देश में पहली से पांचवी कक्षा में प्रवेश लेने वाले बच्चों की संख्या 13 करोड़ 43 लाख थी, जो वर्ष 2009- 10 में घटकर 13 करोड़ 34 लाख रह गयी। बच्चों में मिडडे-मील योजना का आकषर्ण कम होने लगा है। दोपहर का भोजन खाते ही अधिकांश बच्चे स्कूलों की दीवार फांदकर भाग जाते हैं। बड़ा सवाल है कि मुफ्त में वर्दी, किताबें, खाना और अनेक योजनाओं का पैसा मिलने के बावजूद बच्चे शिक्षा से दूर क्यों भाग रहे हैं ? अब 6-14 वर्ष की आयु का कोई भी बच्चा वर्ष में कभी भी नजदीक के सरकारी स्कूल में दाखिला ले सकेगा। अब किसी बच्चे का स्कूल से नाम भी नहीं कट सकेगा। बच्चों को पास- फेल होने के झंझटों से भी छुटकारा मिल गया है। आठवीं तक के सभी बच्चों का अगली कक्षा के लिए प्रोन्नत होना सुनिश्चित कर दिया गया है। देश में करीब 40 फीसद शिक्षक ठेके पर काम कर रहे हैं, फिर भी आठवीं तक के स्कूलों में शिक्षकों के करीब सात लाख पद खाली पड़े हैं। उक्त कानून को लागू करने के लिए करीब पांच लाख शिक्षकों की और जरूरत पड़ेगी। इसके अलावा करीब 14 लाख कक्षाओं का निर्माण करना होगा। एक शिक्षक पर छात्रों का राष्ट्रीय अनुपात 32 है। लेकिन करीब 15 राज्यों में शिक्षक-छात्र अनुपात राष्ट्रीय अनुपात से अधिक है। देश की राजधानी दिल्ली के स्कूलों में सैकड़ों कक्षाएं ऐसी हैं, जिनमें 70 से 90 बच्चे हैं। अनुपात के मामले में पूर्वोत्तर राज्यों की स्थिति बेहतर है। आरटीई एक्ट में कहा गया है कि देश में प्रति एक वर्ग किमी के दायरे में एक विद्यालय होना चाहिये पर देश में प्रति पांच किमी के दायरे में एक स्कूल है। एक्ट के तहत प्रत्येक स्कूल के पास एक खेल का मैदान होना चाहिए पर देश के करीब 45 फीसद स्कूलों में खेल के मैदान नहीं हैं। खेल का मैदान कितना बड़ा हो, यह तय करने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ दी गयी है। मसलन, दिल्ली में खेल के मैदान के लिए 900 वर्ग गज का दायरा तय किया गया है। दूसरी तरफ दिल्ली में ही शिक्षा की दुकानों के रूप में चल रहे सैकड़ों स्कूल ऐसे हैं, जिनके पास खेल का मैदान तो क्या, ढंग के शौचालय तक नहीं हैं। ‘न्यूपा’ की वर्ष 2009-10 की रिपोर्ट के अनुसार प्रति दस वर्ग किमी के दायरे में दिल्ली में 29, पुडुचेरी में 12, चंडीगढ़ में 12, पश्चिम बंगाल में 9, बिहार में 7, उत्तर प्रदेश में 6 और झारखंड में 5 स्कूल हैं। देश में वर्ष 2008- 2009 में आठवीं तक के स्कूलों की संख्या 13 लाख थी। वर्ष 2009-10 के दौरान करीब एक लाख 91 हजार नए स्कूल खोले गये। जिनमें से सबसे ज्यादा करीब 43 हजार स्कूल उत्तर प्रदेश में खोले गये। हाल ही में यूपी में 11 हजार 418 नए स्कूल खोलने की मंजूरी मिल गयी है। इस अवधि में बिहार में करीब 16 हजार पांच सौ स्कूल, झारखंड में 18 हजार और उत्तराखंड में करीब 2 हजार 800 स्कूल खोले गये। आमतौर पर शिक्षा के मामले में शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों को अधिक पिछड़ा माना जाता है। पर जनगणना 2011 के आंकड़े कुछ और ही बयां कर रहे हैं। पिछले एक दशक में देश की साक्षरता दर में 9.2 फीसद की वृद्धि हुई है। इस दौरान शहरी क्षेत्रों में साक्षरता दर में मात्र 5.05 फीसद की वृद्धि हुई जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में वृद्धि दर दो गुनी से भी अधिक यानी 10.18 फीसद दर्ज की गयी। ग्रामीण क्षेत्रों में पब्लिक स्कूलों में प्रवेश का रुझान भी बढ़ रहा है। आरटीई एक्ट सामाजिक कल्याण के साथ- साथ राष्ट्र निर्माण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। देश का भविष्य माने जाने वाले बच्चे राष्ट्र निर्माण की अहम कड़ी हैं। गरीबों के लिए सरकारी और अमीरों के लिए पब्लिक स्कूल की दोहरी शिक्षा नीति से राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया कमजोर हो रही है। देश के अधिकांश सरकारी स्कूल राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं और पब्लिक स्कूलों का प्रबंधन इस उधेड़बुन में लगा रहता है, कि शिक्षा को ऊंची कीमत पर कैसे बेचा जाय। जिस शिक्षा का उद्देश्य कभी समाज सेवा होता था, आज वही शिक्षा बाजार का रूप ले चुकी है। शिक्षा को बाजार से मुक्त कराने के लिए जरूरी है कि सरकारी स्कूलों को मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराते हुए देश में समान शिक्षा नीति लागू की जाए।
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